क्रांति १८५७
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यह वेबसाईट इस महान राष्ट्र को सादर समर्पित।

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झांसी की रानी का ध्वज

स्वाधीन भारत की प्रथम क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर शहीदों को नमन
वर्तमान भारत का ध्वज
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क्रांति १८५७
 

प्रस्तावना

  रुपरेखा
  1857 से पहले का इतिहास
  मुख्य कारण
  शुरुआत
  क्रान्ति का फैलाव
  कुछ महत्तवपूर्ण तथ्य
  ब्रिटिश आफ़िसर्स
  अंग्रेजो के अत्याचार
  प्रमुख तारीखें
  असफलता के कारण
  परिणाम
  कविता, नारे, दोहे
  संदर्भ

विश्लेषण व अनुसंधान

  फ़ूट डालों और राज करो
  साम,दाम, दण्ड भेद की नीति
  ब्रिटिश समर्थक भारतीय
  षडयंत्र, रणनीतिया व योजनाए
  इतिहासकारो व विद्वानों की राय में क्रांति 1857
  1857 से संबंधित साहित्य, उपन्यास नाटक इत्यादि
  अंग्रेजों के बनाए गए अनुपयोगी कानून
  अंग्रेजों द्वारा लूट कर ले जायी गयी वस्तुए

1857 के बाद

  1857-1947 के संघर्ष की गाथा
  1857-1947 तक के क्रांतिकारी
  आजादी के दिन समाचार पत्रों में स्वतंत्रता की खबरे
  1947-2007 में ब्रिटेन के साथ संबंध

वर्तमान परिपेक्ष्य

  भारत व ब्रिटेन के संबंध
  वर्तमान में ब्रिटेन के गुलाम देश
  कॉमन वेल्थ का वर्तमान में औचित्य
  2007-2057 की चुनौतियाँ
  क्रान्ति व वर्तमान भारत

वृहत्तर भारत का नक्शा

 
 
चित्र प्रर्दशनी
 
 

क्रांतिकारियों की सूची

  नाना साहब पेशवा
  तात्या टोपे
  बाबु कुंवर सिंह
  बहादुर शाह जफ़र
  मंगल पाण्डेय
  मौंलवी अहमद शाह
  अजीमुल्ला खाँ
  फ़कीरचंद जैन
  लाला हुकुमचंद जैन
  अमरचंद बांठिया
 

झवेर भाई पटेल

 

जोधा माणेक

 

बापू माणेक

 

भोजा माणेक

 

रेवा माणेक

 

रणमल माणेक

 

दीपा माणेक

 

सैयद अली

 

ठाकुर सूरजमल

 

गरबड़दास

 

मगनदास वाणिया

 

जेठा माधव

 

बापू गायकवाड़

 

निहालचंद जवेरी

 

तोरदान खान

 

उदमीराम

 

ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव

 

तिलका माँझी

 

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

 

नरपति सिंह

 

वीर नारायण सिंह

 

नाहर सिंह

 

सआदत खाँ

 

सुरेन्द्र साय

 

जगत सेठ राम जी दास गुड वाला

 

ठाकुर रणमतसिंह

 

रंगो बापू जी

 

भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर

 

वासुदेव बलवंत फड़कें

 

मौलवी अहमदुल्ला

 

लाल जयदयाल

 

ठाकुर कुशाल सिंह

 

लाला मटोलचन्द

 

रिचर्ड विलियम्स

 

पीर अली

 

वलीदाद खाँ

 

वारिस अली

 

अमर सिंह

 

बंसुरिया बाबा

 

गौड़ राजा शंकर शाह

 

जौधारा सिंह

 

राणा बेनी माधोसिंह

 

राजस्थान के क्रांतिकारी

 

वृन्दावन तिवारी

 

महाराणा बख्तावर सिंह

 

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

क्रांतिकारी महिलाए

  1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
  रानी लक्ष्मी बाई
 

बेगम ह्जरत महल

 

रानी द्रोपदी बाई

 

रानी ईश्‍वरी कुमारी

 

चौहान रानी

 

अवंतिका बाई लोधो

 

महारानी तपस्विनी

 

ऊदा देवी

 

बालिका मैना

 

वीरांगना झलकारी देवी

 

तोपख़ाने की कमांडर जूही

 

पराक्रमी मुन्दर

 

रानी हिंडोरिया

 

रानी तेजबाई

 

जैतपुर की रानी

 

नर्तकी अजीजन

 

ईश्वरी पाण्डेय

 
 

उत्तर प्रदेश


बरेली

बरेली रू हेलखण्ड की राजधानी थी। ब्रितानियों ने यह राज्य रू हेले पठानोंे से बलपूर्वक छीन लिया था। इस प्रांत के शूर, मजबूत और तेजस्वी मुसलमानों की बस्ती थी और वे सब अपने अपमान का प्रतिशोध लेने के लिये अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। 1857 के समय ब्रितानी सत्ता के विरुद्ध राजनैतिक क्रांति का प्रचार जिन स्थानों में विशेष वेग से प्रसारित हो रहा था उन स्थानों में रू हेलखंड और उसकी राजधानी का समावेश अवश्य करना चाहिए। इस समय बरेली में 8वां अनियमित घुड़सवार दल, पैदल की 18वीं और 68वीं टुकड़ियां और हिंदी तोपखाने का एक पथक छावनी में था। इस सेना के नेता ब्रिगेडियर रिवाल्ड थे। कुछ दिन पूर्व लगभग एक सौ क्रांतिकारी सैनिक वहाँ पहंुच कर गुप्त रू प से छावनी में रहे थे। मेरठ का संपूर्ण समाचार सुनाकर यहाँ के सैनिकों की क्रांति भावना उद्धीप्त कर वे मेरठ चले गये। फ़िर भी बाह्य रू प से सैनिकों ने संपूर्ण शांति का पालन किया ।

31 मई को ग्यारह बजे सैनिकों की छावनी से तोपों की गड़गड़ाहट सुनाई दी। वह गड़गड़ाहट वातावरण में शांत होने से पहले ही राइफ़लों और संगीनों की खनखनाहट से और भीषण गर्जनाओं से गूँज उठा। बरेली का विद्रोह इतनी बारीकी से आयोजित हुआ कि किसको किस ब्रितानी को मारना था यह भी पहले ही निश्चित था। ग्यारह बजते ही 68वीं टुकड़ी ने छावनी के ब्रितानियों पर धावा बोल दिया। ब्रिगेडियर सिवाल्ड पहली भिड़ंत में मारा गया और सामने आये अन्य ब्रितानियों को भी मार डाला गया। केवल 31 ब्रितानी अधिकारी सकुशल बच कर नैनीताल पहुंचे। इस प्रकार केवल 6 घंटों में बरेली में ब्रितानी सत्ता सर्वथा समाप्त हो गई।

बरेली, शाहजहांपुर, मुरादाबाद गांवों के सैनिकों, पुलिस व नागरिकों ने मिलकर घोषणा-पत्रकों द्वारा केवल कुछ घंटो के अंदर ब्रितानी राजसत्ता को उखाड़ दिया। ब्रितानी राजसत्ता को नष्ट कर वहां स्वदेशी सिंहासनों की स्थापना की गई। ब्रितानियों के घ्वज फ़ाड़ कर वहाँ स्वदेशी सिंहासनों की स्थापना की गई। ब्रितानियों के ध्वज फ़ाड़ कर फ़ैंक दिये गये और न्यायालयों, पुलिस थानों और अन्य कार्यालयों पर क्रांति की झंडे फ़हराए ग़ए। अब राज्यकर्त्ताओ का रू प हिन्दुस्तान ने धारण किया था। यह कितना बड़ा आश्चर्य है कि अपनों के खून की एक बुंद भी बहाए बिना रू हेलखण्ड स्वतंत्र हुआ।

झांसी

अवसरवादी ब्रितानी अपनी कूटनीति व षडयंत्र के द्वारा झांसी को अपने अधिकार में लेना चाहते थे। लेकिन इसके लिये उन्हे किसी अनुकूल अवसर की तलाश थी और उनकी यह तलाश तब पूरी हुई जब रानी लक्ष्मी बाई के पति निसंतान स्वर्गवासी हो गये व झांसी का कोई उत्तराधिकारी नहीं रहा। इस पर रानी ने बालक दामोदर को गोद लिया।

लेकिन ब्रिटिश सरकार ने लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र बालक दामोदर को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया व झांसी को ब्रितानी राज्य में मिलाने का षडयंत्र रचा। जब रानी को पता लगा तो उन्होंने एक वकील की मदद से लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। लेकिन ब्रितानियों ने रानी की याचिका खारिज कर दी व डलहौजी ने बालक दामोदर को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया क्योंकि वे झांसी पर अपना कब्जा करना चाहते थे।

मार्च 1854 में ब्रिटिश सरकार ने रानी को महल छोड़नेका आदेश दिया, साथ ही उनकी सालाना राशि में से 60,000 रू पये हर्जाने के रू प में हड़प लिये। लेकिन रानी ने निश्चय किया की वह झांसी को नहीं छोड़ेगी। रानी देशभक्त व आत्मगौरव शील महिला थी। उन्होंने प्रण लिया कि वह

झांसी को आजाद करा कर ही दम लेगी। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनके हर प्रयास को विफ़ल करने की कोशिश की।

नाना साहब के कानपुर के युद्ध की चौपड़ पर स्वतंत्रता का पासा फ़ेंकते ही रानी लक्ष्मी ने भी झांसी में वही चेष्टा की। 4 जून को जब कानपुर का आकाश क्रांति के रक्तमेघों से आरक्त हुआ था, तब झांसी की महारानी भी बिजली के समान चमकती हुई युद्ध के लिए सिद्ध हो गई थी। रानी ने एक सेना सगं़ठित की। इसमें आम जनता को शामिल किया गया। इस सेना में महिलाओं को भी भर्ती किया गया। उनको भी घुडसवारी, तलवार-बाजी, शिकार आदि का प्रशिक्षण दिया गया।

4 जून को झांसी में विद्रोह आरंभ हुआ। विद्रोह के पूर्व ब्रिटिश अधिकारी के हाथ कुछ पत्र पड़ गये और उन पत्रों के आधार पर यह अर्थ निकाला गया कि रानी के लक्ष्मणराव नाम के ब्राह्मण कर्मचारी क्रांति का नेतृत्व कर रहा है व उसका विचार पूर्वप्रयोग के स्वरू प सेना के ब्रिटिश अद्यिकारियों को मार डालने का है। किंतु जब विद्रोह की अवस्था में क्या करना चाहिये ब्रिटिश अधिकारी यह मंत्रणा कर रहे थे उसी समय क्रांतिकारियों ने किले पर अधिकार कर लिया। यह देख कर ब्रितानी आश्रय के लिए नगरआतगर्त किले की आर भागे। किन्तु क्रांतिकारियों ने उस पर भी चढ़ाई कर उस पर कब्जा कर लिया।

7 जून को रिसालदार काले खां, झांसी का तहसीलदार मुहमद हुसैन व अन्य शूरवीरोंने चढ़ाई कर झंासी के किले पर ध्वजारोहण किया। ब्रितानियों ने श्‍वेत निशान फ़हरा कर शरण देने की याचना की। झंासी के एक प्रमुख नागरिक मुहम्मद ने बिना किसी शर्त के शरण आने की अवस्था में उनकी जान बख्शने का आश्‍वासन दिया। ब्रितानियों ने शस्त्र त्याग कर किले के द्वार खोल दिये। ब्रितानियों के द्वार के बाहर पैर रखते ही सैनिकों ने मारो फ़िरंगी को चिल्लाना आरंभ किया।

एक क्षण में रक्त का प्रवाह बहने लगा। इस प्रकार गोद लेने का रानी का अधिकार अस्वीकार करने वाले डलहौजी की राज्यों को डरकाने की क्रूर नीति के कारण ये ब्रितानी-बंदी गोलियों के शिकार हुए। क्रांतिकारियों ने घोषित किया कि खुल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का और अमल लक्ष्मी का।

झांसी की तरुण रानी ने उक्त हत्याकांड के लिये सिपाहियों को किंचिन मात्र भी नहीं उकसाया था।

लखनऊ

कानपुर क्षेत्र में शांति स्थापित करने के लिये ब्रिटिश सरकार ने वालपोल को भेजा गया। कानपुर से निकल कर वालपोल इटावा पहुँचा। वहाँ के एक भवन से जोरदार प्रतिकार करने वाले कुछ हिन्दू वीरों ने वालपोल की चढ़ाई को अवरुद्ध कर दिया था। क्रांतिकारियों ने भवन के छेदों से तीन घंटे तक इतनी तीव्र गोलाबारी की कि शत्रु को निकट भी नहीं आने दिया।

दिल्ली के पतन के बाद जल से ओतप्रोत नदी के प्रचंड प्रवाह के समान सम्पूर्ण देश मेंे गदर धूम मचाते हुए फ़ैल गया। बख्त खां के नेतृत्व मेंे रुहेलखंड के सैन्य वीर सिंह ने देश के विभिन्न स्थानों मेंे स्ंाघर्ष चालू किया।

काठमांडू से तीन हजार गोरखे सैनिक अयोध्या के पूर्व मेंे आजमगढ़ और जवानपुर के नगरों मेंे पहुंचे। जब ब्रितानी दोआब से संघर्ष कर रहे थे तब वेणी माधव ,मुहम्मद हुसैन और राजा नादिर खां ने बड़े शौर्य से बनारस के आसपास का सारा प्रदेश व सर्व क्रांति सैन्य लखनऊ से निकल गया और जब ब्रिटिश पलटनें वहाँ उत्पात मचा रही थी तब निराश प्रतिक्रिया के बल से जूझते हुवे मौलवी साहब वहां अडे़ रहे।

क्रांतिकारियों के हठी नेता मौलवी साहब पुन: लखनऊ मेंे वापस आये। क्रांतिकारियों ने अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया व बहुतों को मार कर और आहत कर वे बाहर निकल गये। अब ब्रितानियों ने सम्पूर्ण लखनऊ हस्तगत कर लिया था।

लखनऊ की बंदीशाला मेंे कुछ ब्रितानी स्त्रियां व अधिकारी थे। क्रोधित क्रांतिकारी महल मेंे गये और उन्होंने ब्रितानी बंदियों से प्रतिशोध लेने का अपना विचार बेगम को सुनाया। सर माउंट स्टुअर्ड व अन्य 5-6 ब्रितानी बन्दियों को उनके स्वाधीन करते ही क्रांतिकारियों ने उन्हें वहीं के वहीं गोलियां चला कर मार डाला। परंतु जब क्रांतिकारियों ने महिला बंदियों को भी मारने का हठ किया तब स्त्री जाति की प्रतिष्ठा के लिये बेगम ने उनकी मांग एकदम से ठुकरा दी। उन्होंने ब्रितानी महिलाओं को अपने अन्त:पुर मेंे रख कर उनके प्राणों की रक्षा की। लड़ाई में शत्रु को कुचल कर, भगाकर व उसकी तोपे हस्तगत किये बिना क्रांतिकारियों ने एक भी शत्रु को नहीं छोड़ा। लेकिन ये लोग पुन: युद्ध के लिये सिद्ध होते थे। एक जगह से क्रांतिकारियों को खदेड़ा जाता था उतने मेंे पुन: वे दुगुनी-तिगुनी संख्या मेंे किसी अन्य जगह मेंे खडे़ होते थे। सेनाएं आक्रमण कर धंसती हुई आगे बढ़ती थी तो क्रांतिकारी दल पीछे के पूरे क्षेत्र पर कब्जा कर लेते थे।

कानपुर

1857 की क्रांति के समय कानपुर सैनिकोंे की महत्वपूर्ण छावनी थी। यहाँ हिन्दू मुसलमानों व सैनिकोंे की गुप्त सभाए होती थी। कानपुर की रक्षा करने के लिये यहां के राजा से सर व्हीलर ने अनुरोध किया था। कुछ पूर्व ही जिसका राज मुकुट पैरों तले कुचलकर ब्रितानी ने चूर-चूर किया था उससे ही अपनी विपत्ति के समय ब्रितानी आज सहायता के लिये याचना कर रहे थे।

22 मई को तोपों, सैनिकोंे व कुछ पैदल व घुडसवार दल के साथ नानासाहब कानपुर में प्रविष्ट हुए। यह तो निश्चित ही था कि कानपुर में विद्रोह होते ही कोष लूटा जाएगा उसके सरंक्षण का दायित्व नाना साहब को दिया गया। कलेक्टर हिलर्सडेन ने नाना व तांत्या टोपे का हार्दिक आभार माना। उस समय पूरी जनता पर युद्ध व स्वतंत्रता का भूत सवार था। विद्रोह के आरंभ के दिन तक भी बहादुरशाह, नाना साहब व झांसी की रानी के हलचलों के विषय में ब्रितानियों को बिलकुल पता न था। 1 जून को नाना साहब अपने भाई बालासाहब व मंत्री अजीमुल्ला खां के साथ गंगा किनारे पहुँचे।

एक दिन सांयकाल एक ब्रितानी युवक ने शराब के नशे में एक सैनिक पर गोली चलाई, निशाना चूक ग़या लेकिन सैनिक ने उस अपराधी के विरुद्ध अभियोग दायर किया। उस अपराधी को निर्दोष ठहरा कर छोड़ दिया गया व कारण यह बताया गया कि वह ब्रितानी नशे में चूर था इसलिये गोली अपने आप छूट गई। इस अपमान से सारे सैनिक कानाफ़ूसी करने लगे।

4 जून को असंतोष का विस्फ़ोट हुआ। भवनों को आग लगा दी गई।सूबेदार टिक्कासिंह ने फ़िरंगियों केविरुद्ध अपनी सेना के साथ विद्रोह किया। उसके बाद वह नवाबगंज में नाना की छावनी की ओर चल पडे़। नाना के सैनिक नवाबगंज के कोषागार पर खड़े थे। उन्होंने बारू द के भंड़ार को कब्जे में कर लिया लेकिन एक भी ब्रितानी नहीं मारा ग़या। सर व्हीलर इसी बात से संतुष्ट था कि सैनिक दिल्ली की और चले जाऐंगे व कानपुर का संकट टल जाएगा। सच है अगर कानपुर में कुशल नेताओं की कमी होती तो व्हीलर की कल्पना हकीकत में बदल जाती। सैनिकोंे ने नाना को अपना राजा घोषित किया ।

सैनिक दिल्ली नहीं जा रहे यह सुनते ही ब्रितानियों ने नव निर्मित गढ़ी का आश्रय लिया व तोपखाने सुसज्जित रखे। ब्रितानियों की गढ़ी की दिशा में मोर्चे लगाये गये। क्रांतिकारियों ने ब्रितानियों के बारू दखाने तोपों आदि को अपने कब्जे में किया व गढ़ी के भवनों का विध्वंस कर दिया।

जून 25 को लड़ाई बंद करने का निशान किले पर लगाया गया। यह देख कर नाना ने अपनी ओर से लड़ाई स्थगित करते हुए एक ब्रितानी महिला के द्वारा सर व्हीलर को एक पत्र भेजा। सर व्हीलर ने उस पर विचार करने का अधिकार कैप्टन मूर व व्हाइटिंग़ को दिया। इन दोनों ने नाना की शरण में जाने का निर्णय किया। संधि में निश्चय हुआ कि ब्रितानियों को अपना तोपखाना, शस्त्रास्त्र, गोलाबारू द व कोष नाना के अधीन करना होगा व ब्रितानियों को सुरक्षित इलाहाबाद पहुँचाने का दायित्व नाना का होगा।

27 जून के दिन ब्रितानी किले से बाहर निकल पड़े। गंगा किनारे ब्रितानी नौका पर सवार हुऐ। इतने में बिगुल की ध्वनि सुनाई पड़ी। सैनिक नदी में कूद पडे़। नाना ने कहा केवल ब्रितानी पुरुषों को मारो लेकिन औरतो व बच्चों को मत मारो। उनको सावदा कोठी की ओर भेज दिया ज़ाए। नाना साहब ने क्रूरता का व्यवहार नहीं किया।

5 जून को नाना साहब ने एक बड़ी राजसभा का आयोजन किया। अब पेशवाओं के सिंहासन पर नाना साहब आरू ढ़ हुए।

इलाहाबाद

5 जून 1857 को बनारस में हुई क्रांति की बात इलाहाबाद पहुँची जिससे ब्रितानी चौकंने हो गये। उस दिनब्रितानियों ने बनारस के मार्ग के पुल पर तोपें लगाई और इलाहाबाद के किले के द्वार भी बन्द कर दिये परिणामत: इलाहाबाद के सैनिकों और नागरिकों ने एक साथ विद्रोह करने की योजना बनाई।

बनारस के पुल पर लगाई हुई तोपों को किले में रखने की आज्ञा दी ग़ई।सैनिकों ने घोषणा की कि किले में नहीं अपितु सैंनिक छावनी में ही तोपें रखी जाए। सैनिकों के इस विलक्षण औद्धत्य के विषय में उन्हे दंड देने के लिये ब्रितानी अधिकारियों ने अयोध्या के घुड़सवार दल को आज्ञा दी। दल ने यह आज्ञा ठुकरा दी लेफ़्टिनेंट अलेक्जेंड़र की छाती पर प्रहार हुआ और उसके शरीर के टुकड़े-टुकडे़ हुए।

क्रोध से भरे ये क्रांति वीर ब्रितानियों के घर जलाते हुए घूमने लगे।रेल के कार्यालयों, रेल लाइनों, तारों के खंभों, तार और इंजनों का विघ्वंस कर दिया गया।  17 तारीख को प्रात: क्रांतिकारियों ने लगभग 30 लाख रुपये का कोष लूट लिया और पुलिस स्टेशन पर क्रांति का घ्वज फ़हराया।

कुछ समय बाद जनरल नील ब्रितानी पलटनों को साथ लेकर इलाहाबाद की और दौड़ा। वह 11 जून को वहाँ पहुंचा। ब्रितानियों की गुलामी के विरुद्ध विद्रोह करने के अपराध के कारण देशभक्तों को बड़ा मूल्य चुकाना पड़ा। नील ने न बूढ़ा देखा न प्रौढ़ देखा, युवक, बालक, शिशु या दूध पीता बच्चा किसी को भी उसने जीवित न छोड़ा। संपूर्ण क्रांतिकाल में समस्त भारत में जितनी ब्रितानी महिलाएं और बच्चे मारे गये, उतनो को अकेले नील ने केवल इलाहाबाद में मारा ।

