क्रांति १८५७
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यह वेबसाईट इस महान राष्ट्र को सादर समर्पित।

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झांसी की रानी का ध्वज

स्वाधीन भारत की प्रथम क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर शहीदों को नमन
वर्तमान भारत का ध्वज
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क्रांति १८५७
 

प्रस्तावना

  रुपरेखा
  1857 से पहले का इतिहास
  मुख्य कारण
  शुरुआत
  क्रान्ति का फैलाव
  कुछ महत्तवपूर्ण तथ्य
  ब्रिटिश आफ़िसर्स
  अंग्रेजो के अत्याचार
  प्रमुख तारीखें
  असफलता के कारण
  परिणाम
  कविता, नारे, दोहे
  संदर्भ

विश्लेषण व अनुसंधान

  फ़ूट डालों और राज करो
  साम,दाम, दण्ड भेद की नीति
  ब्रिटिश समर्थक भारतीय
  षडयंत्र, रणनीतिया व योजनाए
  इतिहासकारो व विद्वानों की राय में क्रांति 1857
  1857 से संबंधित साहित्य, उपन्यास नाटक इत्यादि
  अंग्रेजों के बनाए गए अनुपयोगी कानून
  अंग्रेजों द्वारा लूट कर ले जायी गयी वस्तुए

1857 के बाद

  1857-1947 के संघर्ष की गाथा
  1857-1947 तक के क्रांतिकारी
  आजादी के दिन समाचार पत्रों में स्वतंत्रता की खबरे
  1947-2007 में ब्रिटेन के साथ संबंध

वर्तमान परिपेक्ष्य

  भारत व ब्रिटेन के संबंध
  वर्तमान में ब्रिटेन के गुलाम देश
  कॉमन वेल्थ का वर्तमान में औचित्य
  2007-2057 की चुनौतियाँ
  क्रान्ति व वर्तमान भारत

वृहत्तर भारत का नक्शा

 
 
चित्र प्रर्दशनी
 
 

क्रांतिकारियों की सूची

  नाना साहब पेशवा
  तात्या टोपे
  बाबु कुंवर सिंह
  बहादुर शाह जफ़र
  मंगल पाण्डेय
  मौंलवी अहमद शाह
  अजीमुल्ला खाँ
  फ़कीरचंद जैन
  लाला हुकुमचंद जैन
  अमरचंद बांठिया
 

झवेर भाई पटेल

 

जोधा माणेक

 

बापू माणेक

 

भोजा माणेक

 

रेवा माणेक

 

रणमल माणेक

 

दीपा माणेक

 

सैयद अली

 

ठाकुर सूरजमल

 

गरबड़दास

 

मगनदास वाणिया

 

जेठा माधव

 

बापू गायकवाड़

 

निहालचंद जवेरी

 

तोरदान खान

 

उदमीराम

 

ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव

 

तिलका माँझी

 

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

 

नरपति सिंह

 

वीर नारायण सिंह

 

नाहर सिंह

 

सआदत खाँ

 

सुरेन्द्र साय

 

जगत सेठ राम जी दास गुड वाला

 

ठाकुर रणमतसिंह

 

रंगो बापू जी

 

भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर

 

वासुदेव बलवंत फड़कें

 

मौलवी अहमदुल्ला

 

लाल जयदयाल

 

ठाकुर कुशाल सिंह

 

लाला मटोलचन्द

 

रिचर्ड विलियम्स

 

पीर अली

 

वलीदाद खाँ

 

वारिस अली

 

अमर सिंह

 

बंसुरिया बाबा

 

गौड़ राजा शंकर शाह

 

जौधारा सिंह

 

राणा बेनी माधोसिंह

 

राजस्थान के क्रांतिकारी

 

वृन्दावन तिवारी

 

महाराणा बख्तावर सिंह

 

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

क्रांतिकारी महिलाए

  1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
  रानी लक्ष्मी बाई
 

बेगम ह्जरत महल

 

रानी द्रोपदी बाई

 

रानी ईश्‍वरी कुमारी

 

चौहान रानी

 

अवंतिका बाई लोधो

 

महारानी तपस्विनी

 

ऊदा देवी

 