अंत में नील ने इलाहाबाद पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। यहाँ नील द्वारा चलाये गये दमन चक्र में हजारो नर-नारी शहीद हुए।

मुज्जफ़रनगर

मुज्जफ़रनगर उत्तर प्रदेश का एक जिला है। ब्रिटिश शासकों ने अपने शासन काल में यहाँ की जनता पर कई तरह से अत्याचार किये व उनकी व्यक्तिगत व सार्वजनिक सम्पत्ति को बलपूर्वक अपने आधिपत्य में लेना चाहा। यहां पर 1857 की क्रांति के दौरान ब्रितानियों ने गांव के लोगों से जबर्दस्ती लगान वसूली करनी चाही। ब्रितानियों की इस तानाशाही का विरोध वहां के पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों ने भी किया। सरकार द्वारा कुछ स्त्रियों को फ़ांसी की सजा भी दी गई। इतना सब करने के बाद भी ब्रितानियों के अत्याचार समाप्त नहीं हुए।

उन्होंने मुज्जफ़रनगर के भवन थाना की असगरी बेगम को 1857 में जिंदा जला दिया। इसके अलावा बांखरा गांव की बख्तावरी को फ़ांसी की सजा दी गई। इन सब के अलावा मुज्जफ़रनगर जिले की 255 महिलाओं को या तो जिंदा जला दिया गया या गोली मार दी गयी। फ़िर भी, यहाँ की जनता ने अपनी हार नहीं मानी। कई क्रांतिकारियों ने आजादी के लिये हंसते-हंसते प्राणो का उत्सर्ग कर दिया।

मेरठ

सन 1857 में ब्रितानी फ़ौज के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह एक साल तक चला और उत्तर भारत के अधिकतर भाग़ों में फ़ैल गया। इसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। यह लड़ाई मुख्यतया दिल्ली लखनऊ, कानपुर, झांसी ओर बरेली में लड़ी गई। इस लड़ाई में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, अवध की बेगम हजरत महल, नाना साहब, मौलवी अहमद शाह, राजा बेनी माधव सिंह अजीमुल्ला खां और अनेक देश भक्तों ने भाग लिया।

इस विद्रोह का आरंभ 6 मई को मेरठ शहर में हुआ। इसका प्रमुख कारण डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति व ब्रितानियोंे द्वारा गाय व सुअर की चर्बी से युक्त कारतूस देना बताया गया है।

लेकिन मेरठ में कुछ निराला ही तूफ़ान उठ रहा था। वह था चर्बी वाले कारतूसों वाली घटना से उत्पन्न रोष। कारतूसों के बारे में सैनिक वास्तव में क्रोधित हैं या नहीं यह आजमाने के लिये ब्रितानियोंे ने एक नई युक्ति सोची।उनके अनुसार 6 मई को अश्‍वारोही दल के सैनिकों पर इन कारतूसों के उपयोग को थोपने का विचार किया, किंतु 90 में से केवल 5 सैनिकों ने ही कारतूसों को स्पर्श किया। बाद में सभी सैनिकों ने ब्रितानियोंे की आज्ञा ठुकरा दी। इस पर मुख्य सेनापति ने उन सैनिकों को 6 मई को न्यायालय से 8-10 साल के कड़े कारावास का दंड दिलवा दिया। इस घटना से दूसरे सैनिक क्षुब्ध हो गये। अब सैनिकों के लिये संयम रख पाना कठिन होने लगा। सैनिक छावनी में सैनिकों की कई गुप्त बैठकें हुई। 31 मई की क्रांति के लिये तय तिथि तक चुपचाप रहना उनके लिये कठिन था। अंत में 10 मई को मेरठ में विद्रोह की शुरू आत हो गई। सैनिकों की छावनी में मारो फ़िरंगी को, फ़िरंगियों को काटो के नारे गूँजने लगे। घुड़सवार अपने देशभक्त धर्मवीरों को करने के लिये सबसे पहले आगे बढ़े। एक ही क्षण में कारागृह की दीवारों को चूर-चूर कर दिया गया। 11वीं टुकड़ी के कर्नल को 20वीं टुकड़ी के सैनिकों ने मार डाला।

विद्रोह आरंभ होते ही पूर्व योजनानुसार दिल्ली के साथ सम्पर्क कराने वाले तार यंत्रों के तार तोड दिये गये व रेलमार्ग की भी पूर्ण नाकाबंदी कर दी ग़ई। सैनिकोंें से बचने के लिये कुछ ब्रितानी अस्तबल में छिप गये तो कुछ पूरी रात पेड़ों के नीचे पड़े रहे व कुछ अपने घर की तीसरी मंजिल पर छिपे रहे। अंधकार होते ही सैनिक दिल्ली की ओर चल पडे़।


बनारस

बनारस से 60 मील की दूरी पर आजमगढ़ में हिन्दू सैनिकों की 27वीं छावनी थी। 31 मई 1857 से इस टुकड़ी में भी भयानक गर्जनाएँ होने लगी। क्रांतिकारियों के कुछ दलों ने आजमगढ़ में इन टुकड़ियों के ब्रितानी सेनाधिकारियों पर धावा बोल दिया। हिन्दुस्तानी सैनिकों को नुकसान नहीं पहंुचे इसलिये क्रांतिकारियों ने उन्हें अलग निकल जाने को कहा। क्रांतिकारियों ने लेफ़्टिनेंट हचिसन और क्वार्टर सार्जेण्ट लुईस के शरीर को गोलियों का निशाना बनाया। बाकी लोगोंे को अपने प्राण बचाकर भागने दिया। सात लाख का कोष, बारू द का भंडार, कार्यालय सब सैनिकों को प्राप्त हुआ।

कुछ समय बाद जनरल नील बनारस पहुँचा। ब्रितानी समझ गये की नील की पलटनों, सिख सरदारों और तोपखाने के प्रयास से क्रांतिकारियों से बदला लेना संभव है। 1857 के संपूर्ण इतिहास में यह एक ही प्रसंग ऐसा था जब हिंदू मुसलमान ओर सिख सभी ने मिलकर ब्रितानियों पर आक्रमण किया। जब ब्रितानियों व सैनिकों की यह लड़ाई बैरकपुर के निकट हो रही थी तब ब्रितानियों को नगर की जनता का भी विद्रोहिणी होने का भय था। इस भय से ग्रस्त होकर ब्रितानी अधिकारी ओर उनके परिवार भाग निकले। इस अवसर पर काशी के राजा ने अपना अधिकार, संपत्ति ओर सत्ता सब कुछ ब्रितानियों के चरणो पर अर्पण कर दिया। ब्रितानियों के तोपखाने की भीषण आग से न डरते हुए लड़ते-लड़ते, रणभूमि से पीछे हटकर समस्त सैनिक पूरे प्रांत में बंट कर फ़ैल गये। बनारस की सिख टुकड़ी के जो सिख सैनिक जवानपुर में थे वे तुरंत क्रांतिकारियों से मिल गए और इन सबने मिलकर कोष पर हमला कर दिया और ब्रितानियों को जवानपुर खाली करने के लिये आज्ञा दी। बनारस का घुड़सवारों का दल भी वहां पहुंच गया।

यद्यपि विद्वेष की अग्नि भभक रही थी, तो भी जो ब्रितानी लोग क्रांतिकारियों की शरण में आये ओर जिन्होंने अपने शस्त्र नीचे रख कर चुपचाप निकल जाना चाहा उन्हें जाने के लिये क्रांतिकारियों ने आज्ञा दी। इसका लाभ उठा कर लगभग सब ब्रितानी तुरंत ही जवानपुर से निकल गये। जवानपुर की समस्त जनता क्रांति की ग़र्जनाएं करते हुए निकल पड़ी और ब्रितानियों के घर लूटकर, जलाकर ब्रितानियों की सत्ता के सब चिन्ह उसने धूल में मिला दिये। जितना कोष साथ में लेना संभव था उतना लेकर सैनिक अयोध्या की ओर चल पडे। बनारस प्रभाग के विद्रोह का यह संक्षिप्त विवरण है।

 

जगदीशपुर

1857 की क्रांति के समय 25 जूलाई 1857 के दिन भारतीय सेना ने दानापुर को ब्रिटिश सरकार के अधिकार से मुक्त करवाया और बाद मे सेना ने भोजपुर जिले के जगदीपुर शहर मे प्रवेश किया। उस समय जगदीशपुर पर 80 साल की आयु के बाबू कुंवर सिंह का शासन था। उस समय बाबू कुंवर सिंह अपने क्षेत्र मे काफ़ी प्रसिद्ध थे।

जब दानापुर से क्रांतिकारी सेना जगदीशपुर मे पहुंची तो वयोवृद्ध राजा कुंवर सिंह ने तुरंत इस सेना का नेतृत्व किया। तुरंत ही कुंवर सिंह  इस सेना के साथ आरा पहंुचे और उन्होंने ब्रिटिश खजाने को लूट लिया। वहां पहंुच कर उन्होंने भारतीय कैदियों को जेल से मुक्त किया और सभी ब्रिटिश अधिकारियों को मार डाला।

कुछ समय बाद 29 जुलाई 1857 को ब्रिटिश कप्तान ड़ावर ने 300 ब्रिटिश और 100 सिख सेनाओं के साथ आरा की और कूच किया। जब वह आरा के निकट पहंुचा तो कयामनगर मे कुंवर सिंह के गोरिल्ला योद्धाओं ने उस पर आक्रमण किया। इस आक्रमण मे कप्तान ड़ावर व कई ब्रिटिश सिपाही मारे गये व बाकी बचे सिपाहियों को कुंवर सिंह की सेना द्वारा कैद कर लिया गया।

इस घटना की खबर मिलते ही 2 अगस्त 1857 को मेजर आयर अपनी सेना के साथ बंदी ब्रिटिश सेना की मदद के लिये पहंुचा। आरा से 5 किमी. की दूरी पर स्थित बीबीगंज मे क्रांतिकारियों व ब्रिटिश अधिकारियों के बीच भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध के बाद कुंवर सिंह वहां से निकल गये और यहां के किले पर आयर ने अपना अधिकार कर लिया। 8 महीने बाद 22 अप्रेल 1858 को कुंवर सिंह अपने भाई अमर सिंह व सैनिक फ़ौज के साथ जगदीशपुर लौटे। एक बार फ़िर ब्रिटिश सेना व कुंवर सिंह के बीच भयानक युद्ध हुआ। इसमे कुंवर सिंह की जीत हुई।

23 अप्रैल 1958 को फ़िर से जगदीशपुर पर कुंवर सिंह का शासन हुआ। आज भी हर साल 23 अप्रैल का दिन जगदीशपुर व बिहार के अन्य राज्यों मे घ्कुंवर सिंह विजयोत्सव दिवसङ के रुप मे मनाया जाता है।

कुछ समय बाद 26 अप्रेल 1958 को कुंवर सिंह की मृत्यु हो गई। लेकिन अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने अपनी जनता को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्त करवा दिया था। उनकी मृत्यु के बाद उनके भाई अमर सिंह जगदीशपुर के राजा बने उन्होंने कई स्थानों पर युद्ध मे ब्रिटिश सरकार के दांत खट्टे किये थे। बाद मे ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि जो व्यक्ति अमर सिंह का सिर सरकार को भेट करेगा उसे ईनाम दिया जाएगा। लेकिन इस काम मे सरकार को सफ़लता नहीं मिली।

17 अक्टुबर 1958 को ब्रिटिश सेनाओं ने जगदीशपुर को 7 दिशाओं से घेर लिया। इस युद्ध मे अमर सिंह के कई सैनिक शहीद हो गए लेकिन ब्रिटिश सरकार अमरसिंह को पकड़ नहीं पाई। अन्त मे अमरसिंह ने वहां से निकल कर कैमूर की पहाड़ियों मे प्रवेश किया। उन्होंने कभी भी अपनी हार को स्वीकार नहीं किया। इस तरह 1857 का इतिहास, विशेषकर जगदीशपुर व आरा के भोजपुर जिलों मे आज भी याद किया जाता हैं। यहां के लोगों को अपने इस शानदार ऐतिहासिक भूतकाल पर गर्व है। जौनपुर

1857, जून के प्रारंभ में हिंदुस्तानी सेना ने विद्रोह कर, दंगे किए, ख़ज़ाना लूटा और कलंजर के कारखाने तथा ब्रिटिशों के अन्य बँगलों को आग लगाकर नष्ट कर दिया। कीच साहेब अपने बच्चों एवं पत्नी सहित मारे गए। जिलाधीश डॉक्टर इत्यादि ब्रितानी जो उस समय जौनपुर में थे, भाग निकले और सुरक्षित बनारस पहुँच गए। इन साहिबों तथा विद्रोही सेना के वहाँ से चले जाने के बाद जौनपुर की प्रजा में कोई और उपद्रव नहीं हुआ और शांति का वास रहा।

जौनपुर

आज़मग़ढ

2 जून, 1857 के दिन जब सबसे अधिक उपद्रव हुए थे, आज़मग़ढ में एक बड़े दंगे की आशंका थी। यहाँ हुई कुछ ग़डबड़ियाँ नक्षत्रों के दुष्प्रभाव से हुईं। यहाँ पर नियुक्त हिन्दुस्तानी रेजिमेण्ट नम्बर 17, चारों दिशाओं से आनेवाले समाचारों को सुनकर डर गई फिर ये भी उत्तेजित हो गए और इनकी भावनाएँ भी जाग उठी। उन्होंने अपने एक अधिकारी एक लेफ्टिनेण्ट की हत्या कर दी, दो या तीन को घायल कर दिया। उन्होंने खजाने को, जिसका मूल्य लगभग आठ लाख रुपये था, को बैलगाड़ियों और ऊँट-गाड़ियों पर लादकर लखनऊ की ओर चल पड़े, जहाँ वे विद्रोही सेना से मिल गए। इसके बाद आज़मग़ढ में किसी प्रकार का उपद्रव नहीं हुआ। और किसी प्रकार की हत्या अथवा रक्तपात नहीं हुई तथा हर तरह से शांति छायी रही।

 

हमीरपुर

यह कानपुर के अति निकट स्थित है। कानपुर में विद्रोह होने के कारण 11 जून, 1857 को यहाँ भी उपद्रव हुआ। उसका कारण यह था कि कानपुर में दागी गई तोपों की आवाज़ यहाँ तक पहुँची। यहाँ पर दण्डाधिकारी के अधिकार में राजा गयाजी के पाँच सौ सैनिकों का अश्वदल और 600 बर्खन्दाज़ रहा करते थे। साहिब मेजिस्ट्रेट बहादूर ने बड़े प्रयत्न से जिले के प्रशासन को बनाए रखा। अन्त में अशुभ नक्षत्रों ने अपने दुष्प्रभाव को दर्शाया। नाना राव के कुछ भेदियाँ कानपुर से सेना एवं नगर में आए और लोगों को भड़काने लगे। नगर के कुछ बदमाश भी एकत्रित हुए। अश्वारोही भी उकसाने में आ गए। अचानक, 14 जून को अश्वारोही दल के सैनिकों ने अपनी कमर कसी और उन बदमाशों के साथ नगर में घूमने लगे। जो कोई भी ब्रितानी अथवा अंग्रेजी बोलने वाला बँगाली उन्हें मिला, अश्वारोही सैनिकों तथा बदमाशों ने उनको मार डाला। दो-तीन ब्रितानी मारे गए और कई बँगालियों की हत्या कर दी गई। एक बँगाली डॉक्टर ने कई कठिनाइयों के बाद भाग निकला और एक गाँव में सिर छुपाने के कारण बच गया। विद्रोही कानपुर चले गए। इधर कुछ सरकारी सेना पहुँची और शांति बहाल हुई। इसके पश्चात् कानपुर के इतने निकट होने के बावजूद यहाँ पर कोई उपद्रव नहीं हुआ। शांति का राज्य रहा।

महासमर के कुछ चिर स्मरणीय प्रसंग

रूईयागढ़ी जहाँ 106 ब्रितानी मारे गये

रचनाकार : पं. वचनेश त्रिपाठी
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007
अंक : 1, पेज न. 67
पता : 'पाथेय भवन', बी-19, न्यू कॉलोनी
जयपुर- 302001 दूरभाष- 2374590
फ़ैक्स- 0141-2368590

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में कई अवसर ऐसे आये जो इतिहास की थाती और समाज के लिए हमेशा प्रेरणा देने वाले बन गये। ऐसे कुछ प्रसंगों को पं. वचनेश त्रिपाठी ने अपने महाप्रयाण से पूर्व कलमबद्ध किया था। दादा वचनेश जी तो जीवन भर क्रांतिकारी रहे। उन्हें आदरांजलि अर्पित करते हुए उनका यह लेख यहाँ प्रस्तुत है-

सन् 1857 की क्रांति में जब लखनऊ क्रांतिकारियों के हाथों से निकल गया, उसके बाद भी क्रांतिकारी जत्थो ने हथियार नहीं डाले बल्कि उन्होंने जगह-जगह ब्रितानियों का जमकर प्रतिरोध और संहार किया और वह भी बड़े योजनाबद्ध तथा संगठित तरीके से।

"अवध गजेटियर" बयान करता है कि घ् रूइयागढी ' (हरदोई जिला) के नरपति सिंह, बौंडी के हरदत्त सिंह, मिटौली के गुरूबख्श सिंह ने संयुक्त रूप से 25 हजार सेना एकत्र की तथा ब्रितानी फौजों से मोर्चा लिया।

इसी तरह अवध के प्रतापगढ़ जिले में एक दुर्ग जो सई नदी के किनारे है, खासकर जहाँ सई नदी दिशा बदलकर मु ड़ती है। यह दुर्ग चतुर्दिक सघन अरण्य से आवेष्ठित है। यहाँ चार हजार क्रांतिकारी सैनिक एकत्र थे तथा इनके पास वही गणवेश (वर्दी) था जो इन्हें ब्रिटिश सेना में पहनना पडता था। इसी सरकारी गणवेश में वे ब्रितानीी फौज से लड़े थे। यह लडाई जैसा कि च् अवध गजेटियर छ में हवाला दिया गया, बड़ी विकट हुई। इस किले में तोपें बनाने तथा उनके लिए लोहा गलाने और गोले ढ़ालने के लिए बाकायदा भट्ठियाँ बनी हुई थीं, यहाँ से सब क्रन्तिकारी सिपाही हटे तो उनके पास जो तोपें थी उन्हें बेकार करके ही गये ताकि शत्रु सेना उनका उपयोग न कर पाये। रसेल अपनी डायरी में (सन् 1858, 3 अप्रैल) लिखतै हैं च् पूरा अवध बागी होकर गदर में शामिल हो गया और ब्रितानियो के लिए तो इसे दुश्मन का ही मुल्क समझना चाहिए। पुलिस का कहीं पता नहीं है कि वह गयी कहाँ?"

उक्त छोटे-छोटे किलों में सत्तावनी क्रांति के उल्लेखनीय युद्ध हुए और वहाँ बड़े-बड़े क्रांति-सेनानी रहे, ठहरे तथा युद्ध का संचालन किया। इनमें से एक किले के युद्ध की स्थिति पर मैं यहाँ कुछ विवरण इसलिए प्रस्तुत करना चाहता हूँ कि वह मेरे ही जनपद का गाँव है तथा मेरे पैतृक कस्बे से निकट पड़ता है-कुछ ही मील दूर है। लखनऊ से यह किला जिसे अवध गजेटियर में गढ़ी दर्ज किया गया है, कोई 50-51 मील पर स्थित है। सण्डीला तहसील से वह काफी करीब पड़ेगा। हम लोग बचपन से ही उस रूइयागढ़ी तथा वहाँ के सत्तावनी क्रांति के एक सेनानि नरपति सिंह का नाम और उनकी वीरता के बार में सुनते रहे थे। अवध के महान क्रांतिकारी मौलवी अहमदशाह भी रूइयागढ़ी में आकर नरपति सिंह के अतिथि रहे थे।

ब्रितानी कमाण्डर वालपोल जब रेजीडेन्सी (लखनऊ) से फौज लेकर बरेली की तरफ बढ़ा तो रूइयागढ़ी के नरपति सिंह ने उसके रास्ते में मोर्चा लगाया। रूइयागढ़ी में ब्रितानियों और नरपति सिंह की क्रांतिकारी टुकड़ी में जबर्दस्त मुकाबाला हुआ। इसमें चार ब्रितानी अफसर तथा 102 गोरे सैनिक क्रांतिकारियों के हाथों मारे गए। जो ब्रितानी सेनाधिकारी मर उनके नाम हैं डगलस, ब्रैमले, एड्रियन होप और मि. विलोबी। विलोबी के साथ-साथ उसके 46 सैनिकों को, क्रांतिकारियों ने गोलियों से भून दिये तथा ब्रैमले और डगलस के साथ ही 56 गोरे सैनिक लड़ते हुए मारे गये। इन मौतों से इस छोटी-सी गढ़ी में हुए युद्ध का अन्दाजा हम आसानी से कर सकते हैं कि क्रांतिकारी टुकड़ी किस कदर वहाँ ब्रितानियों को न केवल नाकों चने चबवा रही थी वरन् उन्हें धूल चटाने में भी नहीं चूकी थी और यह विवरण खुद अवध गजेटियर देता है-कोई किंवदन्ती या जनश्रुति नहीं।

ब्रितानी कमाण्डर वालपोल ने रूइयागढी पर तोपों से विकट गोलाबारी की थी, परन्तु नरपति सिंह के साथी उन वृक्षों पर चढ़कर गोली वर्षा करने लगे जो गढ़ी में लगे थे। इन वृक्षो ने बड़ा काम किया। ब्रितानी फौजी अफसर एड्रियन होप वृक्ष पर से ही आई एक गोली से धराशायी हुआ। गढ़ी की प्राचीरों में जो बड़े-बड़े छेद बने थे, उनसे भी क्रांतिकारियों ने खुब गोलियाँ चलायी। ब्रितानी कमाण्डर वालपोल ने उन गोलियों से घबराकर अपनी सेना को पीछे लौट जाने का आदेश दिया। इसी बीच शाम घिर आयी। पूरे दिन युद्ध चला था। रात हो जाने पर युद्ध बन्द हो गया और वालपोल के पीछे लौट जाने से क्रांतिकारियों को गढ़ी से निकल जाने का मौका मिल गया। वे संख्या में ब्रितानियों के मुकाबले थोड़े थे। फिर भी धुप अँधेरे में हथियारों सहित गढ़ी से निकल कर गायब हो गये तथा ब्रितानी अगले मोर्चे पर यह देखकर हतप्रभ रह गये कि वहाँ भी रूइयागढ़ी की वही टुकड़ी अपने मुखिया नरपति सिंह के साथ युद्धरत है। यह मोर्चा लगा था सिरसा गाँव में। सिरसा गाँव रूइयागढ़ी से चालीस मील पड़ता है। इन युद्धों का एक ही उद्देश्य था कि ब्रितानी सेना को बरेली पहुँचने में जितनी बाधा दी जा सके, पहुँचायी जाये। नरपति सिंह और उनकी रूइयागढ़ी का उसमें जो योगदान रहा वह अविस्मरणीय है। वह गढ़ी भग्नावस्था में आज भी मौजूद है जो सन् 1857केअजेययोद्धानरपतिसिंहकीकीर्तिकथादुहरातीहै। एक मकान और फिरंगी सेना

कानपुर पर फिर से ब्रितानियों की पकड़ बना जाने के बाद स्वातंत्र्य-समर के सूत्रधारों ने कालपी को अपना केन्द्र बना लिया। कालपी में तात्या टोपे को और सहायता न मिल सके इसके लिये ब्रितानियों ने इस दुर्ग तक पहुँचने वाले मार्गो पर कड़ा पहरा लगाने की रणनीति बनाई। यह काम सेनापति वालपोल को दिया गया। वालपोल कानपुर से निकला और क्रांतिकारियों की छोटी-छोटी टुकड़ियो से मुठभेड़ करता हुआ इटावा पहुँचा। वह सोचता था कि इटवा में उसका सामना करने वाला कोई नहीं होगा। इसलिये उसने गर्वोन्नत हो सेना सहिट इटावा में प्रवेश किया। पूरी बस्ती वीरान थी और ब्रितानी तोड़-फोड़ करते हुए आगे बढ़ने लगे। एकाएक उन पर गोलियों की बौछारे होने लगीं। पहली बौछार में 20-25 फिरंगियों ने मोक्ष प्राप्त किया और वालपोल एक मकान की आड़ लेकर मामला समझने लगा।

इतने में गोलियों की एर और बौछार आई और कुछ और गोरों ने यम लोक का रास्ता पकड़ लिया। अब वालपोल के समझ में आया कि एक ऊँचे और पक्के मकान से गोलियाँ बरस रही हैं। भवन की दीवारों में बन्दूकों के लिये सूराख बने हुए थे और वहीं से चारों ओर गोलिया बरस रही थीं। मकान में कुल 25 स्वातंत्र्य-सैनिक थे और उनका संकल्प था कि ब्रितानियो को अधिकतम समय यहाँ उलझा कर रखेंगे, ताकि तात्या को तैयारी के लिए पूरा समय मिल जाये। अब बंध गया मोर्चा, ब्रितानी उस मकान के पास जाकर उसमें घुसने की कोशिश करने रहे थे और मकान से हो रही गोली-वर्षा उन्हें भवन के पास फटकने भी नहीं दे रही थी। छह घंटो तक यह घमासान युद्ध चलता रहा। खीझ कर वालपोल ने बारुद से मकान को ध्वस्त करने का फैसला किया। तब तक धीमी गति से चलने वाला उसका तोपखाना भी इटावा पहुँच चुका था। उस अकेले मकान पर तोप के गोलों की बरसात देख कर भगवान भास्कर ने भी शर्म से अपना मुख पश्चिम में छिपा लिया। इधर सूर्यास्त हुआ और उधर वह भवन भी ध्वस्त हो मलबे में बदल गया और इसी के साथ उन वीरों की समाधि भी उसी मलबें में बन गई।

धन्य है वे वीर, उनकी स्मृति में इटावामें आज भी एक स्मारक बना हुआ है। आत्मघाती दस्ते का अद्भूत पराक्रम

1857 के स्वतंत्रता सैनानियों ने अनेक स्थानो पर तो ऐसा अद्भूत पराक्रम दिखाया कि ब्रितानियों को भी इसकी प्रशंसा करनी पड़ी। ऐसा ही एक प्रसंग बिहार में तानू नदी के पुल पर भी आया, जहाँ क्रांतिकारियों की एक छोटी सी टुकड़ी ने कई घण्टों तक ऐसा घमासान युद्ध किया कि ब्रितानी उस पुल को पार करने की हिम्मत नहीं जुटा सके।

क्रांति के समय के तेजस्वी योद्ध वीर कुँवर सिंह ने छापा-मार युद्ध से ब्रितानियों की नाक में दम कर रखा था। ब्रितानियों ने लार्ड मार्ककर, लूगार्ड और डगलस जैसे रण-कुशल सेनापतियों को सेना सहित कुँवर सिंह के पीछे लगा दिया। उनको यह खबर लगी कि कुँवर सिंह आजमगढ़ पर टूट पडने वाले हैं। फलस्वरूप बनारस की ओर से मार्ककर, आजमगढ़ से डगलस और आरा से कप्तान लूगार्ड उस बूढ़े शेर को घेरने के लिये आगे बढ़े। कुँवर सिंह तीनों सेनाओ की हलचल पर बारीकी से नजर रखे हुए थे। लूगार्ड के तानू नदी की ओर आते ही उन्होंने अपना एक आत्मघाती दस्ता तानू नदी के पुल पर तैनात कर दिया। उनका काम लूगार्ड को तब तक रोके रखना था, जब तक कि कुँवर सिंह गाजीपुर न पहुँच जायें। वास्तव में आजमगढ़ तो उस वीर का लक्ष्य था ही नहीं। ब्रितानियों को भुलावे में डाल कर वे गाजीपुर होते हुए अपनी मातृभूमि जगदीशपुर पहुँचना चाहते थे।

लूगार्ड के सैनिक जैसे ही तानू सरिता के पुल के पास पहुँचे सैनिको ने पुल पर चढ़ जाने की धृष्टता की तो स्वातंत्र्य सैनिकों ने उन्हें भारतीय तलवारों का पानी दिखाना शुरू किया। एक-एक क्रांतिकारी साक्षात् काल बन कर ब्रितानियों को नरक का द्वार दिखाने लगा। आधा दिन निकल गया और ब्रितानी उस पुल पर एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाये। तभी दूर कहीं एक तोप की गर्जना हुई। स्वातंत्र्य सैनिक समझ गये कि कुँवर सिंह गाजीपुर पहुँच गये हैं। अब उन्होंने चुप-चाप पीछे हटना शुरू किया और देखते-देखते आत्मघाती दस्ते के बचे हुए योद्धा लुप्त हो गये। लूगार्ड ने देखा कि गोलियाँ चलनी बन्द हो गई हैं। साहस जुटा कर वह पुल पर आया, पुल पार किया, तो उसने देखा की दूसरी ओर सन्नाटा है। केवल कुछ स्वातंत्र्य योद्धाओं के शव उनके अद्भूत पराक्रम की साक्षी दे रहे थे। अम्बरपुर के रणबाँकुरे

राणा बेणी माधव और नवाब नादिर खाँ ने काशी और अयोध्या के क्षेत्र को मुक्त करा लिया था। स्वातंत्र्य योद्धा मुहम्मद हुसैन से गोरखपुर से फिरंगियों का सफाया कर दिया। ब्रितानी हतप्रभ और निराश थे. कहीं से कोई आशा की किरण उन्हें दिखाई नहीं दे रही थी। ऐसे में नेपाल के राणा जंगबहादुर ने अपनी नौ हजार गौरखों की सेना ब्रितानियों की सहायता के लिए भेज दी। ब्रितानियों की जान में जान आ गई। अब एक ओर से गोरखे, दूसरी ओर से जनरल फ्रेंक और तीसरी और से जनरल क्रोफार्ट काशी पर चढ़ दौड़े। ऐसे में काशी कितने दिन टिकती, अतः काशी जीत कर ये सेनाएं अब अवध की ओर बढ़ीं। गोरखे और ब्रितानी घाघरा नदी को पार कर सुलतानपुरा को लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ने लगे। रास्ते में अंबरपुर पड़ता था। यहाँ का किला चारों ओर से घने जंगलों से घिरा हुआ था। अपनी सुरक्षा की दृष्टि से ब्रितानियों ने इस किले पर अधिकार कर लेना ठीक समझा।

नेपाल की गोरखा सेना को यह किला जीतने काम सौंपा गया। युद्ध के मैदान में गोरखों से बढ़ कर पराक्रम भला कौेन है, पर ये गोरखे फिरंगियों के लिये लड़ रहे थे। मुकाबला राष्ट्र-भक्ति और देश-द्रोह के बीच हो रहा था। अम्बरपुर के किले में कुल 34 स्वातंत्र्य सैनिक थे और उनका संकल्प था कि जीते जी ब्रितानियों या उनके सहायको को दुर्ग में प्रवेश नहीं करने देना है। उनका रण-रगं देखते ही बनता था। ब्रितानी इतिहासकारों तक ने अम्बरपुर के योद्धाओं की भूरि भूरि प्रशंसा की है। तीन दिनों तक घोर संग्राम हुआ। गोरखे अम्बरपुर में तभी प्रवेश कर सके जब वे सभी 34 वीर आत्मोसर्ग के मार्ग पर चल दिये। कविता के लिये फाँसी चढ़ गये।

गढ़ा मंडला के राजा शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह को बंदी बनाकर जब ब्रितानियों ने उन्हीं के नगर में घुमाया तो उनकी प्रजा हाहाकार कर उठी। अपने राजा और राजकुमार का अपमान न सह सकने के कारण कई व्यक्ति अपने घरों में छिप गए और कई लोगों ने अपने हाथों से अपने मुँह ढक लिये। घुड़सवार सेना के पहरे के बीच अत्याचारी ब्रितानी राजा शंकरशाह और उनके पुत्र को वधस्थल तक ले गए। गाँव के बाहर तोपें लगा दी गई थीं और उनके मुँह से विद्रोहियों को बाँधकर उन्हें गोलों से उड़ा दिया गया था। पहले कुछ विद्रोही सैनिकों को तोप के मुँह से बाँधकर उड़ाया गया और फिर राजा शंकरशाह एवं उनके पुत्र रघुनाथशाह को दो पृथक्-पृथक तोपों के मुँह से रस्सियों के सहारे कस दिया गया। तोपची लोग जलते हुए पलीते लेकर तैयार हो गए। वे अपने ब्रितानी अफसर के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे।

आदेश देने के पूर्व ब्रितानी अफसर ने राजा शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथशाह से पूछा - " आप लोगों की आखिरी इच्छाएं क्या है?"

पिता-पुत्र ने एक-दूसरे के ओर देखा। उत्तर पिता ने दिया - "जिस कविता को लिखने के कारण हम लोगों को मृत्युदंड दिया जा रहा है, हम लोग अपनी मृत्यु के पूर्व वह कविता सुनना चाहते हैं।"

ब्रितानी अफसर इस उत्तर को सुनकर जल-भुन गया। उसने उन दोनों को वह कविता सुनाने की अनुमति दे दी। ओजस्वी स्वरों में एक कवित्त पिता ने दूसरा कवित्त पुत्र ने सुनाया। वे कवित्त थे-

(1)

मूँद मुख डंडि को चुगलों को चबाइ खाइ
खूँद दौड़ दुष्टन को शत्रु संहारिका।
मार अँगरेज रेज कर देई मात चंडी
बचे नाहिं बैरी बाल-बच्चे संहारिका।
संकर की रक्षा कर दास प्रतिपाल कर
वीनती हमारी सुन अय मात पालिका।
खाई लेइ म्लेच्छन को झेल नाहिं कोर अब
भच्छन ततच्छन कर बैरिन को कालिका।

(2)

कालिका भवानी माय अरज हमारी सुन
डार मुंडमाल गरे खड़्ग कर घर ले।
सत्य के प्रकासन औ' असुरन विनासन को
भारत-समर माँहि चंडिके सँवर ले।
झुंड-झुंड बैरिन के रूंड-मुंड झारि-झारि
सोनित की धारन ते खप्पर को काटि-काटि
किलक-किलक माँ कलेऊ खूब कर ले।

कविता पाठ समाप्त होते ही ब्रितानी अफसर ने तोपचियों को पलीते लगाने का संकेत कर दिया। दोनों तोपों ने भीषण गर्जना की और राजा शंकरशाह एवं उनके पुत्र रघुनाथशाह की हड्डियाँ तथा मांस के लोथड़े दूर-दूर तक बिखर गए। दर्शकों की ओर से एक भयावह चीत्कार उठी और फिर सभी कुछ शांत हो गया।

राजा शंकरशाह ने अपने एक बेईमान कर्माचारी गिरधारी दास को अपने राज्य से निकाल दिया था। गिरधारी दास ने ही आपत्तिजनक कवित्त लिखने की सूचना ब्रितानियों को दी और ब्रितानीी में उन पदों का भावार्थ भी उन्हें समझा दिया। परिणाम था पिता-पुत्र का बलिदान। यह बलिदान झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान के ठीक तीन मास पश्चात्, अर्थात् 18 सितम्बर, 1858 को हुआ।

एक और चेतक का बलिदान

महारानी लक्ष्मीबाई के जीवन का महत्व क्रांतिकारी सैनानियों के साथ-साथ एक मूक सैनानी भी जानता था। वह था महारानी का प्रिय श्वेत अश्व। पाँच अप्रैल 1858 को महारानी ने झांसी के किले से निकल जाने का मानस बना लिया, तब जहाँ झलकारी बाई ने झाला मानसिंह की परंपरा को निभाते हुए महारानी के निकलने का मार्ग प्रशस्त किया वहीं रानी के प्रिय घोड़े ने भी चेतक की स्वामीभक्ति का अनुसरण करते हुए महारानी को सुरक्षित कालपीं तक पहुँचाया था। महारानी की पीठ पर बालक दामोदर बंधा हुआ था तथा वह 12-15 सैनिकों के साथ झाँसी के किले के किले से निकली। एक ब्रितानी अधिकारी वॉकर ने कुछ घुड़सवारों के साथ महारानी का पीछा किया। लक्ष्मीबाई व उसके सैनिक वॉकर के घुड़सवारों से जूझते हुए बढ़े चले जा रहे थे। वॉकर ने महारानी का 21 मील तक पीछा किया। महारानी ने वॉकर को घायल कर दिया लेकिन उनके वफादर सैनिक युद्ध में काम आ चुके थे। उनमें से मोरोपंत तांबे घायल होकर भी दतिया तक निकल गये थे लेकिन दतिया के देशद्रोही दीवान ने उन्हें पकड़ कर ब्रितानियों को सौंप दिया और ब्रितानियों ने उन्हें फाँसी दे दी। रानी अकेली ही उड़ती हुई कालपी की ओर बढ़ी चली जा रही थी, उनका साथ दे रहा था उनका प्रिय अश्व। वह घोड़ा महारानी लक्ष्मीबाई को बहुत प्यारा था। उस मूक प्राणी को भी लक्ष्मीबाई के जीवन का मूल्य पता था। 6 अप्रैल को प्रातःकाल की वेला में रानी ने कालपी में प्रवेश किया। जैसे ही महारानी बालक दामोदर को लेकर घोड़े से उतरी वह अश्व झांसी से 102 मील की लगातार दौड़ लगाने के बाद लड़ख़ड़ा कर गिर पड़ा और स्वर्ग सिधार गया। मानो वह घोड़ा रानी को कालपी तक सुरक्षित पहुँचाने के लिए प्राण धारण किये हुए था। इस तरह एक और चेतक ने स्वामी भक्ति का परिचय देते हुए अपना बलिदान कर दिया।

 

क्रांति का अभियान कालपी में संचालित हुआ था

रचनाकार : अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007
अंक : 1, पेज न. 73

अठारह सौ सत्तावन में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बारे में यह तथ्य अभी तक अल्पज्ञात ही है कि इस क्रांति का नियोजित अभियान उत्तर प्रदेश के कालपी नगर से हुआ था। वहाँ यमुना नदी की ऊँची कगार पर बने कालपी के दुर्ग में इस क्रांति का नियंत्रण कक्ष बनाया गया था। क्रांतिनायक नानासाहब पेशवा यहीं रूके थे तथा स्थानीय पाहूलाल मन्दिर में नित्य पूजा-अर्चना के लिए जाते थे। मन्दिर प्रबन्ध समिति द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार वहाँ आबनूस की लकड़ी की एक चौकी अभी भी है जिन पर नानासाहब पेशवा बैठते थे। कालपी दुर्ग से पाहूलाल मन्दिर तक वह सज्जित हाथी पर बैठकर आते थे। उनके साथ अन्य अनेक अधिकारी भी हाथियों पर चलते थे। 23 मई 1858 को कालपी के पतन के समय कालपी दुर्ग से छह सज्जित हाथी ब्रिटिश सेना को मिले थे।

भूमिगत आयुध फैक्ट्री

क्रांतिकारियों ने इस दुर्ग के नीचे भूमिगत तल में पूरी आयुध-निर्माणी बना रखी थी तथा दुर्ग ने एक सैन्य बस्ती का स्वरूप ग्रहण कर लिया था। लावेंज ने अपनी पुस्तक घ् सेन्ट्रल इण्डिया ' में क्रांति के नियन्त्रण केन्द्र में चल रही गतिविधियो का विस्तार से वर्णन किया है। ब्रिटिश सेना ने इस दुर्ग पर आधिपत्य करने तथ सम्पत्ति अधिग्रहण करने के पश्चात् इसका अधिकांश भाग नष्ट कर दिया था। इस समय इस दुर्ग का केन्द्रीय कक्ष ही शेष बचा है। इसकी दीवारें नौ फुट मोटी तथा ऊपर छत गुम्बदाकार है। अवशेष केन्द्रीय कक्ष, जो महान क्रांतिकारियोंें नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, पटना के राजा कुँवर सिंह, बाँदा के नवाब तथा जालौन की रानी ताईबाई का मंत्रणा कक्ष तथा मरहठों का कोषागार रहा है, की छत में मोटी-मोटी दरारें पड़ चुकी हैं।

कालपी 1857 ई. के अन्तिम दिनों में ही क्रांति का प्रमुख केन्द्र बन चुका था। 6 दिसम्बर को कानपुर में नाना साहब की पराजय के बाद क्रान्तिकारी कालपी आ गये थे। 2 जनवरी 1858 के कालपी को अपनी गतिविधियों का नियंत्रण केन्द्र बनाकर क्रांतिकारियोंें ने वहाँ अपनी भावी व्यूह रचना प्रारम्भ कर दी थी। इसी दिन नाना साहब पेशवा के सेनानायक तात्या टोपे तथा शिविर सहायक मुहम्मद इशहाक ने बुन्देलखण्ड के समस्त शासकों को व्यक्तिगत पत्र भेजकर उनसे सहयोग की याचना की थी तथा अपनी सेनाएँ कालपी भेजने की प्रार्थना की थी। इस प्रकार कालपी को केन्द्र बनाकर 2 जनवरी से 23 मई 1858 तक ब्रितानियों के विरूद्ध अभियान चलाया गया। लड़ाईयाँ चरखारी, कोंच, कालपी या कानपुर कहीं भी हुई हों उनका नियन्त्रण तथा उच्चस्तरीय मंत्रणा इसी दुर्ग से हुई।

दो जनवरी 1858 को जो पत्र बुन्देलखण्ड के शासकों को भेजे गये थे, उसमें यह स्पष्ट किया गया था कि यह संघर्ष घ् स्वधर्म और स्वराज्य ' के लिये किया जा रहा है। इसका उद्देश्य हिन्दू तथा मुस्लिम धर्म भ्रष्ट करने वाले तथा स्वतंत्रता का हरण करने वाले ईसाई शासकों का देश से निष्कासन है। इसका उद्देश्य पेशवा द्वारा किसी राज्य पर कब्जा करना नहीं अपितु विभिन्न शासकों का शासित क्षेत्र उन्हें दिलाना है, ताकि वे उस पर शान्तिपूर्वक राज्य कर सकें। इस पत्र के साथ बाबा देवगिरि को विशेष दूत के रूप में भेजा गया था। तात्या तोप ने उक्त विज्ञप्ति जारी होने के बाद कालपी में शस्त्रागार तथा सेना की कमान का नेतृत्व संभाल लिया। जालौन के तहसीलदार नारायण राव को कार्यालय प्रभारी बनाया गया।

पेशवा नानासाहब के भतीजे राव साहब ने स्थायी रूप के कालपी दुर्ग में अपना आवास बनाकर डेरा डाल दिया। नाना साहब के भाई बालाशाह भी मकरसंक्रांतिके पवित्र दिन कालपी आ गये। इस दुर्ग को नीचे यमुना से जोड़ने के लिए पक्की सीढ़ियों का किलाघाट बना है। यहाँ मराठाकालिन भवन तथा मन्दिर भी बनें हैं। इसी घाट पर क्रांतिकारियोंें ने यमुना का पवित्र जल हाथ में लेकर संकल्प किया था कि अपने रक्त की अन्तिम बूंद तक स्वतन्त्रता के लिये संघर्ष करेंगे।

शस्त्र निर्माण प्रारम्भ

कालपी दुर्ग में आयुध-निर्माण केन्द्र स्थापित कर दिये गये। जालोन से आकर कसगरों ने स्थानीय शोरा, कोयला तथा मिर्जापुर से प्राप्त गन्धक से बारूद बनानी प्रारम्भ कर दी। तोपों की ढलाई का काम जोरों से शुरू कर दिया गया। किले के अन्दर एक भूमिगत शस्त्रागार बनाया गया जो उस समय के क्रांतिकारियोंें का सबसे बड़ा शास्त्रागार माना जाता था। दुर्ग के अन्दर एक अच्छा खासा उपनगर स्थापित किया गया था। किले में ब्रितानियोंें का प्रवेश रोकने तथा सीमाओं पर नियन्त्रण के लिए जगम्मपुर से हमीरपुर जाने वाली फेरियों की समस्त नौकाओं का नियन्त्रण जगम्मनपुर तथा कालपी में क्रांतिकारियोंें ने अपने हाथ में ले लिया था।