बालिका मैना

 

वीरांगना झलकारी देवी

 

तोपख़ाने की कमांडर जूही

 

पराक्रमी मुन्दर

 

रानी हिंडोरिया

 

रानी तेजबाई

 

जैतपुर की रानी

 

नर्तकी अजीजन

 

ईश्वरी पाण्डेय

 
 

अंग्रेजो के अत्याचार


ब्रिटिश सरकार ने मौलवी अहमद शाह की मृत्यु के बाद उनके सिर को कोतवाली मेंे लटका दिया व मौलवी साहब को मौत के घाट उतारने वाले ब्रितानियों के समर्थक पवन राजा जगन्नाथ सिंह को 5000 रु का इनाम भी दिया।

एक बार ब्रितानी कानपुर के बहुत से ब्राह्मणों को पकड़ कर लाये ओर उनमें से जिनका सम्पर्क क्रांतिकारियों से था, उन्हें फ़ांसी पर चढ़ाया। इतना ही नहीं फ़ांसी देने से पूर्व वह रक्त की भूमि जिस पर क्रांतिकारियों ने ब्रितानियों को मारा था उसको चाटने के लिये और बुहारी से रक्त के धब्बे धोने के लिये उन्हें बाध्य किया गया क्योंकि हिन्दू धर्म की दृष्टि से इन कृत्यों से उच्च वर्ण के लोगों का पतन होता है।

ब्रितानियों ने रानी लक्ष्मी बाई की उत्तराधिकार वाली याचिका खारिज कर दी व डलहौजी ने बालक दामोदर को झाँसी का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया क्योंकि वे झाँसी को अपने अधिकार मेंे लेना चाहते थे। मार्च 1854 मेंे ब्रिटिश सरकार ने रानी को महल छोड़ने का आदेश दिया साथ ही उनकीसालाना राशि मेंे से 60,000 रुपये हर्जाने के रू प मेंे हड़प लिये।

बितानी सेना का विरोध करने के कारण बहादुर शाह को बंदी बनाकर बर्मा भेज दिया गया । उनके साथ उनके दोनों बेटों को भी कारावास मेंे डाल दिया गया। वहाँ उनके दोनों बेटों को मार दिया गया।

26 जनवरी 1851 में जब बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हो गई तो ब्रिटिश सरकार ने उनके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेशवा की उपाधि व व्यक्तिगत सुविधाओं से वंचित कर दिया।

ब्रितानियों ने भारतीय सिपाहियों व मंगल पांडे आदि को उनकी धार्मिक भावनाओं व उनकी हिन्दू धर्म की मान्यताओ को ठेस पहुँचाने के लिये गाय व सुअर की चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने के लिये बाध्य किया। जब उन लोगों ने विरोध किया तो ब्रिटिश सरकार ने मंगल पांड़े का कोर्ट मार्शल किया व उनको फ़ांसी पर चढ़ा दिया। रेजिमेंट के जिन सिपाहियों ने मंगल पांड़े का विद्रोह मेंें साथ दिया था। ब्रिटिश सरकार ने उनकों सेना से निकाल दिया और पूरी रेजिमेंट को खत्म कर दिया।

जबलपुर के राजा शंकर शाह ने नागपुर व जबलपुर की फ़ौज मेंें विद्रोह का काम किया। उन्हें तोप से बांधकर निर्दयता से उड़ा दिया गया।

संदर्भ-
हिंदी पत्रिका : पाथेय कण, अंक : 1,
दिनांक 13 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007

ब्रितानियोें के राक्षसी कृत्य
(चाँद के फाँसी अंक (1928) का एक लेख)