भारतीय अभिलेखागार में सुरक्षित दस्तावेजों के अनुसार अंग्रेजी अफसरों को यह सूचना गुप्तचर तंत्र से मिली थी कि 6 जनवरी को कालपी दुर्ग में तीन हजार क्रांतिकारी 12 बड़ी तोपों के साथ एकत्रित हैं। धीरे-धीरे सैनिकों की संख्या दस हजार हो गई।

कोंच का युद्ध

अप्रैल के प्रारम्भ में रानी लक्ष्मीबाई झाँसी में पराजित होकर कालपी पहुँची। सर ह्यूरोज ने भी उस ओर ससैन्य प्रस्थान किया। कालपी सैन्य दृष्टि से इतना महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन चुका था कि क्रांतिकारियोंें ने उसे बचाने हेतु सर ह्यूरोज की सेना को कोंच में रोकना तथा कोंच को युद्ध क्षेत्र बनाना अपेक्षाकृत सुविधाजनक माना। कान्तिकारियों ने यह निर्णय उसकी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण लिया। यद्यपि कोंच एक खुला नगर है तथापि उसके चारों ओर वृक्षों, बाग तथा मन्दिरो की ऊँची दीवारें है जो युद्धकाल में रक्षा पंक्ति का काम करती हैं। योजनानुसार तात्या टोपे तथा रानी लक्ष्मीबाई ने कोंच आकर मोर्चा सँभाल लिया। क्रांतिकारियों के साथ कोटा के अश्वारोही सैनिक, गज सेना तथा सात हजार सैनिक तोपों के साथ तैयार थे।

7 मई को कोंच में हुए भीषण युद्ध में लगभग 500 क्रांतिकारी शहीद हुए। कोंच के मोर्चों पर कुछ अप्रशिक्षित सैनिकों की भर्ती तथा सैन्य अनुशासनहीनता से मिली पराजय से क्षुब्ध क्रांतिकारियों के सामने जीवन मरण का प्रश्न था। राव साहब, तात्या टोपे, नवाब बाँदा, रानी लक्ष्मीबाई तथा अन्य क्षेत्रीय शासक भी अपने संसाधनों सहित कालपी आ गए। क्रांतिकारियों के प्रति जनता में अत्यंत आदर भाव था। मार्ग में ग्रामीण इनको पेय जल तथा स्वागत की व्यवस्था करते, बैलगाड़ियाँ देते तथा अँग्रेज़ी डाक छीनकर क्रांतिकारियों को दे देते थे। इस उमड़ते जनसमर्थन से ब्रिटिश अधिकारी हैरत में थे।

क्रांतिकारी यह सोचते थे कि ब्रितानियोंें की सत्ता भले ही पूर्व से पश्चिम तक क्यों न फैल जाए, केंद्र की चूल कालपी उनके पास है। अतः इसकी रक्षा उन्हें प्राणपण से करनी है। इसके लिए वे अंतिम संघर्ष में जुटे थें।

कालपी दुर्ग में चल रही इन तैयारियों का उल्लेख 21 जुलाई, 1858 के अंक एक संपादकीय लेख के रूप में फ्रैडरीक ऐंगिल्स द्वारा इन शब्दों में किया गया- च् मई के मध्य तक कालपी की सेना को छोड़कर उत्तर भारत की समस्त सैनिक टुकड़ियों ने बड़े पैमाने पर लडाई करना छोड़ दिया था। कालपी की सेना ने अपेक्षाकृत थोड़े ही समय के अन्दर उस शहर में सैनिक कार्यवाहियों का एक पूरा केन्द्र संगठित कर लिया था। खाने पीने का सामान्, बारूद और दूसरी आवश्यक चीजें उनके पास प्रचुर मात्रा में थी। उनके पास बहुत सी तोपें थी और यहाँ तक कि बन्दूकें तथा अन्य हथियार ढालने और बनाने के कारखाने भी थे। छ बीस घण्टों की गोलाबारी लावेंज कृत घ् सेन्ट्रल इण्डिया ' के अनुसार सेनानियों के किले के अन्दर मकानों तथा शिविरों का निर्माण किया था। आयुधशालाएँ भी तैयार की थीं। उनके द्वारा ढाले गये ताँबे के कारतूस, निर्दोष थे। उनके पास कारतूसो, तोप के गोलों तथा साठ हजार पौण्ड बारूद का विशाल भण्डार था। इससे प्रतीत होता है कि वे स्वतंत्रता सेनानी लम्बी अवधि तक संघर्ष के लिये तैयार थे।

क्रांतिकारियों ने चौरासी गुम्बज से यमुना तक के सभी मार्ग काट दिये थे। स्थान-स्थान पर खाइयाँ खोद दी थीं। ब्रिटिश सेना के अवरोध के लिए तेरह चौकियाँ स्थापित की थीं। दस हजार सशस्त्र सैनिक सन्नद्ध थे। दौ सौ नौकाएँ उनके नियन्त्रण में थीं। उन्होंने बीहड़ो में भी अवरोध बनाकर प्रथम रक्षा पंक्ति तैयार कर ली थी। दूसरी रक्षा पंक्ति चौरासी गुम्बज की दिशा में बनायी गयी थी। दूसरी ओर यमुना के उस पार गुलौली में अंग्रेजी सेनाएँ तैयार थीं। बम्बई और बंगाल से आयी सेना, पीपे के पुल, बीहड़ों मे टोह लेने के लिए ऊँट-वाहिनियों तथा मैक्सवेल द्वारा लाई गई तोपों से कालपी के युद्ध की तैयारी ब्रितानियोंें ने कर ली थी। सेनानायक सर ह्यूरोज ने बाईस मई को कालपी पर आक्रमण का आदेश दिया। तोपो के मुँह कालपी के इस ऐतिहासिक दुर्ग को नेस्तानाबूद करने के लिये बीस घण्टे लगातार आग उगलते रहे। क्रांतिकारियोंें की ओर से गोलाबारी धीमी थी। अंग्रेजी सेनाएँ सफलता की ओर बढ़ने लगी।

तेईस मई को उगते सूर्य के प्रकाश में ब्रिटिश सेना ने कालपी में प्रवेश किया। क्रांतिकारियोंें के पैर उखड़ गये। अब उनका एक ही प्रयास था कि कोई क्रांतिकारी जीवित बन्दी न बन सके। उनका यह प्रयास सफल रहा।

अंग्रेजी सेना ने कालपी दुर्ग के एक कक्ष में एक बक्से में रानी लक्ष्मीबाई का महत्त्वपूर्ण पत्र-व्यवहार बरामद किया। ब्रितानियोंें को दुर्ग में छह सज्जित हाथी मिले, तोपों तथा गोले बनाने के चार निर्माण केन्द्र मिले। दुर्ग के अन्दर भूमिगत विशाल शस्त्रागर में भारी मात्रा में बारूद, 18 राउण्ड वाली ब्रासगन, 8 इन्च वाली मोर्टार, दो 9 इंच वाली तोपें मिली। कई अन्य तोपें, नौ हजार कारतूस, अनेक अन्य अस्त्र-शस्त्र, उपकरण तथा पुर्जे भी मिले।

कालपी दुर्ग का शेष बचा केन्द्रीय कक्ष साक्षी है कि इस युद्ध में हजारों सैनिकों की रक्तधारा से यमुना लाल हो गयी थी। यदि शासन कि यह उपेक्षा इसी तरह रहेगी तो प्रथम क्रांति के प्रत्यक्षदर्शी इस दुर्ग का शेष भाग भी ढह जाएगा। दुर्ग को यमुना से जोड़ने वाली सीढ़ियाँ तथा किला घाट अभी मौजूद हैं।

 

दादरी एवं सिकन्दराबाद के निकटवर्ती क्षेत्र

पुस्तक :- 1857 का विप्लव
रचनाकार : विघ्नेश कुमार, मुदित कुमार
प्रकाशन :-1857 पेट्रियोटिकल प्रेजेन्टेशन, पब्लिकेशन डिवीज़न
सूचना एवं प्रसार मंत्रालय, भारत सरकार

10 मई को मेरठ से शुरू हुआ विप्लव शीघ्र ही दादरी एवं सिकन्दराबाद क्षेत्र में फैल गया। दादरी एवं सिकन्दराबाद में गुर्जर क्रांतिकारियों ने सरकारी डाक बग़लों, तार घरों व इमारतों को ध्वस्त करना आरम्भ कर दिया। सरकारी संस्थानों को लूटकर उनमें आग लगा दी गई। इस प्रकार सिकन्दराबाद कस्बे के चारों और लूटपाट व आगज़नी की घटनाएँ घटित होने लगी। 15 मई को क्रांतिकारी सैनिकों की रेजिमेंट ने सिकन्दराबाद में पूर्व दिशा की ओर से प्रवेश करके पुलिस व्यवस्था को पूर्णतः नष्ट कर दिया। जो सैनिक तथा चपरासी उपखंड की सुरक्षा के लिए तैनात थे, वे सभी वहाँ से भाग गए।

दादरी में भी लूटपाट की अत्यधिक घटनाएँ हो रही थी। यद्यपि मि. टर्नबुल वहाँ शान्ति स्थापित करने के उद्देश्य से चले किन्तु रास्ते में बड़पुरा गाँव के निकट क्रांतिकारियों द्वारा उसे रोक दिया गया। 21 मई को दोपहर बुलन्दशहर के जिला मजिस्ट्रेट सैप्टे को दादरी के एक मुखाबिर ने सूचना दी कि 5 बजे शाम गुर्जरों एवं राजपूतों का आक्रमण होने वाला है। 4:30 पर उन्हें दूसरी सूचना मिली की अलीगढ़ से 9वीं पलटन के क्रांतिकारी सैनिक खुर्जा पहुँच गये हैं। इन खबरों को सुनकर मि. सैप्ट ने खजाने को मेरठ भेजने का विचार किया। उसने मि. रौस को गाड़ियों में खजाना रखने के लिए कहा लेकिन खजाने की चाबियाँ उस समय नहीं थी। इसलिए सन्दूकों को तोड़कर खजाने को सरकारी गाड़ियों में लाद दिया गया। इसके बाद टर्नबुल, मैल्विल, लॉयल कुछ घुड़सवारों के साथ आगे बढ़ना ही चाहते थे, परन्तु दादरी के निकटवर्ती क्षेत्र के गुर्जरों एवं राजपूतों के आक्रमण के कारण तथा 9वीं पल्टन के क्रांतिकारी सैनिकों के बुलन्दशहर आ जाने से, वे आगे नही बढ़ सके। इस समय एक क्रांतिकारी संतरी ने उन्हें सावधान करते हुए कहा कि 'सावधान! यदि कोई भी आगे बढ़ा तो गोली मार दी जायेगी।' यद्यपि ब्रितानियों ने क्रांतिकारियों का सामान किया और संघर्ष में कई क्रांतिकारी भी मारे गये लेकिन फिर भी क्रांतिकारियों ने खजाने को लूट लिया। जब लेफ्टिनेन्ट रौस ने अपने सैनिकों को कोषागार बचाने के लिए कहा तो उन्होंने आज्ञा मानने से इन्कार कर दिया और वे भी क्रांतिकारियों के साथ हो गये। इस समय बुलन्दशहर में तोड़-फोड़ की गयी तथा सभी प्रलेख खत्म कर दिये गये। क्रांतिकारी ग्रामीणों के आने से पहले की क्रांति से प्रभावित जेल प्रहरियों ने जेल का फाटक खोल दिया। जेल से निकले कैदियों ने भी विप्लव में भाग लिया। गुर्जरों एवं अन्य क्रांतिकारियों ने जिला अदालत में भी तोड़-फोड़ की और सभी कागजात जला डाले। क्रांति की इस भयावह स्थिति से आतंकित होकर अपने प्राण बचाने के लिए सभी अंग्रेज अधिकारी बुलन्दशहर छोड़कर 21 मई को सायं 6:30 बजे मेरठ की ओर भाग खड़े हुए। वे भाग कर 10 बजे रात्रि में हापुड़ पहुँचे और 22 मई को प्रातः 9 बजे जान बचाकर मेरठ आ गये। बुलन्दशहर से ब्रिटिश अधिकारियों के पलायन करने के पश्चात् वहाँ से ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया और मेरठ से आगरा तक का मार्ग क्रांतिकारियों के नियन्त्रण में आ गया। मेजर रीड के नेतृत्व में सिरमुर बटालियन जो नहर के मार्ग से कुछ दिन पहले बुलन्दशहर आने वाली थी, वह क्रांतिकारियों द्वारा नहर को क्षतिग्रस्त कर देने के कारण बहुत देर एवं कठिनाई से 24 मई को बुलन्दशहर पहुँची। देहरादून से गोरखा पल्टन की खबर सुनकर जिला मजिस्ट्रेट सैप्टे, लेफ्टिनेन्ट रौस, कैप्टन टर्नबुल तथा लॉयल 26 मई को बुलन्दशहर वापिस लौट आये।दादरी में भी लूटपाट की अत्यधिक घटनाएँ हो रही थी। यद्यपि मि. टर्नबुल वहाँ शान्ति स्थापित करने के उद्देश्य से चले किन्तु रास्ते में बड़पुरा गाँव के निकट क्रांतिकारियों द्वारा उसे रोक दिया गया। 21 मई को दोपहर बुलन्दशहर के जिला मजिस्ट्रेट सैप्टे को दादरी के एक मुखाबिर ने सूचना दी कि 5 बजे शाम गुर्जरों एवं राजपूतों का आक्रमण होने वाला है। 4:30 पर उन्हें दूसरी सूचना मिली की अलीगढ़ से 9वीं पलटन के क्रांतिकारी सैनिक खुर्जा पहुँच गये हैं। इन खबरों को सुनकर मि. सैप्ट ने खजाने को मेरठ भेजने का विचार किया। उसने मि. रौस को गाड़ियों में खजाना रखने के लिए कहा लेकिन खजाने की चाबियाँ उस समय नहीं थी। इसलिए सन्दूकों को तोड़कर खजाने को सरकारी गाड़ियों में लाद दिया गया। इसके बाद टर्नबुल, मैल्विल, लॉयल कुछ घुड़सवारों के साथ आगे बढ़ना ही चाहते थे, परन्तु दादरी के निकटवर्ती क्षेत्र के गुर्जरों एवं राजपूतों के आक्रमण के कारण तथा 9वीं पल्टन के क्रांतिकारी सैनिकों के बुलन्दशहर आ जाने से, वे आगे नही बढ़ सके। इस समय एक क्रांतिकारी संतरी ने उन्हें सावधान करते हुए कहा कि 'सावधान! यदि कोई भी आगे बढ़ा तो गोली मार दी जायेगी।' यद्यपि ब्रितानियों ने क्रांतिकारियों का सामान किया और संघर्ष में कई क्रांतिकारी भी मारे गये लेकिन फिर भी क्रांतिकारियों ने खजाने को लूट लिया। जब लेफ्टिनेन्ट रौस ने अपने सैनिकों को कोषागार बचाने के लिए कहा तो उन्होंने आज्ञा मानने से इन्कार कर दिया और वे भी क्रांतिकारियों के साथ हो गये। इस समय बुलन्दशहर में तोड़-फोड़ की गयी तथा सभी प्रलेख खत्म कर दिये गये। क्रांतिकारी ग्रामीणों के आने से पहले की क्रांति से प्रभावित जेल प्रहरियों ने जेल का फाटक खोल दिया। जेल से निकले कैदियों ने भी विप्लव में भाग लिया। गुर्जरों एवं अन्य क्रांतिकारियों ने जिला अदालत में भी तोड़-फोड़ की और सभी कागजात जला डाले। क्रांति की इस भयावह स्थिति से आतंकित होकर अपने प्राण बचाने के लिए सभी अंग्रेज अधिकारी बुलन्दशहर छोड़कर 21 मई को सायं 6:30 बजे मेरठ की ओर भाग खड़े हुए। वे भाग कर 10 बजे रात्रि में हापुड़ पहुँचे और 22 मई को प्रातः 9 बजे जान बचाकर मेरठ आ गये। बुलन्दशहर से ब्रिटिश अधिकारियों के पलायन करने के पश्चात् वहाँ से ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया और मेरठ से आगरा तक का मार्ग क्रांतिकारियों के नियन्त्रण में आ गया। मेजर रीड के नेतृत्व में सिरमुर बटालियन जो नहर के मार्ग से कुछ दिन पहले बुलन्दशहर आने वाली थी, वह क्रांतिकारियों द्वारा नहर को क्षतिग्रस्त कर देने के कारण बहुत देर एवं कठिनाई से 24 मई को बुलन्दशहर पहुँची। देहरादून से गोरखा पल्टन की खबर सुनकर जिला मजिस्ट्रेट सैप्टे, लेफ्टिनेन्ट रौस, कैप्टन टर्नबुल तथा लॉयल 26 मई को बुलन्दशहर वापिस लौट आये।

परन्तु इससे पूर्व 23 मई को महेशा, मनौरा और बेयर गाँव के 4-5 हजार ग्रामीण एकत्रित हुए तथा उन्होंने मिलकर सिकन्दराबाद पर आक्रमण करके खूब लूटमार की। इस लूटमार में करीब 70 लोग मारे गये।

 

दादरी क्षेत्र के गाँवों में कटहेड़ा गाँव के उमारव सिंह, बिलू गाँ के रूपराम, लाहरा खुगुआरा के सिब्बा एवं नयनसुख, नंगला के झण्डू, छतेहरा के फतेह गुर्जर, महेशा के बेबी सिंह जमींदार, बेयर के हरबोल, तिलबेगपुर के चौधरी पीर बख्श खाँ एवं धौला, किलौना, नंगला समाना व पारफा के ग्रामीणों ने क्रांतिकारी गतिविधियों में महत्वपूर्ण भाग लिया।

कुछ समय बाद में बुलन्दशहर में ब्रितानियों की स्थिति धीरे-धीरे दृढ़ होती गई। उन्होंने सेना के उन अधिकांश सैनिकों को नौकरी से निकाल दिया जिन्होंने क्रांति में गुप्त रूप से या प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया था। उनके स्थान पर निकटवर्ती गाँवों के जाटों को भर्ती किया गया क्योंकि उन्होंने ब्रितानियों के प्रति स्वामी-भक्ति प्रदर्शित की थी।

क्रांति की असफलता के पश्चात् ब्रितानियों ने दादरी परगने में दमनचक्र शरू किया। 26 सितम्बर को ग्रीथेड ने दादरी और आस-पास के गाँवों में आग लगवा दी। इस परगने के रोशन सिंह के पुत्रों एवं भाइयों को सरेआम फाँसी दे दी गयी और उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। कटहेड़ा के उमराव सिंह एवं सेढू सिंह भाटी को जिन्दा जमींन पर लिटा कर हाथी से कुचलवा दिया गया। दादरी के भगत सिंह एव बिसन सिंह को बुलन्दशहर में 'काला आम' (कत्लेआम) चौराहे, बुलन्दशहर पर फाँसी दे गयी। इस स्थान को वर्तमान में 'शहीद चौक' के नाम से जाना जाता है।

डासना परगना

1857 में मेरठ के अधिकांश स्थानों पर जनता द्वारा ब्रिटिश शासन का विरोध किया गया। तत्कालीन डासना परगना के ग्रामीणों ने भी ब्रितानियों के आदेशों की अवहेलना कर अपना विरोध प्रदर्शित किया। परिणामस्वरूप यहाँ के 25 क्रांतिकारी ग्रामीणों को फाँसी दे दी गयी। इन क्रांतिकारियों में सेठ मटोलचन्द एवं जमींदार चौधरी नैन सिंह त्यागी प्रमुख थे।

10 मई को देसी सैनिक मेरठ में क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम देकर दिल्ली पहुँचे और नगर पर अधिकार कर लिया। दिल्ली पर क्रांतिकारियों के कब्जे और बहादुरशाह द्वितीय द्वारा स्वयं को देश का सम्राट घोषित किये जाने से विप्लव को एक सकारात्मक राजनीतिक अर्थ मिला। यही नहीं, इससे गुजरे जमाने की दिल्ली की ताकत और आन-बान की याद भी लोगों के दिमाग में ताजा हो गयी। परन्तु कुछ समय पश्चात् ही बादशाह आर्थिक संकट में फँस गये। दिल्ली के क्रांतिकारी सैनिकों के अधिक संख्या में पहुँचने और लगातार ब्रिटिश सेना से युद्ध के कारण पहले से ही रिक्त राजकोष और अधिक दुरावस्थाग्रस्त हो गया। सैनिकों का वेतन चुका पाना बादशाह के लिए एक जटिल समस्या बन गया। इसलिए दिल्ली तथा निकटवर्ती क्षेत्रों के धनाड्य व्यक्तियों के पास आर्थिक सहायता के लिए संदेश भेजे गये। इन संदेशों में धन-ऋण के रूप में मांगा गया था।

लाला मटोलचन्द को भी बादशाह की ओर से संदेश मिला। इस संदेश के मिलने पर उनसे नहीं रहा गया। उन्होंने छकड़ों में सोने की मोहरे और चाँदी के सिक्के अपने विश्वासपात्र व्यक्तियों की निगरानी में मुगल सम्राट के पास दिल्ली भिजवाये। डासना के रईस लाल मटोलचन्द द्वारा मुगल बहादुरशाह को धन भेजने की जानकारी ब्रितानियों को मिल गयी। दिल्ली की क्रांतिकारी सेना की पराजय के पश्चात् ब्रितानियों ने उन व्यक्तियों को कठोर दण्ड दिये जिन्होंने उनके विरोधियों की किसी भी प्रकार से सहायता की थी। मटोलचन्द पर भी क्रांतिकारियों की सहायता करने का आरोप लगाया गया और उन्हें फाँसी दे दी गयी। उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति जब्त कर ली गयी।

डासना में लखौरी ईटों से बनी उनकी 52 दरवाजों की हवेली वर्तमान में भी विद्यमान है। यद्यपि उसके कई हिस्से खंडहर को चुके हैं परन्तु यह देश के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने वाले लाल मटोलचन्द का स्मरण वर्तमान में भी करा रही है।

डासना परगने के चौधरी नैन सिंह त्यागी एवं बसारत अली खाँ भी महत्वपूर्ण व्यक्ति थे जिन्होंने क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। चौधरी नेन सिंह डासना परगने के एक बड़े जमींदार थे। उन्होंने ग्रामीणों से ब्रितानियों को देश से निकालने के लिए और क्रांति में भागीदारी करने का आह्वान किया। उनके आह्वान पर पूरा क्षेत्र ब्रिटिश विरोधी बन गया। परिणामतः ब्रितानियों ने यहाँ के ग्रामीणों को सबक सिखाने के लिए डासना से मसूरी तक के इलाके की जमींन जब्त करके एक ब्रिटिश इंजीनियर के हाथों नीलाम कर दी। इस ब्रिटिश की कोठी मसूरी में नहर के पास वर्तमान में भी विद्यमान है जो इस इलाके पर हुए उसके अत्याचारों की प्रत्यक्ष गवाह रही है।

डासना में जिस समय जमीन नीलामी के आदेश की मुनादी करायी जा रही थी तब यहाँ के किसान बसारत अली तथा कुछ अन्य ग्रामीणों ने मुनादी करने वाले व्यक्ति का ढोल फोड़ दिया और कहा कि हमारी जमीन नीलाम नहीं की जा सकती और न ही हम सरकार को लगान देंगे। इस घटना की खबर जब मेरठ पहुँची तो ब्रिटिश अधिकारी डनलप के नेतृत्व में खाकी रिसाला डासना पहुँच गया। बसारत अली एवं अन्य तीन ग्रामीणों को सरकारी आदेश की अवहेलना करने के आरोप में गिरफ्तार करके फाँसी दे दी गयी।

प्रतिक्रांति के समय ब्रितानियों ने यहाँ ग्रामीणों पर अत्यधिक अत्याचार किये। चौधरी नैन सिंह त्यागी को ब्रिटिश शासन के विरूद्ध आम जनता को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में उन्हें फाँसी दे दी गयी।

डासना के चौधरी नैन सिंह त्यागी, लाल मटोल चन्द और बसारत अली सहित 25 क्रांतिकारी ग्रामीणों को फाँसी पर लटका दिया गया। डासना के ग्रामीणों की सारी जमीन जब्त करके जॉ माइकल जेक्सन को दे दी गयी।

 

गढ़मुक्तेश्वर

10 मई को मेरठ से शुरू क्रांति जल्दी ही उत्तरी भारत के अनेक क्षेत्रों में फैल गई। बरेली में खान बहादुर खान ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया और स्वयं को नवाब घोषित कर दिया। 1 जून को मि. विलियम्स ने कप्तान क्रेगी तथा 40 घुड़सवारों के साथ मेरठ से बरेली प्रस्थान किया। 3 जून को दोपहर के समय गंगा तथा मुरादाबाद के मध्य, मेरठ से लगभग 46 मील की दूरी पर अंग्रेज सैनिक टुकड़ी यह कह कर रोक दी गई की 'बरेली' में भी विद्रोह शुरू हो गया है तथा बरेली जेल से अधिक संख्या में क़ैदी भाग निकले हैं और वे अमरोहा दिशा में बढ़ने लगे हैं।

सूचना प्राप्त होने के बाद 18 जून के आस-पास मुरादनगर के जज विल्सन को कारबाईन वाले दल के साथ गढ़मुक्तेश्वर का पुल तोड़ने भेजा गया ताकि बरेली के विद्रोही मेरठ न पहुँच सके। इससे पूर्व 3 जून को नालों के पुल को तोड़ने के लिए मैसर्स विल्सन, सान्डर्स, जे. एस. कैम्पबैल, डॉ. केनन ने कोशिश की लेकिन वे पुल न तोड़ सके। यद्यपि उन्होंने नावों को वहाँ से हटवा दिया। यूरोपियन दल ने एक ऊँट सवारों की रेजिमेंट लेकर अन्य सिपाहियों के साथ गढ़मुक्तेश्वर की ओर आगे बढ़ना आरंभ कर दिया। मेरठ में क्रांतिकारियों के विषय में दो राय थी- प्रथम, उन्हें गढ़मुक्तेश्वर न पहुँचने दिया जाए, परंतु वह केवल कुछ समय तक ही टाला जा सकता था। द्वितीय, क्रांतिकारियों को गंगा पार कर लेने दी जाए और गंगा पार करने के उपरांत कहीं पर भी उनके साथ संघर्ष किया जाए। इस समय क्रांतिकारियों के दमन के लिए मेरठ में पर्याप्त सैन्य बल उपलब्ध नहीं था। मेरठ से 500 से अधिक सैनिक नहीं लाये जा सकते थे।

मेरठ के कमांडिंग ऑफ़िसर से यह प्रार्थना की गई कि बागपत की ओर राइ कैम्प से 500 सैनिक अधिक भेज दें, परंतु यह माँग अस्वीकार कर दी गई। कमांडिंग ऑफ़िसर ने यह आदेश दिया कि वे क्रांतिकारियों के साथ संघर्ष की कोई कार्यवाही न करें और आत्मरक्षा तक ही सीमित रहें। इस आदेश ने क्रांतिकारियों की स्थिति मज़बूत कर दी। बरेली ब्रिगेड के क्रांतिकारियों ने गढ़ क्षेत्र के निवासियों की मदद से गंगा पार करके गंगा घाट पर अधिकार कर लिया। बरेली से आकर गढ़मुक्तेश्वर में पड़ाव डालने वाली पलटनों में 18वीं पल्टन और 68वीं पल्टन सबकी अगुआ थी। इस प्रकार गढ़मुक्तेश्वर क्रांतिकारी सैनिकों का केंद्र बन गया।

ब्रितानियों के अख़बार 'हरकारा' में इस घटना का आंकलन उस समय इस तरह से किया गया था- 'मुरादाबाद, शाहजहाँ पुर और सीतापुर से आए सैनिकों के साथ बरेली के सैनिक गढ़मुक्तेश्वर में मिल गये हैं। वे सभी अपने-अपने स्थानों से तमाम सरकारी धन लूटकर यहाँ पड़ाव डाल चुके हैं। कल ऐसे 5 हज़ार सैनिक गढ़मुक्तेश्वर पहुँचे, जिनके पास चाल लाख पौंड स्टर्लिंग के बराबर चाँदी के रूपये बताये जाते हैं, जो बैलगाड़ियों और छकड़ों में लदे हुए हैं। उन्होंने गंगा जैसी बड़ी नदी गढ़मुक्तेश्वर में निकटवर्ती स्थानों के आम देहातियों की मदद से पार कर ली। आश्चर्य तो यह है कि उस समय हमारे एक हज़ार युरोपियन मेरठ में थे परंतु वे अपनी बनाईं खन्दकों में बैठे सिर्फ़ अपनी रक्षा और चौकीदारी मात्र करते थे। इतना ही नहीं, विद्रोही गढ़मुक्तेश्वर में पड़ाव डाले रहे और सैन्य सामग्री दिल्ली की और भेजते रहे, साथ ही ऐसे झूठे संदेश भेजते रहे कि वे मेरठ पर हमला करने वाले हैं। इससे वहाँ के ब्रितानी डर के कारण अपनी छावनी की सुरक्षा में लगे रहे। उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर की ओर बढ़ने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं की। यदि गंगा घाट पर उन्हें हम हरा देते तो सारे ज़िले की जनता घबरा जाती। इससे दिल्ली का घेरा डालने और उसे फिर से अपने अधिकार में लेने में भी हमें मदद मिलती।'

क्रांतिकारियों ने गढ़ में बड़ी मात्रा में तोड़-फोड़ की और अधिकांश सरकारी सम्पत्ति को नष्ट कर दिया। यहाँ से क्रांतिकारी बाबूगढ़ छावनी की ओर गये। बाबूगढ़ पहुँचकर उन्होंने दुकानों में तोड़-फोड़ करके उनमें आग लगा दी। उन्होंने छावनी पर भी हमला किया और सेना के घोड़ों तक को लूट लिया।

 

गुलावठी

गुलावठी कस्बा बुलन्दशहर जनपद में अवस्थित है। विप्लव के समय यहाँ क्रांतिकारी सैनिकों एवं ब्रिटिश सेना के मध्य भयंकर संघर्ष हुआ जिसमें अनेक क्रांतिकारी शहीद हुए। इस संघर्ष का उल्लेख विलियम म्यूर के विवरण में मिलता है। 2 अगस्त, 1857 को मेरठ के कमिश्नर विलियम्स ने यहाँ के संबंध में लिखा भी था कि-

'विद्रोहियों ने गुलांवठी पर कब्जा कर रखा है और वे हमारी डाक को बीच में छीन लेते हैं। इसलिए हमारे बहुत से पत्र नहीं पहुँच पाते हैं। यह कस्बा मालागढ़ से मेरठ जाने वाले मार्ग पर अवस्थित हैं। इन विद्रोहियों पर हमारी फ़ौज ने हमला किया जिसमें राइफ़ल सेना और 50 छोटी नालों वाली बंदूकें भी थीं। भयंकर संघर्ष में 620 विद्रोही मारे गए और शेष भाग गए।'

विलियम्स की इस रिपोर्ट के पश्चात् लगभग डेढ़ वर्ष बाद बंदी बनाये गए इस संघर्ष में भागीदारी करने वाले क्रांतिकारी सैनिक 'पीर ज़हूर अली' ने 4 मार्च, 1859 को अपने बयान में इस संघर्ष का दूसरा पक्ष प्रस्तुत किया। वह चौदहवीं बंगाल अनियमित सेना में जमादार पद पर नियुक्त थे। उसने बताया कि-

'हमारी पैदल सेना और अश्वारोही सेना का एक भाग दो तोपें साथ लेकर मालागढ़ की ओर बढ़ा। तीन पड़ावों में हम वहाँ जा पहुँचे। तभी सूचना मिली के अंग्रेजी पल्टन गुलावठी तक पहुँच चुकी है। हम शीघ्र ही वहाँ तोपों सहित जा पहुँचे। शाम के समय दोनों ओर से गोलाबारी शुरू हो गई। यह संघर्ष पाँच से छह घंटे तक चला। अँग्रेज़ी तोपों हमारी तोपों के पाँच या छह गोले दाग़ने के बाद बंद हो गई। उसके बाद वे पीछे हट गए। लेकिन हम खाइयों में रात भर डटे रहे और दूसरे दिन प्रातः हम गाँव में पहुँचे।

फिर यह विदित हुआ कि ब्रिटिश सेना बुलन्दशहर में इकट्ठी हो रही है। नवाब वलीदाद खाँ मालागढ़ से अपनी फ़ौज के साथ बुलन्दशहर गए। हम भी उनकी सहायता के लिए अपनी फ़ौज के साथ बुलन्दशहर पहुँचे।

गुलावठी में हुए संघर्ष के संबंध में अनेक किंवदंतियाँ चली आ रही है कि इस लड़ाई में हज़ारों क्रांतिकारी शहीद हुए थे। काली नदी के तट पर हज़ारों शव जलाये गए और अनेक खेतों में क़ब्र खोदकर दबाये गए। मृतक ब्रिटिश सैनिकों के घोड़े इतनी अधिक संख्या में पकड़े गए कि हर घर में चार-छह घोड़े बँध गए थे।

वस्तुतः उपरोक्त विवरण से यह निष्कर्ष सामने आता है कि गुलावठी में क्रांतिकारियों की मजूबत स्थिति थी। यद्यपि यहाँ हुए संघर्ष में अनेक क्रांतिकारी मारे गए और यह कोई निर्णायक संघर्ष भी सिद्ध नहीं हुआ परंतु क्रांतिकारियों ने ब्रितानियों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था।

 

हापुड़

दिल्ली से कलकत्ता जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग 24 पर अवस्थित हापुड़ कस्बा गाजियाबाद जिले का तहसील मुख्यालय है। यहाँ के निवासियों ने 1857 के विप्लव में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इनमें मुख्य क्रांतिकारी थे- चौधरी जबरदस्त खाँ एवं चौधरी उल्फत खाँ। ब्रितानियों के विरूद्ध क्रांति में संलग्न होने के कारण चौधरी जबरदस्त खाँ एवं चौधरी उल्फत खाँ को उनके समर्थकों के साथ मृत्युदण्ड दिया गया। लेकिन उनकी शहादत को हापुड़ के निवासी आज भी याद करते हैं। हापुड़ में 1857 में शहीद होने वाले क्रांतिकारियों की याद में 1975 ई. से प्रतिवर्ष शहीद मेले का आयोजन किया जाता है। जो 10 मी से शुरू होकर एक माह तक चलता है। सम्पूर्ण देश में 1857 से सम्बद्ध इस प्रकार के मेले का आयोजन अन्यत्र कहीं नही किया जाता।

चौधरी जबरदस्त खाँ का परिवार मूलतः असौड़ा गाँव का रहने वाला था जो अपनी जमींदारी होने के कारण बाद में हापुड़ के मुहल्ला भण्ड़ा पट्टी में रहने लगे। इनके पूर्वज हिन्दू थे। कालान्तर में उन्होंने इस्लाम अंगीकार कर लिया। चौधरी जबरदस्त खाँ, समस्त खाँ, उल्फत खाँ, अमजद खाँ, दूल्हे खाँ सहित सात भाई थे, एक बहिन भी थी।

मालागढ़ के नवाब वलीदाद खाँ तथा चौधरी जबरदस्त खाँ के मध्य दोस्ताना सम्बन्ध थे। एक अनुश्रति के अनुसार, "नवाब वलीदाद खाँ के पुत्र की शादी नवाब मुजफ्फरनगर की इकलौती पुत्री के साथ हुई थी। बारात मालागढ़ से मुजफ्फरनगर के लिए रवाना हुई। हापुड़ रास्ते में होने के कारण बारात यहाँ से होकर जानी थी। यहाँ आने पर नवाब वलीदाद खाँ ने चौधरी जबरदस्त खाँ को बारात का मुखिया बनाकर भेजा और स्वयं वापस लौट गए। इस घटना से दोनों के मध्य दोस्ताना सम्बन्धों की पुष्टि होती हैं। नवाब मुजफ्फरनगर द्वारा बारात तथा चौधरी जबरदस्त खाँ का भव्य स्वागत किया गया। बारात दो माह से अधिक समय तक नवाब मुजफ्फरनगर के यहाँ रूकी रही, जो व्यक्ति बारात की सूचना प्राप्त करने जाते उन्हें भी वापिस नहीं आने दिया जाता, इस कारण बारातियों की संख्या काफी अधिक हो गयी। नवाब वलीदाद के स्थान पर चौधरी जबरदस्त खाँ ने वर के पिता का उत्तरदातिय्तव निभाया। नवाब मुजफ्फरनगर की पुत्री इकलौती थी इसलिए नवाब ने अपनी सम्पूर्ण जायदाद अपनी लड़की एवं दामाद के सुपर्द कर दी।"

हमारा अनुमान है कि वलीदाद खाँ किसी गुप्त एवं अति महत्व के कार्य में लगे होने के कारण पुत्र की शादी में न जा सके होंगे और यह भी कि यह काम पहले से निर्धारित नहीं रहा होगा बल्कि अचानक लग गया होगा। यदि इस कार्य विशेष का पहले से आभास भी होता, तो नवाब वलीदाद शाह की तिथि पीछे हटा सकते थे। साथ ही कार्य इतने अधिक महत्व का होगा कि शादी के ऐन वक्त पर वे न तो शादी टाल सकते थे और न ही काम को विलिम्बित कर सकते थे। आखिर प्रश्न उठता है कि यह कार्य वास्तव में क्या था? हमारा मत है कि यह काम और कुछ न होकर 1857 की क्रांति का प्रस्फुटन से पूर्व इसकी योजना अथवा इसके योजनाकारों से सम्पर्क सम्बन्धित रहा होगा।

तत्कालीन परिस्थितियों में साक्ष्य समूह इसी अनुमान को बल प्रदान करता है कि शादी का समय 1857 की बसन्त ऋतु के आस-पास होगा। इस पर विचार करने से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इतिहासकार इस पर एकमत हैं कि 10 मई, 1857 को मेरठ से अचानक क्रांति प्रस्फूटित हुई थी। अतः ऐसे में यह साक्ष्यसंगत न होगा कि इसके प्रस्फुटन का वलीदाद खाँ को पूर्व आभास हो। अतः सरलता से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि शादी की तिथि 10 मई से कुछ पूर्व नहोकर ही काफी पहले रही होगी। ऐसा मान लेने पर पिता वलीदाद खाँ ने अपनी पुत्र की शादी में अमूल्य समय नष्ट करने की अपेक्षा यह उचित समझा होगा कि योजनाकारों से सम्पर्क स्थापित कर क्रांति में अपनी भूमिका निर्वहन किया जाये। नवाब वलीदाद खाँ एक दूरदर्शी व्यक्ति थे। समकालीन ऐतिहासिक स्रोत इसकी पुष्टि करते हैं।

1857 के समय नवाब वलीदाद खाँ का मालागढ़ रियासत में शासन था तथा मुगल दरबार में उन्हें विशेष स्थान प्राप्त था। क्रांन्ति के समय बादशाह बहादुर शाह ने उन्हें बुलन्दशहर, अलीगढ़ तथा निकटवर्ती क्षेत्रों की सूबेदारी भी सौंप दी। 1857 में मुगल बादशाह द्वारा क्रांतिकारियों का साथ देने के कारण वलीदाद खाँ ने भी उनका साथ दिया तथा अंग्रेजों के विरूद्ध अपने क्षेत्र का नेतृत्व किया।

चौधरी जबरदस्त खाँ ने नवाब वलीदाद खाँ से नजदीकी सम्बन्ध होने के कारण विप्लव में पूरा सहयोग किया तथा क्षेत्रीय आधार पर हापुड़ के क्रांतिकारी ग्रामीणों का नेतृत्व किया। हापुड़ तहसील में कई माह तक मारकाट मची रही। क्रांतिकारियों ने हापुड़ एवं बुलन्दशह के मध्य सभी टेलीफोन के तारों को काट दिया। वलीदाद खाँ और जबरदस्त खाँ ने हापुड़ में ब्रितानियों पर आक्रमण करने की योजना बनायी लेकिन ब्रितानियोंें के समर्थकों एव बुलन्दशहर जिले में भटोना गाँव के जाटों के कारण यह योजना क्रियान्वित न हो सकी। हापुड़ में क्रांतिकारियों की बढ़ती हुई गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए अन्ततः ब्रिटिश सेना के शक्तिशाली दस्ते के साथ विलियम्स को आना पड़ा। उसने हापुड़ के अंग्रेज अधिकारी विल्सन की सहायता से चौधरी जबरस्त खाँ तथा उनके भाई उल्फत खाँ को अनेक समर्थको सहित गिरफ्तार कर लिया। अनेक क्रांतिकारी हापुड़ से दूर चले गये। अंग्रेज अधिकारियों ने चौधरी जबरदस्त खाँ तथा चौधरी उल्फत खाँ सहित उनके अनेक समर्थकों को विद्रोही घोषित करते हुए मृत्युदण्ड का आदेश दिया। सभी व्यक्तियों को हापुड़ में पुरानी तहसील के निकट पीपल के जिस वृक्ष पर फाँसी दी गई उसे कालान्तर में कटवा दिया गया। उसी वृक्ष के स्थान पर आज हापुड़ का टेलीफोन एक्सेंज बना हुआ है। इसकी दीवार तहसील की दीवार से सटी हुई है। यह हापुड़ में बुलन्दशहर रोड पर स्थित है।

उस समय रेशम की डोरी से फाँसी दी जाती थी। ऐसा माना जाता है कि चौधरी जबरदस्त खाँ को तीन बार फाँसी लगायी गयी परन्तु तीनों बार ही फाँसी का फन्दा टूट गया। यह देखकर ब्रिटिश अधिकारी विल्सन ने आश्चर्य व्यक्त किया और जबरदस्त खाँ को उसने जीवित छोड़ने का मन बना लिया। चौधरी जबरदस्त खाँ को फाँसी के तख्ते से उतार लिया गया और उनके पानी माँगने पर पानी पिलवाने का आदेश भी दिया। परन्तु जबरदस्त खाँ के विरोधी नहीं चाहते थे कि उसे जिन्दा छोड़ा जाये। उन्होंने ब्रिटिश अधिकारी से प्रार्थना की, कि अगर चौधरी जबरदस्त खाँ को जीवित छोड़ दिया गया तो वह हमें जिन्दा नहीं छोड़ेगा।

क्योंकि उन्होंने क्रांति के दौरान चौधरी जबरदस्त खाँ के विरूद्ध ब्रितानियों की मदद की थी, अतः उनकी विनती को विल्सन ने स्वीकार कर लिया। जब जबरदस्त खाँ पानी पी रहे थे तब उन्होंने उसकी कनपटी पर गोली मार दी। चौधरी जबरदस्त खाँ देश के लिए शहीद हो गये।

उनकी सम्पूर्ण जायदाद जब्त करने तथा परिवार के अन्य सदस्यों को मृत्युदण्ड का आदेश भी ब्रिटिश अधिकारी ने दिया। अब्दुल्ला खाँ तथा वादुल्ला खाँ, जो चौधरी जबरदस्त खाँ के पुत्र बताये जाते हैं, को उनके एक स्वामिभक्त नौकर छिपाकर हापुड़ से दूर ले गए और कई वर्षो बाद जब हापुड़ में शान्ति हुई तभी वे वापस आये। मुहल्ला भण्डा पट्टी, हापुड़ में इनके वंशज आज भी रह रहे हैं।

 

हिन्डन नदी

27 मई को जनरल विल्सन ने ग्रीथेड तथा ब्रिटिश सैनिक दल के साथ मेरठ से दिल्ली की ओर प्रस्थान किया तथा 30 मई को प्रातःकाल यह दल गाजियाबाद पहुँच गया। विल्सन की शाही आर्टिलरी में 60वीं शाही राइफल्स की चार कम्पनियाँ, दो स्क्वाड्रन, कारबाइनर्स, एक फील्ड बैट्री, ट्रुप हॉर्स आर्टिलरी, एक कम्पनी हिन्दुस्तान सैपर्स और 120 पैदल आर्टीलरीमैन शामिल थे।

यहाँ पर उन्हें ज्ञात हुआ कि क्रांतिकारी हिण्डन के पार मिट्टी के एक ऊँचे टीले पर एकत्रित हैं तथा आक्रमण करने वाले हैं। यूरोपियनों के आगमन की सूचना प्राप्त होते ही क्रांतिकारियों ने गोलाबारी शुरू कर दी। जनरल विल्सन ने राइफल वाली एक सैनिक टुकड़ी के साथ एक अन्य दल को पुल की रक्षा के लिये भेजा। क्रांतिकारियों ने इस दल पर गोलाबारी आरम्भ कर दी। इस पर जनरल ने अन्य दो राइफल कम्पनिंयो को उनकी रक्षा के लिये भेजा। ब्रिटिश सेना ने क्रांतिकारियों पर 19 पौण्ड का तोपखाना, फील्ड बैट्री, हार्स आर्टिलरी का प्रयोग किया। फील्ड बैर्टी का नेतृत्व स्कॉट तथा हार्ट आर्टिलरी की कमान हेनरी टॉब ने सम्भाल रखी थी। इससे क्रांतिकारी सेना का बायां भाग कमजोर पड़ गया, अतः क्रांतिकारी सेना वहाँ से हट गयी जबकि उनकी 5 तोपें वहीं छूट गई। ब्रिटिश सेना इन 5 तोपों की ओर विजय गर्व से लपकी। इन तोपों के बीच में 11वीं पल्टन के एक क्रांतिकारी छुपे बैठे थे जो ब्रितानियों के पास आने का धैर्यपूर्वक इन्तजार कर रहे थे। जैसे ही ब्रिटिश सैनिक तोपों के पास पहुँचे, उन क्रांतिकारी ने ठीक उसी समय मैगजीन में आग लगा दी। भयंकर विस्फोट हुआ और वह अमर बलिदानी वहीं ढेर हो गए किन्तु इस प्रकार स्वयं का बलिदान करके उन्होंने कैप्टन ऐन्ड्रूज तथा अन्य कई ब्रितानियों को मार डाला। इस अज्ञात क्रांतिकारी की सूझबूझ, बलिदान की भावना तथा वीरता की प्रशंसा करते हुए इतिहासकार जॉन केङ ने लिखा है-

It taught u that, amont the mutineers, there were brave and desperate men who were ready to court instant death for the sake of the National cause.