आज से सौ वर्ष पूर्व पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्र का पुनर्जागरण था। पं. सुंदर लाल का 'कर्मयोगी', कृष्णकांत मालवीय का 'अभ्युदय', गणेश शंकर विद्यार्थी का 'प्रताप', पं. पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र का 'स्वदेश', प्रयाग से निकलने वाला 'चाँद' और कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले 'हिंदू पंच' ऐसे ही पत्र-पत्रिकाएँ थे जिन्होंने ब्रिटिश-काल में राष्ट्रभक्ति की अलख जगाई। 'चाँद' का प्रकाशन वर्ष 1922 में रामरिख सहगल ने शुरू किया था। इस तरह 'हिन्दूपंच' का प्रकाशन ईश्वरीदत्त शर्मा ने 1926 में प्रारंभ किया। 'चाँद' का फाँसी अंक, 'हिंदू पंच' का बलिदान अंक (1930) और 'स्वदेश'का विजयांक (1924) उस समय काफ़ी चर्चित हुए तथा प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिए गए। मासिक 'चाँद' का वर्ष 1928 में नवंबर माह का अंक 'फाँसी अंक' था। इसके संपादक प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री थे। इस अंक में अमर हुतात्माओं पं. राम प्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त तथा शिव वर्मा के लेख भी छद्म नामों से प्रकाशित हुए थे। मासिक के सातवें वर्ष का यह पहला अंक था। ब्रितानियोें ने इस फाँसी अंक का प्रकाशन होते ही इस पर रोक लगा कर पत्रिका के कार्यालय पर छापा मारा और वहाँ बची सारी प्रतियाँ ज़ब्त कर लीं। मासिक 'चाँद' के इस अंक में 'सन् 57 के कुछ संस्मरण' नाम से एक लेख प्रकाशित हुआ था। इसमें प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में ब्रितानियोें के नृशंस अत्याचारों का वर्णन किया गया है। अँग्रेज़ लेखकों के पत्र, लेख, पुस्तकों आदि के अंशों को उदृत कर लेख में सभ्यता का ढिंढोरा पीटने वाले ब्रितानियोें की वास्तविकता बताई गई है। इस लेख के कुछ अंश वहाँ आभार सहित दिए जा रहे हैं- सं.

एक अँग्रेज़ अपने पत्र में लिखता है-

"हमने एक बड़े गाँव में आग लगा दी, जो कि लोगों से भरा हुआ था। हमने उन्हें घेर लिया और जब वे आग की लपटों से निकलकर भागने लगे तो हमने उन्हें गोलियों से उड़ा दिया।" (Charles Ball's Indian Mutiny, vol. 1, pp 243-44)

ग्राम-निवासियों सहित ग्रामो को जलाया जाना
इलाहाबाद के अपने एक दिन के कृत्यों का वर्णन करते हुए एक अँग्रेज़ अफ़सर लिखता है - "एक यात्रा में मुझे अद्भुत आनंद आया। हम लोग एक तोप लेकर एक स्टीमर पर चढ़ गए। सिक्ख और गोरे सिपाही शहर की तरफ़ बढ़े। हमारी किश्ती ऊपर को चलती जाती थी और हम अपनी तोप से दाएँ और बाएँ गोले फेंकते जाते थे। यहाँ तक कि हम बुरे-बुरे ग्रामों में पहुँचे। किनारे पर जाकर हमने अपनी बंदूकों से गोलियाँ बरसानी शुरू कीं। मेरी पुरानी दोनली बंदूक ने कई काले आदमियो को गिरा दिया। मैं बदला लेने का इतना प्यासा था कि हमने दाएँ और बाएँ गाँवों में आग लगानी शुरू की, लपटें आसमान तक पहुँची और चारों ओर फैल गई। हवा ने उन्हें फैलाने में और भी मदद दी, जिससे मालूम होता था कि बाग़ी और बदमाशों से बदला लेने का मौक़ा आ गया है। हर रोज़ हम लोग विद्रोही ग्रामों को जलाने और मिटा देने के लिए निकलते थे और हमने बदला ले लिया है। लोगों की जान हमारे हाथों में है और मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि हम किसी को नहीं छोड़ते। अपराधी को एक गाड़ीं के ऊपर बैठा कर किसी दरख़्त के नीचे ले ज़ाया जाता है। उसकी गर्दन में रस्सी का फँदा डाल दिया जाता है और फिर गाड़ीं हटा दी जाती है और वह लटका हुआ रह जाता है।" (Charles Ball's Indian Mutiny, vol. L. P. 257.)

असहाय स्त्रियों और बच्चों का संहार
इतिहास-लेखक होम्स लिखता है-
"बूढ़ें आदमियोंे ने हमें कोई नुकसान न पहुँचाया था; असहाय स्त्रियों से, जिनकी गोद में दूध पीते बच्चे थे, हमने उसी तरह बदला लिया जिस तरह बुरे से बुरे आदमियों से।"
(Holmes, Sepoy War, pp. 229-30)

सर र्जोर्ज कैम्पवेल लिखता है-
"और में जानता हूँ कि इलाहाबाद में बिना किसी तमीज़ के कत्लेआम किया गया था और इसके बाद नील ने वे काम किए थे जो कत्लेआम से अधिक मालूम होते थे। उसने लोगों को जान-बूझकर इस तरह की यातनाएँ दे-देकर मारा इस तरह की यातनाएँ, जहाँ तक हमें सुबूत मिलें हैं, भारतवासियों ने कभी किसी को नहीं दीं।"
(Sir George Campbell Provisional Civil commissioner in the Mutiny, as quotexd in the other side of Medal by Edward Thomson. P. 18)

एक अंग्रेज लेखक लिखता है-
"55 नवम्बर पलटन के कैदियों के साथ अधिक भयंकर व्यवहार किया गया, ताकि दूसरों को शिक्षा मिले। उनका कोर्ट-मार्शल हुआ, उन्हे दण्ड दिया गया और उनमें से हर तीसरे मनुष्य को तोप के मुँह से उड़ाने के लिए चुन लिया गया।"
(Narative of the Indian Revolt P. 36)

एक अंग्रेज अफसर जो इन लोगों के तोप से उड़ाए जाने के समय उपस्थित था, उस दृश्य का वर्णन करते हुए लिखता है-

"उस दिन की परेड का दृश्य विचित्र था। परेड पर लगभग नौ हजार सिपाही थे। एक चौरस मैदान के तीनों और फौज खड़ी कर दी गई। चौथी और दस तोपे थीं। पहले दस कैदी तोपों के मुँह से बाँध दिए गए। इसके बाद तोपखाने के अफसर ने अपनी तलवार हिलाई, तुरन्त तोपों की गरज सुनाई दी और धुँए के ऊपर हाथ, पैर और सिर हवा में उड़ते हुए दिखाई देने लगे। यह दृश्य चार बार दुहराया था। हर बार समस्त सेना में से जोर की गूंझ सुनाई देती थी, जो दृश्य की वीभत्सता के कारण लोगों के हृदयों से निकलती थी। उस समय से हर सप्ताह में एक या दो बार उस तरह के प्राण-दण्ड की परेड होती रहती है और हम अब उससे ऐसे अभ्यस्त हो गए हैं कि हम पर उसका कोई असर नहीं होता।"
(Narrative of the Indian Revolt, p. 36)

मनुष्यो का शिकार
सन् 57 में जनरल हेवलॉक और रिर्नाड के अधीन कम्पनी की सेना की इहालाबाद से कानपुर तक की यात्रा के विषय में सर चार्ल्स डिल्क लिखाता है-

"सन 1857 में जो पत्र इंगलिस्तान पहुँचे उनमें एक ऊँचे दर्ज का अफसर, जो कानपुर की ओर सेना की यात्रा में साथ था, लिखता है- ' मैंने आज की अंग्रेजी तारीख में खूब शिकार मारा। बागियों को उड़ा दिया। यह याद रखना चाहिए कि जिन लोगों को इस प्रकार फाँसी दी गई या तोप से उड़ाया गया, वे सशस्त्र बागी न थे , बल्कि गाँव के रहने वाले थे, जिन्हें केवल सन्देह पर पकड़ लिया जाता था। इस कूच में गाँव के गाँव इस क्रूरता के साथ जला डाले गए और इस निर्दयता के साथ निर्दोष ग्रामवासियों का संहार किया गया कि जिसे देखकर एक बार मुहम्मद तुगलक भी शरमा जाते।"
(Greater Britian, by Sir Charles Dilke.)