इस घटनाक्रम में 1 ऑफिसर सहित 10 ब्रिटिश जवान मारे गये और 18 ब्रिटिश जावन घायल हुए। तभी आकडेल को हिण्डन नदी के दूसरी ओर क्रांतिकारियों के होने की सूचना प्राप्त हुई। 31 मई को क्रांतिकारियों ने एक ऊँचे टीले पर पुल से एक मील दूर अपनी स्थिति बना ली तथा गोलीबारी आरम्भ कर दी। पहली बटालियन 60वीं राइफल्स के घुड़सवारों को भारी गोलीबारी का सामना करना पड़ा। गोलाबारी का युद्ध 2 घण्टेे तक चलता रहा। इस समय 60वीं राइफल ने चुंगीधर के बायी और का गाँव आक्रमण के लिये खाली कराया। इसके पश्चात् क्रांतिकारी सैनिकों की गोलाबारी कम हुई और उन्हें वहाँ से हटना पड़ा लेकिन वे अपनी बन्दूकों के साथ बच निकलनें में सफल हो गये। ब्रितानी तेज धूप व प्यास के कारण उनका पीछा न कर सके। इसमें ब्रितानियों को बहुत हानि का सामना करना पड़ा। लेफ्टीनेन्ट परकिन्स तथा 60वीं राइफल्स के 11 जवान मारे गये। इनमें आधे से ज्यादा लोग सूरज की तेज गर्मी के कारण मारे गये।

इस संघर्ष में मारे गये ब्रितानियों की कब्रें हिण्डन नदी के निकट आज भी विद्यमान हैं। इन कब्रों पर शिलालेख लगे है जिन पर मारे गये ब्रितानियों के नाम उत्कीर्ण हैं। ये तीन स्तम्भ हैं जिनका मुख्य हिण्डन नदी की ओर हैं। इनका विवरण अग्रलिखित है।

1-A नदी अभिमुख स्तम्भ का अग्रभाग-

ET
CelerAudax
Erected
-----------by----------
The 60th Rifles
In
Memory of
Captain F. Andrews.
Sergent W. Mcpherson
Corporal T. OङPherson
Private. J. Daring

I-B दूसरा भाग-

Private J. Gainty
Private D. Tommisson
Private H. Armitage
Private J. Scriven
Private P. Quirk
Private A. Edmond
Private J. Casey
Who were killed near this spot in action with the mutineers of Bengal army on the ----- and 31st May 1857

I-C तीसरा भाग (पश्व भाग)

And of
Sargent R. Hackett.
Corporal J. Sherry
Corproral J. Moore
PrivateJ. Lehane
Who died of sunstroke during the fights.
They all belonged to the 1st Battalion 60th rifles and were buried here.

 

I-D चौथा व अन्तिम भाग-

 

Also of
Ensign, W. H. Napier
Who was wounded on the
31st May and died at meerut
On 4th June, 1857
---------------

Earle, Sc.
Meerut

दाहिना अर्थात् तीसरा शव स्मारक स्तम्भ लेख

यह एक शिलापट है, जिसकी एक और ही उत्कीर्णित विवरण है यह उत्कीर्णित विवरण नही अभिमुख है। इस पर निम्नलिखित विवरण खुदे है।

In Memory of
1st Lieutenant Henry Georgy Perkins
Bombardier Bernard Horan
Rough Rider Patrick O Neil
Gunner John Riley
Of the
2nd Troop 1st Brigade
Bengal Horse Artillery
Who fell in action the mutineers
At the Hindun
River
On the 31st May 1857.
Nobly Doing Their Duty,
This Monument is erected by Their commanding officer Colonel H. Tombs in token of Esteem and Regret

बीच का शव स्मारक स्तम्भ

दुर्गाग्य से 1857 की राष्ट्रीय क्रांति के स्मारक एवं स्मारक चिन्हों आदि का उचित रखरखाव और इस हेतु जनसामान्य के प्रबोधन के अभाव के कारण स्वतंत्रता के पश्चात भी यथा आवश्यक ध्यान नहीं दिया जा सका है। इसका एक उदाहरण यह शव स्मारक स्तम्भ है क्योंकि इसे नष्ट कर दिया गया है। यद्यपि इसके कुछ टुकड़े परिसर के निकटवर्ती हिस्सों में मिले हैं किन्तु इनसे कोई निश्चित जानकारी नहीं मिल सकी है। अतः नहीं कहा जा सकता है कि इस पर क्या विवरण उत्कीर्ण था अथवा यह अनुत्कीर्ण ही था।

 

किसी भी सहृदय एवं जाग्रत भारतीय नागरिक को यह जानकर दुःख होना स्वाभाविक है कि अतिक्रमण एवं अवैध भवन निर्माण की बढ़ती समस्या से राष्ट्रीय महत्व के इन स्तम्भों एवं स्तम्भ लेखों की सुरक्षा को भारी खतरा उत्पन्न हो गया है। कोई भी प्रबुद्ध नागरिक यह कहकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं समझ सकता कि केन्द्र व राज्य सरकारों को इनके संरक्षण में विलम्ब नहीं करना चाहिए। गैर सरकारी संस्थाएँ एवं नागरिक वर्ग का भी कोई कर्त्तव्य है?

 

मुकीमपुर गढ़ी

मुकीमपुर गढ़ी गाँव पिलखुवा के निकट अवस्थित है। यहाँ के राजपूत ग्रामीणों ने भी जमींदार गुलाब सिंह के नेतृत्व में विप्लव में भाग लिया। गुलाब सिंह ने ब्रितानियों को लगान न देने एवं क्रांतिकारियों का साथ देने का निश्चय किया। उन्होंने ग्रामवासियों को भी लगान न देने के लिए प्रेरित किया। मुकीमपुरगढ़ी में जमींदर गुलाब सिंह के नेतृत्व में किसानों की एक बैठक बुलायी गयी। इसमें ग्रामीणों ने गुलाब सिंह से सहमत होते हुए ब्रिटिश सरकार को भू-राजस्व न देने की घोषणा की। इस प्रकार मुकीमपुर गढ़ी राजपूत क्रांतिकारियों का मजबूत गढ़ बन गया। जमींदार गुलाब सिंह ने निकटवर्ती गाँवों को भी क्रांति के लिए प्रोत्साहित किया। परिणामतः वहाँ भी क्रांतिकारी भावनाएं पनपने लगी और कुछ समय में वहाँ कानून व्यवस्था पूर्ण रूप से भंग हो गयी। ब्रितानियों से संघर्ष होने के पूर्वानुमान के कारण जमींदार गुलाब सिंह ने अपनी गढ़ी (लखौरी ईटों की किलेनुमा हवेली ) में हथियार भी इकट्ठे करने शुरू कर दिये।

मुकीमपुर गढ़ी के विप्लव की सूचना जब अंग्रेज अधिकारियों तक पहुँची तो उन्होंने उसके दमन का निश्चय किया। ब्रितानियों ने गुलाब सिंह को क्रांतिकारियों का नेता घोषित किया और मुकीमपुर गढ़ी तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र में विप्लव भड़काने का आरोप भी उन पर लगाया गया। एक ब्रिटिश सैन्य टुकड़ी यहाँ विप्लव के दमन के लिए भेजी गयी। उसने मुकीमपुर गढ़ी को चारो ओर से घेर लिया। गुलाब सिंह की हवेली पर तोप से गोले बरसाये गये। गुलाब सिंह के नेतृत्व में ग्रामीणों ने ब्रितानियों का सामना किया परन्तु वे तोपों के सामने ज्यादा देर टिक न सके। गुलाब सिंह की हवेली को तोपों से खंडहर में परिवर्तित कर दिया। ब्रिटिश सेना को हवेली के अन्दर कुएँ से हथियार प्राप्त हुए जो उनका सामना करने के लिए जमींदार गुलाब सिंह एवं ग्रामीणों ने इकट्ठा किये थे। बाद में मुकीमपुर गढ़ी गाँव में आग लगा दी गयी। ब्रिटिश अधिकारी डनलप ने गुलाब सिंह की सम्पूर्ण जायदाद जब्त कर ली। आज भी गुलाब सिंह की हवेली के खंडहर 1857 की क्रांति की स्मृति में बनाये हुए हैं।

 

पिलखुवा

पिलखुवा कस्बा हापुड़-गाजियाबाद मार्ग पर अवस्थित है। इस कस्बे में मुहल्ला गढ़ी के शिव मंदिर के शिखर पर एक प्रतिमा प्रस्थापित है। यह नागा बाबा की प्रतिमा है। नागा बाबा क्रांति में भाग लेने के कारण ब्रितानियों की गोली का शिकार हुए और देश के लिए शहीद हो गये। इनके प्रति यहाँ की ग्रामीणों में अत्यधिक श्रद्धाभाव हैं।

नागा बाब युवा सन्यासी थे। क्रांति के कुछ समय पहले यह पिलखुवा में मुहल्ला गढ़ी के शिव मंदिर में रहने लगे थे। यद्यपि वह शिव की पूजा अर्चना में समय व्यतीत करते थे परन्तु गुप्त वेश में क्षेत्र में घूम-घूमकर ग्रामीणों में ब्रिटिश शासन के विरूद्ध जनचेतना जागृत करते थे। वह व्यक्तियों को इकट्ठा करके सैनिकों को चर्बीयुक्त कारतूस दिये जाने की जानकारी दिया करते थे। वह बताया करते थे कि-'ये विदेशी विधर्मी ब्रिटिश गौ-हत्या करके हमारा धर्म भ्रष्ट कर देंगे।' वह बताते थे कि 'सैनिकों को जो नये कारतूस मुँह से खोलने पड़ते हैं, उनमें गौ-माता का मांस लगा हुआ है।' ग्रामीणों को नागा बाबा की बातों को सुनने से यह महसूस होने लगा कि अंग्रेज हमारे धर्म को नष्ट करना चाहते हैं। इससे उनमें अपने धर्म के नष्ट होने का डर पैदा हो गया। नागा बाब एक गाय भी रखते थे जिसकी वह श्रद्धा के साथ सेवा करते थे।

नागा बाब का गुप्त रूप से स्थानीय क्रांतिकारियों से सम्पर्क बना हुआ था। कई बार इस मंदिर में क्रांतिकारी सभाओं का आयोजन भी हो चुका था। इस प्रकार यहाँ क्रांति की पूर्व पीठिका तैयार हो चुकी थी। जब 10 मई के विप्लव की खबर यहाँ के ग्रामीणों को मिली तो उन्होंने भी सरकारी आदेशों की अवहेलना करनी शुरू कर दी। यहाँ के व्यक्तियों का मुकीमपुर की गढ़ी के जमींदार गुलाब सिंह से भी सम्पर्क बना हुआ गिरफ्तार करके गोली मार दी गयी। उनकी गाय को भी मार दिया गया। इस प्रकार नागा बाबा शहीद हो गये लेकिन आज भी उनकी शहादत को यहाँ के क्षेत्रवासी श्रद्धा के साथ याद करते हैं।

ब्रितानियों ने पिलखुवा में अत्याधिक लूटपाट मचाई। लूट का क्रम कई दिन तक चलने के पश्चात् भी जब उनकी धन पिपासा शान्त नहीं हुई तब पिलखुआ के दो धनाड़्य तुलाराम छीपाङ तथा घ्रूपा चमार (हरिजन) ने ब्रितानियों के समक्ष स्वयं को लुट जाने के लिए प्रस्तुत किय तथा उनके नुकसान की पूर्ति की। पिलखुवा में सर्वाधिक लूटपाट इन दोनों के परिवारों से की गयी।

 

सपनावत

1857 की क्रांति के पश्चात् अनेक ग्रामों को क्रांतिकारियों का साथ देने या क्रांति में संलग्न होने के कारण सरकार ने बागी घोषित कर दिया। उन गाँवों की जमीन-जायदाद छीन ली गई। इन बागी ग्रामों में सपनावत भी था। 1857 में यहाँ के किसानों ने मुकीमपुरगढ़ी और पितखुवा की तरह भू-राजस्व गाजियाबाद तहसील में जमा नहीं कराया। मालागढ के नवाब वलीदाद खाँ को भी सपनावत के ग्रामीणों से अत्यधिक सहयोग मिला था। नवाब वलीदाद खाँ गाजियाबाद तथा लोनी का निरीक्षण करके सपनावत में भी रूके थे। यहाँ के ग्रामीणों से इसके नजदीकी सम्बन्ध थे। इसी कारण सपनावत के निवासियों ने क्रांति के समय नवाब वलीदाद खाँ की सहायता की। इस ग्राम से कुछ दूर बाबूगढ़ में अंग्रेजी सेना की छावनी थी। गढ़मुक्तेश्वर से बाबूगढ़ आए बरेली ब्रिगेड के क्रांतिकारी सैनिकों की सहायता के लिए यहाँ के अनेक नौजवान वहाँ पहुँच गये। बाबूगढ़ में क्रांतिकारियों ने अत्यधिक लूटपाट की और दुकानों में आग लगा दी। विप्लव की असफलता के पश्चात् सपनावत गाँव को विप्लवकारी गतिविधियों में भाग लेने के कारण बागी घोषित कर दिया गया।

 

सीकरी खुर्द

सीकरी खुर्द गुर्जर बहुल गाँव है जो मोदीनगर से पूर्व दिशा में 1 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यहाँ के ग्रामीणों ने क्रांतिकारी सैनिकों की सहायता की तथा क्रांतिकारी गतिविधियों में महत्वपूर्ण भाग लिया था।

यहाँ देवी का एक प्राचीन एवं ऐतिहासिक मन्दिर है। ग्रामीणों में मान्यता है कि यहाँ जो भी माँगा जाता है, वह पूरा हो जाता है। नवरात्रों में यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि करीब 300 वर्ष पूर्व जालिमगिरि नाम के भक्त को देवी ने साक्षात् दर्शन दिये और यहाँ मन्दिर बनाने के लिए कहा था। इनके वंशज तब से यहाँ पूजा अर्चना करते आ रहे हैं।

मन्दिर परिसर में वट का वृक्ष है। किंवदन्ती है कि इस वृक्ष पर 1857 में प्रतिक्रांति के समय लगभग 100 क्रांतिकारियों को फाँसी दी गयी थी। मन्दिर में आने वाले श्रद्धालु इस वृक्ष के समक्ष नतमस्तक होकर शहीदों को श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं।

मेरठ के विप्लव की सूचना पाकर यहाँ के ग्रामीणों ने सरकार को मालगुजारी देनी बन्द कर दी। सीकरी के निकट बेगमाबाद कस्बा है। किंवदन्ती है कि क्रांति के समय सीकरी के ग्रामीणों के विरूद्ध यहाँ के जाटों ने ब्रितानियों के लिए मुखबरी की। परिणामतः सीकरी के गुर्जरों ने 8 जुलाई, 1857 को बेगमाबाद के अनेक ब्रिटिश समर्थकों की हत्या कर दी और लुटमार करके कस्बे में आग लगा दी। जब उस घटना की खबर मेरठ पहुँची तो क्रांतिकारियों के दमन के लिए ड़नलप के नेतृत्व में खाकी रिसाला सीकरी पहुँचा और उसने गाँव को चारों ओर से घेर लिया। 30 से अधिक व्यक्तियों को गाँव के बाहर ही मार दिया गया। किंवदन्ती है कि लगभग 130 व्यक्ति देवी के प्राचीन मन्दिर के भौरे (तहखाना) में छिप गये थे इनका पता लगने पर खाकी रिसाले ने इन्हे घेर लिया और भौरे से बाहर निकाला। इनमें से अधिकांश को फाँसी दे दी गयी और 30 लोगों को गोली मार दी गयी। इसके बाद गाँव में आग लगा दी गयी।

इस घटना के सम्बन्ध में एक किवंदन्ती भी चली आ रही है कि 1857 के समय सीकरी, लालकुर्ती मेरठ बूचड़ वालों की जमींदारी में आता था। उस समय सीकरी के मुकद्दम सिब्बा थे, जो गाँव से भू-राजस्व एकत्र कर मेरठ पहुंचाया करते थे। 1857 में यहाँ के ग्रामीणों ने जमींदार लालकुर्ती मेरठ को लगान देने से इन्कार कर दिया और क्रांतिकारियों की सहायता करने लगे।

भू-राजस्व भेजने के लिए जमींदार ने सीकरी खबर भेजी लेकिन मुकद्दम सिब्बा व अन्य ग्रामीणों ने कोई जवाब नहीं दिया। परिणामस्वरूप जमींदार लालकुर्ती ने स्वयं जाकर ग्रामीणों से बातचीत करनी चाही। उन्होंने अपने आदमी को भेजकर मुकद्दम सिब्बा के पास खबर भेजी कि वह उनसे मिलने आ रहे है। वह आदमी यह समाचार लेकर सीकरी पहुँचा और मुकद्दम सिब्बा को जमींदार के आने का समाचार सुनाया।

यह सुनकर सिब्बा ने उनसे कहा कि 'उस ब्रितानियों के पिट्ठु साले सूअर से कह देना कि वह यहाँ न आये।' यह सुनकर वह व्यक्ति वापिस मेरठ चला आया तथा उसने जमींदार से सच्चाई बताई कि मुकद्दम सिब्बा और ग्रामीण लगान देने में आनाकानी कर रहे हैं। तत्कालीन अशान्त वातावरण को देखते हुए जमींदार ने अपने क्रोध पर काबू रखा तथा दूसरे दिन सीकरी पहुँच गए। सीकरी पहुँचने के पश्चात् जमींदार ने सिब्बा को अपनी तरफ मिलाना चाहा। उन्होने उसे ब्रितानियों के पक्ष में करने के लिए और क्रांतिकारियों का साथ न देने के लिए कहा। परन्तु सिब्बा नहीं माने। तब उन्होने उसे लालच देते हुए कहा कि-

'मुकद्दम जितने इलाके की ओर तुम उँगली उठाओंगे मैं वो तुम्हें दे दूँगा तथा जो जमींन तुम्हारे पास है उसका लगान भी माफ कर दिया जायेगा।'

लेकिन सिब्बा ने जमींदार की बात नहीं मानी। अन्त में क्रोधिक होकर जमींदार ने सिब्बा सहित गाँव के सभी ग्रामीणों को भूमि से बेदखल कर दिया। सिब्बा के पास उस समय 1400 बीघा भूमि थी, जिसमें 500 बीघा भूमि सीकरी में तथा बाकी 900 बीघा भूमि दूसरे स्थान पर थी।

अब सीकरी के गुर्जरों ने खुलेआम क्रांतिकारियों का साथ देना शुरू कर दिया। निकटवर्ती गाँव बेगमाबाद के ग्रामीण यहाँ की गुप्त सूचनायें ब्रिटिश अधिकारियों को दे रहे थे। इसलिए सीकरी के गुर्जरों ने बेगमाबाद पर आक्रमण कर दिया। जब इसकी सूचना मेरठ पहुँची तो ब्रितानियों ने खाकी रिसाला बेगमाबाद की रक्षार्थ भेजा। उसने सीकरी को चारों ओर से घेर लिया।

जब खाकी रिसाले की आने की सूचना ग्रामीणों को मिली तो अधिकांश ग्रामीण गाँव में ऐतिहासिक मन्दिर के भौरे (तहखाने) में छिप गये तथा कुछ ग्रामीण वृक्षों पर चढ़ कर उनकी पत्तियों में छिप गये। खाकी रिसाल ने सीकरी पहुँचने के पश्चात् नरसंहार शुरू कर दिया और वृक्षों पर छिपे अनेक ग्रामीणों को गोली मार दी परन्तु भौंरे में छिपे व्यक्तियों की जानकारी खाकी रिसाले को नहीं मिल सकी। जब खाकी रिसाला सीकरी से वापिस जाने वाला ही था, तभी गाँव का एक व्यक्ति, जो ब्राह्मण था, खाकी रिसाले के पास आया। इसके पुत्र पेड़ों पर छिपे थे और सभी गोली का निशाना बन चुके थे। उसने खाकी रिसाले को रोककर कहा कि- 'मेरे वंश का निष्ठ हो गया और गाँव का कान तत्त भी नहीं हुआ।' अर्थात् मेरा सम्पूर्ण परिवार मारा जा चुका है तथा गाँव के व्यक्ति सुरक्षित है।

उस ब्राह्मण ने ही खाकमी रिसाले को ग्रामीणों के भौरे में छिपे होने की सूचना दी, तब सूचना पाकर रिसाले ने भौरे को घेर लिया और उसमें छिपे ग्रामीणों पर हमला बोल दिया। ग्रामीणों ने भी सामना किया। इस संघर्ष में अनेक क्रांतिकारी ग्रामीण मारे गये। भौरे में बचने वाले ग्रामीणों की संख्या लगभग 19 रही। इन हीजिवत बचने वाले 19 व्यक्तियों में मुकद्दम सिब्बा भी थे। जब सिब्बा के जीवित होने की सूचना ब्रितानियों को मिली तो उन्होंने पकड़ने की सोची। लेकिन वे कामयाब न हो सके। सिब्बा ने अन्य ग्रामीणों के कहने पर अपना नाम बदलकर हीरा रख लिया और सभी ग्रामीण उसे 'हीरा' कहकर पुकारने लगे। मुकद्दम सिब्बा उर्फ हीरा के वंशज आज भी गाँव में रह रहे हैं।

 

असौड़ा

1857 की क्रांति में मुगल सम्राट को आर्थिक सहायता देने वाले धनाढ़यों में जहाँ डासना परगना क्षेत्र के चौधरी नैन सिंह एव लाला मटोल चन्द के नाम स्पष्ट हैं वहीं शोध अध्ययन से असौड़ा रियासत के चौधरी हरदयाल सिंह त्यागी द्वारा भारी मात्रा में सम्राट की आर्थिक सहायता करने का पता भी चला है। यद्यपि यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं किया जा सका है कि कितना-कितना धन इन धनाढ्यों ने सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र को देश सेवा के लिए अर्पित किया था। कहते हैं कि मुग़ल बादशाह ने उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए चौधरी हरदयाल सिंह त्यागी को मौखिक रूप से राजा की उपाधि देकर सम्मानित किया था।

प्रतिक्रांति के दौरान चौधरी हरदयाल को ब्रितानियों ने हापुड़ में कैद कर लिया परन्तु ब्रितानियों को उनके बदले में अत्यधिक धन देकर उसी दिन छुड़ा लिया गया था और प्रतिक्रांति के दौरान उनके परिवार को किसी भयंकर समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। असौड़ा के चौधरी हरदयाल सिंह के परिवार के किसी भी सदस्य को न तो फाँसी दी गयी और न ही उन्हें ब्रितानियों ने कोई कड़ा दण्ड दिया। इसका कारण यह समझ में आता है कि चूँकि यह परिवार दिल्ली के शाही वंश के सैंकड़ों सालों से निकट से जुड़ा था और राजनैतिक रूप से अपेक्षाकृत अधिक जागरूक था। अतः दिल्ली के पतन और सम्राट बहादुरशाह की गिरफ्तारी से इस परिवार ने अपने ऊपर आने वाले विपत्ति के संकट को समय रहते समझ लिया होगा। यह इसलिए भी कहा जा सकता है कि खाकी रिसाले की भर्ती के समय तक चौधरी हरदयाल सिंह ब्रितानियों के प्रत्यक्ष विरोध की नीति से दूर रहे। इतना ही नहीं वरन् न तो उनके पुत्र चौधरी देवीसिंह को सम्राट द्वारा तथाकथित रूप से दी गई 'राजा' की उपाधि का कभी प्रयोग किया गया और न ही कभी इस तथाकथित उपाधि की जिक्र समसामयिक लेखों मे किया गया। साथ ही ब्रितानियों द्वारा सहायता माँगने पर चौधरी हरदयाल सिंह ने विल्सन की मदद भी की और रिसाले की भर्ती में उनकी सहायता पर ब्रितानियों ने उनका आभर भी माना। यही वह कारण श्रृंखला है जिसने असौड़ा के इस परिवार को प्रतिक्रांति के दौरान ब्रितानियों के दमनचक्र से बचाये रखा। परन्तु प्रतिक्रांति के दौरान असौड़ा गाँव में आग लगा दी गयी।

 

बड़ौत एवं निकटवर्ती क्षेत्र

मेरठ में विप्लव के प्रस्फूटन की सूचना मिलते ही बड़ौत एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्र के ग्रामीणों ने भी विदेशी शासन का विरोध करना शुरू कर दिया। इस क्षेत्र के साँवल उर्फ शाहमल ने 12 मई से 21 जुलाई, 1857 तक ब्रितानियों का कड़ा मुकाबला किया। शाहमल, बिजरौम गाँव के जाट परिवार से सम्बन्धित थे। उसने क्रांति से फैली अराजकता का लाभ उठाकर बड़ौत में 12 व 13 को अपने साथियों को लेकर बंजारे व्यापारियों के साथ लूटपाट की। इस लूटपाट में उसे काफी सम्पत्ति मिली। इसके बाद साँवल (शाहमल) ने बड़ौत तहसील और पुलिस चौकी पर हमला बोल दिया और वहाँ भी लूटपाट की।

कुछ समय पश्चात् उसने दिल्ली के क्रांतिकारियों को मदद देकर अपना प्रभाव बढ़ा लिया था। वह उन्हें खाने-पीने के सामान की आपूर्ति करता था। कहा जाता है कि दिल्ली में क्रांतिकारियों ने उसकी उपयोगिता और क्रांति के प्रति समर्पण भावना देखकर उसको सूबेदार बना दिया। साँवल (शाहमल) ने बिलोचपुरा गाँव के एक बलूची नवीबख्श के पुत्र अल्लादिया को अपना दूत नियुक्त करके दिल्ली भेजा ताकि ब्रितानियों के विरूद्ध लड़ने के लिए मदद व सैनिक मिल सकें। बागपत के थानेदार वजीर खाँ ने भी इसी उद्देश्य से सम्राट बहादूर शाह को अर्जी भेजी। बागपत के नूर खाँ के पुत्र मेहताब खाँ का भी दिल्ली के क्रांतिकारियों से सम्पर्क बना हुआ था। उसने दिल्ली के क्रांतिकारी नेताओं से साँवल का परिचय कराते हुए कहा कि वह उनके लिए बहुत सहायक हो सकता है। कालान्तर में ऐसा ही हुआ। साँवल ने न केवल ब्रितानियों के संचार साधनों को ठप्प कर दिया बल्कि इस क्षेत्र को दिल्ली के लिए आपूर्ति क्षेत्र में बदल दिया।

विप्लव कै दौरान साँवल, बड़ौत के समीपवर्ती इलाके में प्रसिद्ध हो गए और शाहमल के नाम से जाने जाने लगे थे।

हरचन्दपुर, ननवा काजिम, नानूहन, बिजरौल, जौहड़ी, बिजवाड़ा, पूठ, धनौरा, बढ़ेरा, पोइस, गुराना, नंगला, गुलाब बड़ौली, सन्तोखपुर, हिलवाड़ी, औसख, नादिर असलत और असलत खुर्मास आदि गाँवों के ग्रामीणों ने ब्रितानियों की विरूद्ध साँवल (शाहमल) की मददी की। बसोद गाँव में शाहमल ने दिल्ली के क्रांतिकारियों के लिए 8000 मन गेहूँ व दाल का भण्डार एकत्रित कर रखा था। शाहमल इस गाँव में ठहरा हुआ था। परन्तु ब्रिटिश सेना के पहुँचते ही वह बचकर निकल गया। ब्रिटिश सैनिकों ने गाँव वालों को बाहर आने के लिए मजूबर कर दिया परन्तु दिल्ली से आये दो गाजी एक मस्जिद में मोर्चा लगाकर लड़ते रहे और ब्रितानियों की योजना सफल नहीं हो सकी। साँवल (शाहमल) ने यमुना नहर पर स्थित सिंचाई विभाग के एक अधिकारी के बँगले को अपना मुख्यालय बनाया हुआ था।

उसने मेरठ के पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भाग की प्रशसनिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त कर दी। एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी ने लिखा है कि- 'एक जाट (शाहमल) ने जो बड़ौत परगने का गर्वनर हो गए थे और जिन्होंने राजा की पदवी धारण कर ली थी, तीन-चार परगनों पर नियन्त्रण कर लिया। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली गैरीसन इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।'

बसौद के जाटों और बिचपुरी के गूजरों ने भी शाहमल के नेतृत्व में क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भाग लिया। अम्हैड़ा गाँव के गूजरों ने बड़ौत और बागपत की लूट तथा एक महत्वपूर्ण पुल को नष्ट करने में हिस्सा लिया। जहाँ सिसरौला के जाटों ने शाहमल के सहयोगी सूरजमल की मदद की तो वहीं एक सफेद दाढ़ीवाले सिख ने क्रांतिकारी किसानों का नेतृत्व किया।

जुलाई, 1857 में शाहमल को पकड़ने के लिए खाकी रिसाला भेजा गया। शाहमल ने क्रांतिकारी ग्रामीणों के साथ उसका मुकाबला किया। बड़ौत के दक्षिण में एक बाग में खाकी रिसाला और शाहमल एवं अन्य क्रांतिकारियों में आसने-सामने घमासान संघर्ष हुआ जिसमें शाहमल शहादत को प्राप्त हुए। 21 जुलाई, 1857 को तार द्वारा ब्रिटिश उच्चाधिकारियों को सूचना दी गई थी कि मेरठ से आए खाकी रिसाले के विरूद्ध लड़ते हुए शाहमल अपने अनेक साथियों सहित मारे गए। शाहमल का सिर काट लिया गया और सार्वजनिक रूप से इसकी प्रदर्शनी की गयी।

23 अगस्त, 1857 को शाहमल के पौत्र लिज्जामल ने बड़ौत क्षेत्र में पुनः ब्रितानियों के विरूद्ध क्रांति की शुरूआत की। ब्रितानियों ने लिज्जामल और उनके समर्थकों को कुचलने के लिए खाकी रिसाला भेजा। खाकी रिसाले ने पाँचली, नंगला और फुपरा में कार्यवाही करते हुए लिज्जामल को बन्दी बना लिया। लिज्जामल को उसके 32 साथियों के साथ फाँसी दे दी गयी।

 

बाघू निरोजपुर

बाघू निरोजपुर गाँव के ग्रामीणों ने क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। यहाँ के ग्रामीणों का नेतृत्व अचलू गुर्जर ने किया। अचलू अपने व्यक्तित्व एवं व्यवहारकुशलता के कारण बाघू निरोजपुर एवं निकटवर्ती क्षेत्र में अत्यधिक लोकप्रिय थे। इसी कारण इस क्षेत्र के व्यक्ति उन्हें दादा अचलू के नाम से पुकारते थे। अचूल के आह्वान पर ग्रामीणों ने क्रांति में भाग लिया और क्रांतिकारी सैनिकों की भी मदद की। उनके बिजरौल के साँवल (शाहमल) से भी घनिष्ठ सम्बन्ध थे उन्होंने शाहमल के साथ क्रांति को सफल बनाने के लिए अनेक क्रांतिकारी गुप्त सभाओं का आयोजन किया था।

क्रांति को सफल बनाने के लिए एक बार अचूल और शाहमल क्रांतिकारी सभा को सम्बोधित कर रहे थे। इस गुप्त सभा की सूचना एक मुखबिर ने पुलिस को दे दी। शीघ्र ही अचूल व शाहमल का दमन करने के लिए खाकी रिसाला भेजा गया। इसमें 40 राइफलधारी स्वयंसेवक थे। खाकी रिसाला के द्वारा क्रांतिकारियों को घेर लिया गया। यद्यपि दोनों के मध्य भयंकर संघर्ष हुआ परन्तु क्रांतिकारियों को पीछे हटने के लिए मजूबर होना पड़ा। शाहमल यहाँ से निकलने में सफल हुए परन्तु अचलू को पकड़ लिया गया। उन्हेंे क्रांति में भाग लेने और आम जनता को भड़काने के आरोप में तोप के मुँह पर बाँधकर उड़ा दिया गया और उनकी जायदाद जब्त कर ली गयी। अचूल के परिवार की 1800 बीघा जमीन मुखबिरी करने के एवज़ में दुल्ले गूजर को दे दी गयी एसा बताया जाता है।

 

बझौट

यह ग्राम मेरठ-हापुड़ मार्ग तथा मेरठ-दिल्ली मार्ग को जोड़ने वाले बाईपास से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर बसा है। इस ग्राम में भारद्वाज गोत्रीय त्यागी-ब्राह्मण जाति के लोग निवास करते हैं।

बझौट ग्राम एक ऊँचे टीले पर अवस्थित है। अनुश्रतियों में इस गाँव का सम्बन्ध रामायणकालीन मुनि वशिष्ठ से माना गया है। यहाँ के व्यक्तियों का विश्वास है कि इसका नाम वशिष्ठ के नाम पर पहले बशोठ हुआ जो कालान्तर में बझौट पड़ गया। सन् 1857 में मेरठ के क्रांति होने के कुछ समय पश्चात् इस गाँव के ग्रामीणों ने उसमे अपनी सकारात्मक भूमिका निभायी। परन्तु जब क्रांति असफल हो गयी तथा प्रतिक्रांति का दौर चला तब अन्य ग्रामों के साथ-साथ इस ग्राम को भी ब्रितानियों ने नष्ट करने का प्रयास किया। ब्रिटिश सेना ने मारू बाजा बजाते हुए गाँव को घेर लिया और ब्रिटिश अफसर ने कुएँ पर पानी भरकर स्नान करते हुए एक व्यक्ति को गोली मारकर पूरे गाँव में कत्लेआम करने तथा आग लगाने का आदेश दिया। तभी इस गाँव के कुछ बुजुर्गों ने बड़े धैर्य से काम लेते हुए उस ब्रिटिश अफसर से कहा कि-

'क्योंकि हमारे गाँव के लोगों ने गदर में किसी प्रकार भी भाग नही लिया, इसलिए गदर करने वालों ने हमारी गाँव को लूट लिया है, आप सारे गाँव की तलाशी ले लें। यदि हमारे गाँव के किसी भी घर में एक भी हथियार मिल जाए तो जो चाहे सजा दें। हम लोगों के हथियार और घोड़े एवं घोड़ियाँ गदरवाले जबरदस्ती लूट कर ले गये। गदरवालों ने कहा था कि या तो हमारे साथ गदर में शरीक हो जाओ या अपना सार धन, जेवर, हथियार और घोड़े एवं घोड़ियाँ चुपचाप हमें ले जाने दे। हमारे मना करने पर उन्होंने हमारे साथ बदसलूकी भी की और हमारे गाँव को घेरकर जबरदस्ती ये सारी चीजें छीन लीं। आप अपने लोगों से हमारे गाँव की तलाशी करके खुद ही इस बात का अंदाजा लगा लें।'

वस्तुतः इस गाँव के व्यक्तियों ने क्रांति के असफल होते ही भविष्य में होने वाले अत्याचार का आभास कर लिया था, इसलिए उन्होंने गाँव के पूर्वोत्तर दिशा के एक खेत में स्थित पुराने कुएँ में सारे गाँव के तमाम हथियार भरकर उसमें मिट्टी डालकर ऊपर से पाट दिया था और गाँव के घोड़े व घोड़ियों को जंगल में छुड़वा दिया था। अतः जब ब्रिटिश अफसर ने तलाशी ली तो उसे ये सारी चीजें बरामद न हो सकीं और उसने सोचा कि सम्भव है इस ग्राम को गदर वालों ने लूटा हो। ब्रितानियों ने गाँव वालों की बात को सही समझा और बिना अधिक कहर बरपाये ब्रिटिश सेना वहाँ से चली आयी।

 

बराल

बुलन्दशहर जिले में अवस्थित ग्राम बराल में एक समाधि को 'देवता के थान' (स्थान) के नाम से जाना जाता है। यहाँ के ग्रामीण इस समाधि पर दीप प्रज्वलित करके नतमस्तक होकर प्रसाद चढ़ाते हैं। उनकी मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति यहाँ आकर मस्तक झुकायेगा, उसकी सभी मुरादें पुरी हो जायेगीं।

वस्तुतः यह समाधि किसी साधु-संन्यासी की न होकर 1857 में शहीद हुए क्रांतिकारी मेहताब सिंह की है। मेहताब सिंह ने ब्रिटिश शासन का विरोध करते हुए क्रांति में भाग लिया था। वे बराल ग्राम के राजपूत परिवार से सम्बन्धित थे। मेरठ में घटित 10 मई की घटना की सूचना बराल, गुलावठी, मालागढ़ एवं बुलन्दशहर क्षेत्र में फैल गयी। इन क्षेत्रों के हजारों क्रांतिकारी ग्रामीण बराल में एकत्रित हो गये। यहाँ एक क्रांतिकारी सभा का आयोजन किया गया। बराल ग्राम में हुई इस विशाल क्रांतिकारियों की सभा का संचालन मेहताब सिंह ने किया। तत्कालीन ब्रिटिश दस्तावेजों में लिखा है कि-'20 हजार लोगों का झुण्ड राजपूत मेहताब के नेतृत्व में संगठित हो गया था।' उन क्रांतिकारियों को तितर-बितर करने के लिए बुलन्दशहर से टर्नबुल के नेतृत्व में एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी बराल ग्राम में पहुँची। इस सैनिक टुकड़ी का ग्रामीण क्रांतिकारियों ने सामना किया। भयंकर संघर्ष में सैकड़ों ग्रामीण मारे गये। इस संघर्ष में अहीर चौबीसी (यादवों के चौबीस ग्राम) के ग्रामीण भी मेहताब के पक्ष में लड़े थे। मेहताब सिंह इस संघर्ष में शहीद हो गए।

बराल में हुई क्रांतिकारी ग्रामीणों की सभा कराने में बुलन्दशहर के जिला मजिस्ट्रेट सैप्ट ने मालागढ़ के नवाब वलीदाद पर आरोप लगाया कि यह सभा उनके संकेत पर हुई है।

मेहताब सिंह की मृत्युपरान्त क्रांतिकारियों ने बुलन्दशहर में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों में तेजी कर दी और ब्रितानियों को बुलन्दशहर से मेरठ भागने के लिए मजूबर कर दिया। मेरठ जाते समय रास्ते में उन पर ग्रामीणों द्वारा गोलियाँ बरसायी गयीं। मि. सैप्ट ने कुछ समय उपरान्त अपनी रिपोर्ट में लिखा भी था कि 'जब हम मेरठ के लिए रवाना हुए तो मार्ग में सड़क के निकवर्टी ग्रामों से हम पर गोलियाँ दागी जा रही थी।' प्रतिक्रांति के दौरान बराल गाँवं को बागी घोषित कर दिया गया।

मेहताब सिंह देश के लिए शहीद हो गए परन्तु उनकी शहादत को आज भी बराल के व्यक्ति याद करते हैं और उनकी समाधि पर दीप जलाकर नतमस्तक होकर प्रसाद चढ़ाते हैं।

 

बसौद

1857 में बसौद के ग्रामीणो ने शाहमल के साथ गुप्त समझौता किया। शाहमल की सहायतार्थ इन्होने अनाज एकत्रित किया। क्रांतिकारी ग्रामीणों के दमन के लिए डॉ. केनन की अगुआई में खाकी रिसाला मसौद पहुँचा। वहाँ क्रांतिकारियों के लिए जो अनाज ग्रामीणों ने एकत्रित किया था, खाकी रिसाले ने उसे जला दिया। जब यह दल वापिस जा रहा था तो खासी रिसाले पर साँवल के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने हमला कर दिया, परन्तु शीघ्र ही रिसाले ने क्रांतिकारियों को भागने पर विवश कर दिया। इस संघर्ष में अनेक क्रांतिकारी ग्रामीण शहीद हुए। मि. विलियम्स इस सम्बन्ध में लिखते है कि 'पूर्वी नहर के आस-पास वातावरण काफी गर्म था। जहाँ भी वह लगान वसूल करने गया वहीं पर उसे विरोध का सामना करना पड़ा। वह केवल अपनी सुरक्षा करके ही वापिस लौट आए।'

शाहमल चारों ओर के ग्रामीणों को एकत्रित करके क्रांतिकारी गुप्त सभाओं का आयोजन करने में लगे थे। क्रांति को सफल बनाने के लिए एक बार शाहमल और गुर्जर क्रांतिकारी सभा का आयोजन कर रहे थे। इसकी खबर ब्रितानियों को दुल्ले सिंह, बड़ौत निवासी ने दे दी। खाकी रिसाला ने शीघ्र ही क्रांतिकारियों को चारों ओर से घेर लिया। उस समय शाहमल व अचूल दोनों साथ थे। शाहमल वहाँ से भाग निकलने में सफल हुए परन्तु अचूल पकडे गए। ब्रितानियों ने उन्हेंे तोप के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया। अचलू की 1800 बीघा जमीन दुल्ले सिंह गुर्जर को दे दी गई क्योंकि उन्होंने ब्रितानियों की मुखबरी की थी।

 

भदौला

1857 की क्रांति में भदौला के ग्रामीणों ने भी क्रांतिकारियों का साथ दिया। भदौला ग्राम हापुड़ तहसील के अन्तर्गत आता है। यह गुर्जर बहुल ग्राम है। 1857 में कन्हैया सिंह गुर्जर तथा फूल सिंह गुर्जर के नेतृत्व में यहाँ के ग्रामीणों ने ब्रितानियों का विरोध किया। कहा जाता है कि यहाँ ब्रितानियों को अत्यधिक परेशान किया गया तथा क्रांतिकारियों ने अनेक ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया। परिणामतः यहाँ के विप्लव का दमन करने के लिए ब्रितानियों ने सैनिक टुकड़ी को भेजा गया।