कानपुर में फाँसियाँ
17 जुलाई, सन् 57 को जनरल हेवलॉक की सेना ने कानपुर में प्रवेश किया। उस समय चार्ल्स बॉल लिखता है-
"जनरल हेवलॉक ने सर ह्यू व्हीलर की मृत्यु के लिए भयंकर बदला चुकाना शुरू किया। हिंदुस्तानियों के गिरोह के गिरोह फाँसी पर लटका दिया गए। मृत्यु के समय कुछ विप्लवकारियों ने जिस प्रकार चित्त की शान्ति और अपने व्यवहार में ओज का परिचय दिया, वह उन लोगों के सर्वथा योग्य था, जो किसी सिद्धान्त के कारण शहीद होते हैं।"
(Charles Balls Indian Muting, Vol. 1, p. 338)

दिल्ली में कत्लेआम और लूट
सन् 57 में दिल्ली के पतन के बाद दिल्ली के अन्दर कम्पनी के अत्याचारों के विषय में लॉर्ड एल्फिस्टन ने सर जॉन लॉरेन्स को लिखा है-
"ंमौहासरे के खत्म होने के बाद से हमारी सेना ने जो अत्याचार किया हैं, उन्हें सुनकर हृदय फटने लगता है। बिना मित्र अथवा शत्रु में भेद किए ये लोग सबसे एक सा बदला ले रहे हैं। लूट में तो वास्तव में हम नादिरशाह से भी बढ़ गए।"
(Life of Lord Lawrence, Vol. II, P. 262)

मॉण्टगुमरी मार्टिन लिखता है-
"जिस समय हमारी सेना ने शहर में प्रवेश किया जो जितने नगर-निवासी शहर की दीवारों के अन्दर पाए जाए, उन्हें उसी जगह मार डाला गया। आप समझ सकते हैं कि उनकी संख्या कितनी अधिक रही होगी, जब मैं आपको यह बतलाऊँ कि एक-एक मकान में चालीस-चालीस, पचास-पचास आदमी छिपे हुए थे। ये लोग विद्रोही न थे, बल्कि नगर-निवासी थे, जिन्हें हमारी दयालुता और क्षमाशीलता पर विश्वास था। मुझे खुशी है कि उनका भ्रम दूर हो गया। "
(Letter in the Bombay Telegraph by Mont-gomery Martin.)

रसल लिखता है-
"मुसलमानों को मारने से पहले उन्हे सुअर की खालों में सी दिया जाता था, उन पर सूअर की चर्बीं मल दी जाती थी, और फिर उनके शरीर जला दिए जाते थे और हिन्दूओं का भी जबरदस्ती धर्मभ्रष्ट किया जाता था।"
(Russell 's Diary, Vol. II P. 43.)

पंजाब का ब्लैक होल और अजनाले का कुआँ
26 नवम्बर पलटन के कुछ थके हुए सिपाही अमृतसर की एक तहसील अजनाले से 6 मील दूर रावी नदी के किनार पड़े हुए थे। ये वे सिपाही थे जो 30 जुलाई को रात को लाहौर की छावनी के पहरे से निकल भागे थे। इन लोगों ने विद्रोह में किसी प्रकार का भाग नहीं लिया था, परन्तु केवल सन्देह के कारण इनसे हथियार रखवा लिए गए थे और इन्हें कैद कर लिया गया था। इन निर्दोष सिपाहियों के साथ जुडीशल कमिश्नर सर रॉबर्ट मॉण्टगुमरी ने जैसा व्यवहार किया उसका वर्णन अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर फ्रेड्रिक कूपर ने अपनी "The Crisis in the Punjab " नामक पुस्तक में बड़े विस्तार के साथ किया है। उसका सारांश संक्षेप में कूपर के ही शब्दो में नीचे दिया जाता है-

31 जुलाई को दोपहर के समय जब हमें मालूम हुआ कि ये लोग रावी के किनारे पड़े हुए तो हमने अजनाले के तहसीलदार को कुछ सशस्त्र सिपाहियों सहित उन्हें घेरने के लिए भेज दिया। शाम को चार बजे के करीब हम 80 या 90 सवारों को लेकर मौके पर पहुँचे। बस फिर क्या था। शीघ्र ही उन थके-माँदे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं गई। उनमें से बहुत तो रावी में कूद पडे और बहुत से बुरी तरह घायल होकर निकल भागे। उनकी संख्या पाँच सौ थी। भूख-प्यास के कारण वे इतने निर्बल हो गए थे कि रावी नदी की धारा में न ठहर सके। नदी के ऊपर की ओर लगभग एक मील के फासले पर एक टापु था। जो लोग तैरते हुए रावी पार कर गए उन्होंने भाग कर यहाँ शरण ली पर यहाँ भी भाग्य ने उनका साथ न दिया। दो किश्तियाँ मौके पर मौजूद थीं। तीन सशस्त्र सवार इन किश्तियों पर बैठाकर उन्हें पकड़ने के लिए भेज दिए गए तथा 60 बन्दूकों के मुँह उनकी तरफ कर दिए गए। जब उन लोगों ने बन्दूकें देखी तो उन्होंने हाथ जोड़कर अपनी निर्दोषता प्रकट की और प्राण-भिक्षा माँगी। परन्तु इन्हें शीध्र ही गिरफ्तार कर लिया गया और थोड़े थोड़े कर रावी के पास उस पार पहुँचा दिया गया। गिरफ्तार होने से पहले इनमें से करीब पचास निराश होकर रावी में कूद पड़े और फिर न दिखाई दिए। किनारे पर पहुँचकर इन लोगों को खूब कसकर बाँध दिया गया और उनकी कण्ठी-मालाएँ तोड़कर पानी में फेंक दी गई। उस समय जोर की वर्षा हो रही थी, पर उस वर्षा में ही उन्हें सिक्ख सवारों की देख-रेख में अजनाले पहुँचा दिया गया।

अजनाले के थाने में हमने इनको फाँसी देने के लिए और गोलियों से उड़ाने के लिए रस्सियों एवं पचास सशस्त्र सिक्ख सिपाहियों का प्रबन्ध कर रखा था। 282 बँधे हुए सिपाही, जिनमें कई देशी अफसर भी थे, आधी रात के समय अजनाले के थाने पर पहुँचे। सब को अजनाले के थाने में बन्द कर दिया गया। जो थाने में न आ सके उन्हें पास ही की तहसील में जो कि बिलकुल नई बनी थी, एक छोटे से गुम्बद में भर दिया गया। वह गुम्बद बहुत तंग था, पर तो भी उसके दरवाजे चारों तरफ से बन्द कर दिए गए और वर्षा के कारण फाँसी दूसरे दिन सवेरे के लिए स्थगित कर दी गई।

दूसरे दिन बकरीद थी। प्रात: काल इन अभागों को दस-दस करके बाहर निकाला गया। दस सिक्ख एक ओर बन्दूकें लिए खड़े हुए थे और चालीस उनकी मदद के लिए। सामने आते ही इन लोगों को गोली से उड़ा दिया जाता था।

जब थाना खाली हो गया तो तहसील की बारी आई। जब गुम्बद के 21 सिपाही बन्दूक का निशाना बन चुके तो मालूम हुआ कि बाकी सिपाही गुम्बद में से बाहर नहीं निकलना चाहते। अन्दर जाकर देखा तो 45 सिवाही पड़े-पड़े सिसक रहे थे। अनजाने ही हौल-वेल का ब्लैक होल हत्याकाण्ड फिर से दुहराया गया।

शीघ्र ही इन लोगों की लाशें घसीट कर बाहर निकाली गईं और उन्हे एक पुराने कुएँ में, जो कि अजनाले के धाने से सौ गज के फासले पर था, डाल दिया गया। कुएँ में जो जगह बाकी रही थी वह ऊपर से मिट्टी डलवा कर भर दी गई और उस पर एक ऊँचा टीला बना दिया गया। एक कुआँ कानपुर में है, परन्तु एक कुआँ अजनाले मे भी है। जो सिपाही गोली से उड़ा दिए गए अथवा कुएँ में डाल दिए गए, उनमें से अधिकांश हिन्दू थे। उन्होंने मरते समय सिक्खों को गंगाजी की दुहाई देकर लानत-मलामत की।

संदर्भ-
हिंदी पत्रिका : पाथेय कण
अंक : 1,
दिनांक 13 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007

 

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