ग्रामीणों को पहले ही इसकी जानकारी मिल गयी थी। उन्होंने ब्रिटिश सेना का सामना करने की योजना बनायी परन्तु भयंकर संघर्ष के पश्चात् उन्हें पीछे हटने के लिए मजूबर होना पड़ा। अनेक क्रांतिकारी ग्रामीणों का कत्ल किया गया। भदौला गाँव को बागी गाँव घोषित करके सम्पूर्ण जायदाद जब्त कर ली गयी। इस विषय में सरकारी दस्तावेज में लिखा है कि-'बाबत, बगावत जायदाद जब्त की जाती है, जिसकी मालगुजारी की जिम्मेदार सरकार की होगी।' ब्रितानियों की सुनिश्चित कार्यवाही के पश्चात् ही भदौला गाँव के विप्लव का दमन हो सका।

 

धौलाना

गाजियाबाद जनपद में अवस्थित धौलाना में मेवाड़ के गहलोत (राणा प्रताप के वंशज) सिसौदिया राजपूतों की प्रधानता है। मेवाड़ से ये राजपूत दिल्ली आये और कालान्तर में धौलाना तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में आ बसे। गहलौत राजपूतों के यहाँ साठ गाँव है इसलिए इन्हें 'साठा' कहा जाता है। 1857 मे यहाँ के ग्रामीणों ने भी क्रांति में भागीदारी की। परिणामतः ब्रितानियों ने तेरह राजपूत ग्रामीणों और एक अग्रवाल बनिये लाला झनकूमल को गाँव में ही फाँसी दे दी गयी।

इस घटना के सम्बन्ध में धौलाना निवासी श्री मेघनाथ सिंह सिसौदिया (पूर्व विधायक) ने '1857 में ब्रितानियों के खिलाफ जनता व काली पल्टन द्वारा साठे में (गहलौत राजपूतों के साठ ग्रामों में) लड़ा गया प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (गदर) का आरम्भिक सच्चा वर्णन' शीर्षक के एक गुलाबी रंग का पैम्पलेट जारी किया। इसमें घटना का वर्णन इस प्रकार किया है-

"10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में ब्रिटिश पल्टन के अफसरों ने हिन्दुस्तान पल्टन को चर्बी लगे कारतूसों को दाँतों से खीचने के लिए मजबूर किया जिसे मेरठ छावनी के उन सैनिकों (काली पल्टन) ने इस आदेश को नहीं माना और बगावत कर दी। मेरठ से उन्होंने दिल्ली के लिए कूच किया और नयी खुदी हुई गंग नहर के किनारे-किनारे पैदल चल दिये और शाम होने तक देहरा, डासना व धौला के पास-पड़ोस गाँवों में जाकर रुक गये। अगले दिन प्रातःकाल को सब धौलाना के चौधरी के यहाँ इकट्ठे हो गये और धौलाना की गलियों में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध 'हर-हर महादेव' के नारे लगाने शुरू कर दिये, थोड़ी ही देर में धौलाना ग्राम तथा आस-पास के हजारों युवक इकट्ठा हो गये और सब ने तय किया कि पहले सरकारी थाने को लूटा जाये तथा प्रत्येक सरकारी चीज जलायी जाये।

11 मई, 1857 को इस साठा क्षेत्र के राजपूतों का खून क्रांति के लिए खौल उठा। दोपहर से पहले ही धौलाना व पास-पड़ोस के हजारों युवक ब्रिटिश सरकार के खिलाफ वीरतापूर्वक नारे लगाते हुए तथा ढोल, शंख, घड़ियाल बजाते हुए धौलाना की गलियों में घूमने लगे और हर-हर महादेव के नारे लगाने लगे। इससे भयभीत होकर धौलाना थाने के दरोगा व सिपाही थाने को छोड़कर भाग गये, इन क्रांतिकारियों ने मेरठ की काली पल्टन के सैनिकों के साथ मिलकर थाने में आग लगा दी तथा सभी सरकारी कागजात फूँक डाले। तत्पश्चात् ठाकुर
झनूक की अध्यक्षता में यह जत्था दिल्ली कूच कर गया। रास्ते में क्रांतिकारियों ने रसूलपुर, प्यावली के किसानों को अपने साथ चलने के लिए प्रेरित किया। रोटी मांगते हुए और रोटी बाँटते हुए वे दिल्ली की ओर चले दिये और 12 मई को प्रातः काल दिल्ली पहुँच गये। वहाँ 12 मई को धौलाना के राणा झनूक सिंह शिशौदिया ने दिल्ली के हजारों लोगों के समाने ब्रितानियों की गुलामी का चिन्ह यूनियन जैक को जलाल किले पर टंगा हुआ था, ऊपर चढ़कर फाड़कर उसके स्थान पर अपनी केशरिया पगड़ी टांग दी और इस प्रकार दिल्ली के लाल किले पर केशरिया झण्डा फहरा दिया।

ब्रितानियों ने दिल्ली पर पुनः अधिकार करने के पश्चात् ठाकुर झनकू सिंह की खोजबीन की परन्तु उनका कहीं भी पत्ता नहीं चला। पूरब में उनकी रिश्तेदारी से सूचना प्राप्त हुई कि वह कमोना के बागी नवाब दूंदे खाँ के पासे है। दूंदे खाँ के पकड़े जाने पर ठाकुर झनकू सिंह, पेशवा नाना साहब के साथ नेपाल चले गये। साठा के क्षेत्र में धौलाना की जमींदारी मालगुजारी जमा न करने के अपराध में छीन ली...परिणाम यह निकला कि धौलाना के 14 क्रांतिकारियों ठाकुर झनकू सिंह को छोड़कर 13 राजपूत गहलौत क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया। पकड़े जाने पर इनके परिवार के स्त्री-पुरूष तथा ग्रामवासियों को इकट्ठा करके सबके सामने धौलाना में पैंठ के चबूतरे पर खड़े दो पीपल के पेड़ों पर 29 नवम्बर, 1857 को फाँसी दे दी गयी। उनके घरों में आग लदा दी गयी तथा परिवार के सदस्यों को रोने भी नहीं दिया गया। उनकी पत्नीयों की चूड़ी भी नहीं तोड़ने दी गयी। उनकी लाशों पर थूकने एवं हँसने का आदेश भी दिया गया। अत्याचार की सीमा उस समय पार हो गयी जब ठाकुर झनकू सिंह के न पकड़े जाने पर उनके नाम के लाला झनकूमल को नाम की समानता के आधार पर पकड़ कर फाँसी दे दी गयी। इसके बाद पास में ही एक बड़े गहरे खुदे हुए गड्ढे में इन वीर राजपूत क्रांतिकारियों की लाशों के साथ एक-एक जीवित कुत्ता बँधवा दिया गया और फिर ये सारी लाशें उस गड्ढे में डलवा दी गयी और गड्ढे को पटवा दिया गया।"

श्री मेघनाथ सिंह के अनुसार फाँसी लगने वाले के अनुसार फाँसी लगने वाले क्रांतिकारियों के नाम इस प्राकर है- 1. लाल झनकूमल 2. वजीर सिंह चौहान 3. साहब सिंह गहलौत 4. सुमेर सिंह गहलौत 5. किड्ढा गहलौत, 6. चन्दन सिंह गहलौत 7. मक्खन सिंह गहलौत 8. जिया सिंह गहलौत 9. दौलत सिंह गहलौत 10. जीराज सिंह गहलौत 11. दुर्गा सिंह गहलौत 12. मुसाहब सिंह गहलौत 13. दलेल सिंह गहलौत 14. महाराज सिंह गहलौत।

यद्यपि श्री मेघनाथ सिंह जी ने धौलाना में 1857 की घटना के अनेक बिन्दुओं को उजागर किया है। परन्तु उनकी सत्यता सन्देहजनक है। श्री मेघनाथ सिंह जी स्वयं गहलौत राजपूत परिवार से सम्बन्धित है इसलिए उनके वर्णन में अनेक जगह जाति प्रवाह की झलक दिखायी देती है।

उनका यह सत्यापित करना कि नयी खुदी हुई गंग नहर की पटरी पर पैदल चलकर मेरठ के क्रांतिकारी सैनिकों का धौलाना क्षेत्र से होकर जाना भी सन्देहजनक लगता है, क्योंकि मेरठ में देसी सैनिक क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम देकर मेरठ से रिठानी होते हुए भूड़बराल में शेरशाह सूरि के शासनकाल में निर्मित सराय के सामने से गुजकर क्रमशः बिसोखर, बेगमाबाद, कुम्हेड़ा, फर्रूखनगर (लोनी) होते हुए यमुना पार करके 11 मई की प्रातः दिल्ली पहुँचे। मेरठ से दिल्ली का यह मार्ग बादशाह रास्ता कहलाता था। जबकि धौलाना बादशाही रास्ते से अलग हटकर है। अतः मेरठ के क्रांतिकारी सैनिकों का दिल्ली जाते समय इस क्षेत्र से होकर जाना पूर्णतया सत्य दिखायी नहीं देता।

 

उनका यह कहना कि 11 मई को धौलाना में क्रांति का प्रस्फूटन और इसी दिन ग्राम में स्थिति पुलिस थाने को क्रांतिकारी ग्रामीणों द्वारा जलाया जाना भी असंगत प्रतीत होता है क्योंकि मेरठ में क्रांति के प्रस्फूटन तक यह क्षेत्र पूर्णतया शान्त ही था। यद्यपि 'गौ-माता' की हत्या के कारण यहाँ ग्रामीणों में अपने धर्म के प्रति डर का माहौल बना हुआ था परन्तु मेरठ से क्रांति की शुरूआत होते ही यहाँ क्रांति प्रस्फूटित नहीं हुई थी। अनुसंधान से इस बिन्दु को बल प्राप्त होता है कि बादशाह बहादुरशाह को मेरठ के क्रांतिकारी सैनिकों द्वारा देश का सम्राट घोषित करने तक यहाँ शान्ति बनी रही। उस समय संचार के माध्यम भी विकसित नहीं थे जिससे मेरठ की क्रांति की उसी समय सूचना धौलाना के ग्रामीणों को मिल जाती। अतः 11मई को ही धौलाना में क्रांति का प्रस्फूटन साक्ष्य संगत प्रतीत नहीं दिखायी देता।

ठाकुर झनकू के द्वारा 12 मई को लाल किले पर यूनियन जैक से स्थान पर केसरिया झण्डा फहराना भी सर्वथा अनैतिहासिक है। क्योंकि यदि यह घटना घटित हुई होती तो ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होती तथा समकालीन इतिहासकार इसका वर्णन अवश्य करते, परन्तु किसी भी इतिहासकार ने इस घटना का कहीं भी वर्णन नहीं किया। ब्रितानियों द्वारा केवल नाम की समानता पर लाला झनकू को पकड़कर फाँसी देना पुनः सन्देहजनक दिखायी पडता है।

वस्तुतः 1857 की क्रांति के दौरान धौलाना में ईद के मौके पर एक गाय काट दी गयी थी। जिसे यहाँ के ग्रामीणों ने ब्रितानियों का षड्यंत्र माना तथा अपने धर्म पर आघात होना माना। इस घटना से यहाँ धार्मिक दहशत का वातावरण बना हुआ था। मेरठ में 10 मई की घटना की खबर शीघ्र ही आसापस के क्षेत्रों में फैलने लगी थी। क्रांति की सूचना मिलने पर धोलाना के ग्रामीण भी उत्तेजित हो गये। उस उत्तेजित वातावरण में ग्रामीणों ने 'मारो फिरंगी को' के नारे लगाये और वे ग्राम में स्थित पुलिस थाने की दिशा में चल पड़े, जहाँ उन्होंने उसमें आग लगा दी। थानेदार मुबाकर अली मुश्किल से जान बचाकर भागने में सफल हुए और वह निकटवर्ती गाँव ककराना में दिन भर गोबर के बिटोरो में छिपे रहे। रात में वह वहाँ से निकलकर मेरठ पहुँचे तथा उच्च अधिकारियों को धौलाना की स्थिति से अवगत कराया।

कुछ समय पश्चात् डनलप के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना की टुकड़ी धौलाना पहुँच गयी और थानेदार की रिपोर्ट के आधार पर 13 राजपूतों तथा एक अग्रवाल बनिया लाला झनकूमल को गिरफ्तार करके डनलप के सामने लाया गया। क्रांतिकारियों ने बनिये झनकूमल को देखकर उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि- "राजपूतों ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध विद्रोह किया यह बात समझ में आती है किन्तु तुमने महाजान होकर, इन विद्रोहियों का साथ दिया, यह बात समझ में नहीं आती। तुम्हारा नाम इनके साथ कैसा आ गया?" लाल झनकू ने जवाब दिया कि "इस क्षेत्र में जब से आपके व्यक्तियों ने मुसलमानों के साथ मिलकर गौ-हत्या करायी तब से मेरे हृदय में गुस्सा पनप रहा था। मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ साब, किन्तु अपने धर्म का अपमान, गौ-माता की हत्या सहन नहीं कर सकता।"

मि. डनलप ने इन 14 क्रांतिकारी ग्रामीणों को फाँसी लगाने का आदेश दिया। परिणामतः गाँव में ही चौपाल पर खड़े दो पीपल के वृक्षों पर उन्हें फाँसी दे दी गयी।

इस क्षेत्र के व्यक्तियों को आतंकित करने तथा आने वाले समय में फिर इस प्रकार की घटना की पुनरावृत्ति न हो यह दिखाने के लिए चौदह कुत्तों को मारकर इन ग्रामीणों के शवों के साथ दफना दिया गया। धौलाना गाँव को बागी घोषित कर दिया तथा ग्रामीणों की सम्पत्ति जब्त करके वफादार गाँव सौलाना के निवासियों को दे दी गयी। पुलिस स्थाने को पिलखुवा स्थानान्तरित कर दिया गया। गाँव में एक ब्रिटिश सैन्य टुकड़ी नियुक्त की गयी जो काफी दिनों तक धौलाना में मार्च करती रही।

इस समस्त कार्यवाही के पश्चात् यहाँ लगान वसूली होने लगी। धौलाना में मारे गये 14 शहीदों के नाम इस प्रकार है- 1. साहब 2. वजीर 3. सुमेर 4. किट्ठा 5. चन्दन 6 मक्खन 7. जिया 8. दौलत 9. जीराज 10. दुर्गा 11. मसाहब 12. दलेल 13. महाराज 14. लाला झनकू

इनमें साहब तथा जिया सगे भाई थे। सन् 1957 में श्री मेघनाथ सिंह सिसौदिया जी ने ठाकुर मानसिंह को साथ लेकर इस स्थान पर शहीद स्मारक बनवाया जो आज भी इन क्रांतिकारी ग्रामीणों की शहादत की याद दिला रहा है।

 

घाट पाँचली, गंगोल एवं निकटवर्ती गाँव

मेरठ जिले में अवस्थित गाँव घाट पाँचली गुर्जर बहुल है। ऐसी मान्यता है कि धन्नासिंह उर्फ धनसिंह कोतवाल इस गाँव के किसान परिवार से सम्बन्धित थे। मेरठ में 10 मई की संध्या को जैसे ही क्रांति का प्रस्फूटन हुआ धन्ना सिंह ने परोक्षतः किन्तु सक्रिय रूप से उसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। 10 मई, 1857 को मेरठ में क्रांतिकारी सैनिकों के साथ पुलिस ने भी ब्रितानियों के खिलाफ क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम दिया।

यद्यपि विप्लव का प्रस्फुटन 10 मई को सायंकाल 5 व 6 बजे के मध्य हुआ था परन्तु दोपहर से ही विप्लव की अफवाह मेरठ तथा निकटवर्ती गाँवों में फैलनी शुरूहो गयी थी और मेरठ के पास के गाँवों के ग्रामीण मेरठ की सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा होने लगे थे। इन गाँवों मे घाट पाँचली, गंगोल, नंगला इत्यादि प्रमुख थे। सदर कोतवाली में उस दिन धन्ना सिंह कार्यवाहक प्रभाती के पद पर कार्यरत थे। व्यक्तित्व, पुलिस विभाग में उच्च पर कार्यरत एवं स्थानीय होने के कारण क्रांतिकारी ग्रामीणों का उनको जल्दी ही विश्वास प्राप्त हो गया।

उन्होंने 10 मई, 1857 को मेरठ की क्रांतिकारी जनता का नेतृत्व किया। इस क्रांतिकारी भीड़ ने रात्रि में दो बजे मेरठ जेल पर हमला कर दिया और जेल तोड़कर 839 कैदियों को छुड़ा कर जेल में आग लगा दी। जेल से छुड़ाये हुए अनेक कैदी भी क्रांति में शामिल हो गये। इससे पहले की पुलिस नेतृत्व में क्रांतिकारी जनता ने मेरठ शहर व कैन्ट क्षेत्र में विप्लवकारी घटनाओं को अंजाम देना शुरू कर दिया था।

क्रांति के दमन के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने 10 मई, 1857 को मेरठ में हुई विप्लवकारी घटनाओं में पुलिस की भूमिका की जांच के लिए मेजर विलियम्स की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। मेजर विलियम्स ने उस दिन की घटनाओं का विभिन्न गवाहियों के आधार पर गहन अध्ययन किया और इस सम्बन्ध में एक स्मरण पत्र तैयार किया। उसका माना था कि यदि धनसिंह ने अपनी ड्युटी ठीक प्रकार से निभाई होती तो सम्भवतः मेरठ में जनता को भड़कने से रोका जा सकता था। एक गवाही के अनुसार क्रांतिकारियों ने कहा कि धनसिंह ने उन्हें स्वयं आसपास के गाँव से बुलवाया था।

नवम्बर, 1858 में विलियम्स ने विप्लव से सम्बन्धित एक रिपोर्ट नोर्थ वैस्टर्न प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रेदश) सरकार के सचिव को भेजी। इस रिपोर्ट में मेट छावनी से सैनिक विप्लव का मुख्य कारण चर्बी वाले कारतूस और हड्‌डियों के चूर्ण वाले आटे की अफवाह को माना गया। इस रिपोर्ट में अयोध्या से आये एक साधु की संदिग्ध गतिविधियों की ओर भी इशारा किया गया। यह माना गया कि विद्रोही सैनिक, मेरठ की पुलिस व जनता तथा निकटवर्ती गाँवों के ग्रामीण इस साधु के सम्पर्क में थे। मेजर विलियम्स को दी गयी एक गवाही के अनुसार धनसिंह स्वयं उस साधु से उसके सूरजकुण्ड ठिकाने पर मिले थे।

यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता है कि यह मुलाकात सरकारी थी अथवा नहीं, परन्तु दोनों में सम्पर्क था, इसे इन्कार नहीं किया जा सकता। इस रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि-

10 मई को जिस समय सैनिकों ने विद्रोह किया, ठीक उसी समय सदर बाजार में पहले से एकत्र भीड़ ने भी विप्लकारी गतिविधियाँ शुरू कर दीं। उस दिन कई स्थानों पर सिपाहियों पर क्रांतिकारी भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया।

1857 के विप्लव से पूर्व एक अन्य घटना भी घटित हुई थी जिसके कारण धन्नासिंह तथा पाँचली के ग्रामीण ब्रितानियों से धृणा करने लगे थे। इस घटना से सम्बन्धित किंवदन्ती चली आ रही है कि--

अपैल के महीने में किसान गेहूँ की पकी हुई फसल को उठाने के लिए खेतों में काम कर रहे थे। एक दिन दोपरह के समय दो ब्रिटिश तथा एक मेम गाँव पाँचली के निकट एक आम के बाग में आराम करने के लिए रूक गये। इसी बाग के समीप पाँचली के तीन किसान जिनके नाम मंगत, नरपत और झज्जड़ थे, अपने खेतों में कृषि कार्य कर रहे थे। आराम करते हुए ब्रितानियों ने इन ग्रामीणों को देखकर पानी पिलाने के लिए कहा। किसी कारणवश इन किसानों की ब्रितानियों से कहा-सुनी हो गयी। उन ग्रामीणों ने एक ब्रिटिश तथा मेम को पकड़ लिया जबकि दूसरा ब्रिटिश वहाँ से भागने में सफल रहा। कहा जाता है उन तीनों ग्रामीणों ने उस ब्रिटिश के हाथ-पैर बाँधकर गर्म रेत में डाल दिया और मेम से जबरन दाँय हँकवायी। कुछ समय पश्चात् भागा हुआ ब्रिटिश कुछ सिपाहियों के साथ लौटा लेकिन तब तक वे किसान वहाँ से भाग चुके थे। ब्रितानियों ने धन्नासिंह के पिता मेहरसिंह, जो गाँव के सरपंच थे, को दोषियों को पकड़ने की जिम्मेदारी सोंपी तथा कहा कि यदि वे तीनों किसान पकड़कर उनके हवाले नहीं किये गये तो सजा गाँव वालों को और सरपंच को दी जायेगी। भय के कारण अनेक किसान गाँव से भाग गये। अधिक दाबाव के कारण नरपत और झज्जड़ ने तो समर्पण कर दिया लेकिन मंगत फरार ही रहे। उन दोनों को 30-30 कोड़े की सजा दी गयी तथा जमीन से बेदखल कर दिया गया। मंगत के परिवार के तीन सदस्यों को फाँसी पर लटका दिया गया। सरपंच को मंगत को न पकड़ पाने के आरोप में 6 माह के कारावास की सजा दी गयी।

इस घटना से ग्रामीणों में ब्रितानियों के प्रति अत्यधिक धृणा उत्पन्न हो गयी। अतः जैसे ही मेरठ में क्रांति की शुरूआत हुई धन्नासिंह तथा घाट पाँचली के जुर्जरों ने उसमें बढ़-चढ़ कर भाग लिया।

प्रतिक्रांति के दौरान 14 जुलाई, 1857 को प्रातः 4 बजे घाट पाँचली पर खाकी रिसाले ने तोपों के साथ हमला किया। रिसाले में 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इस संघर्ष में अनेक किसान मारे गये। आचार्य दीपांकर द्वारा लिखित 'स्वाधीनता आन्दोल और मेरठ' में घाट पाँचली के 80 व्यक्तियों को फाँसी दिये जाने का वर्णन है।-

 

 

क्रांति १८५७

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