क्रांति १८५७
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यह वेबसाईट इस महान राष्ट्र को सादर समर्पित।

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झांसी की रानी का ध्वज

स्वाधीन भारत की प्रथम क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर शहीदों को नमन
वर्तमान भारत का ध्वज
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क्रांति १८५७
 

प्रस्तावना

  रुपरेखा
  1857 से पहले का इतिहास
  मुख्य कारण
  शुरुआत
  क्रान्ति का फैलाव
  कुछ महत्तवपूर्ण तथ्य
  ब्रिटिश आफ़िसर्स
  अंग्रेजो के अत्याचार
  प्रमुख तारीखें
  असफलता के कारण
  परिणाम
  कविता, नारे, दोहे
  संदर्भ

विश्लेषण व अनुसंधान

  फ़ूट डालों और राज करो
  साम,दाम, दण्ड भेद की नीति
  ब्रिटिश समर्थक भारतीय
  षडयंत्र, रणनीतिया व योजनाए
  इतिहासकारो व विद्वानों की राय में क्रांति 1857
  1857 से संबंधित साहित्य, उपन्यास नाटक इत्यादि
  अंग्रेजों के बनाए गए अनुपयोगी कानून
  अंग्रेजों द्वारा लूट कर ले जायी गयी वस्तुए

1857 के बाद

  1857-1947 के संघर्ष की गाथा
  1857-1947 तक के क्रांतिकारी
  आजादी के दिन समाचार पत्रों में स्वतंत्रता की खबरे
  1947-2007 में ब्रिटेन के साथ संबंध

वर्तमान परिपेक्ष्य

  भारत व ब्रिटेन के संबंध
  वर्तमान में ब्रिटेन के गुलाम देश
  कॉमन वेल्थ का वर्तमान में औचित्य
  2007-2057 की चुनौतियाँ
  क्रान्ति व वर्तमान भारत

वृहत्तर भारत का नक्शा

 
 
चित्र प्रर्दशनी
 
 

क्रांतिकारियों की सूची

  नाना साहब पेशवा
  तात्या टोपे
  बाबु कुंवर सिंह
  बहादुर शाह जफ़र
  मंगल पाण्डेय
  मौंलवी अहमद शाह
  अजीमुल्ला खाँ
  फ़कीरचंद जैन
  लाला हुकुमचंद जैन
  अमरचंद बांठिया
 

झवेर भाई पटेल

 

जोधा माणेक

 

बापू माणेक

 

भोजा माणेक

 

रेवा माणेक

 

रणमल माणेक

 

दीपा माणेक

 

सैयद अली

 

ठाकुर सूरजमल

 

गरबड़दास

 

मगनदास वाणिया

 

जेठा माधव

 

बापू गायकवाड़

 

निहालचंद जवेरी

 

तोरदान खान

 

उदमीराम

 

ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव

 

तिलका माँझी

 

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

 

नरपति सिंह

 

वीर नारायण सिंह

 

नाहर सिंह

 

सआदत खाँ

 

सुरेन्द्र साय

 

जगत सेठ राम जी दास गुड वाला

 

ठाकुर रणमतसिंह

 

रंगो बापू जी

 

भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर

 

वासुदेव बलवंत फड़कें

 

मौलवी अहमदुल्ला

 

लाल जयदयाल

 

ठाकुर कुशाल सिंह

 

लाला मटोलचन्द

 

रिचर्ड विलियम्स

 

पीर अली

 

वलीदाद खाँ

 

वारिस अली

 

अमर सिंह

 

बंसुरिया बाबा

 

गौड़ राजा शंकर शाह

 

जौधारा सिंह

 

राणा बेनी माधोसिंह

 

राजस्थान के क्रांतिकारी

 

वृन्दावन तिवारी

 

महाराणा बख्तावर सिंह

 

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

क्रांतिकारी महिलाए

  1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
  रानी लक्ष्मी बाई
 

बेगम ह्जरत महल

 

रानी द्रोपदी बाई

 

रानी ईश्‍वरी कुमारी

 

चौहान रानी

 

अवंतिका बाई लोधो

 

महारानी तपस्विनी

 

ऊदा देवी

 

बालिका मैना

 

वीरांगना झलकारी देवी

 

तोपख़ाने की कमांडर जूही

 

पराक्रमी मुन्दर

 

रानी हिंडोरिया

 

रानी तेजबाई

 

जैतपुर की रानी

 

नर्तकी अजीजन

 

ईश्वरी पाण्डेय

 
 


कविता, नारे, दोहे

लोकगीतो मे क्रान्ति 1857
झांसी की रानी, (रचनाकार) सुभद्रा कुमारी चौंहान
सन सत्तावन, सत्यपाल भारद्वाज ( समीर )
स्वतंत्रता की मिठास, झवेरचंद मेघाणी
शहीदो के बारे मे, राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर
शाहबाद मे क्रान्तिकारी बाबु कंुवर सिंह के सम्बन्ध मे प्रचलित लोकगाथा।
क्रान्तिकारी राणा बेनी माधो सिंह के सम्बन्ध मे प्रचलित लोकगाथा।
कुंवरसिंह के भाई अमरसिंह के सम्बन्ध मे प्रचलित लोकगाथा।
गीत चेतावणी रा, कविराजा बांकीदासजी रो कह्यो
1857 का राष्ट्रगीत
1857 का लोकगीत
राजस्थानी गीत
नाना साहब का तीर्थाटन
तात्या टोपे का पराक्रम
1857 का 'आल्हा'
स्वातंत्र्य यौद्धा कुंवरसिंह प्रशस्ति

लोकगीतो मे क्रान्ति 1857

रचनाकार : सिद्धेश्वर
संदर्भ : विचार दृष्टि (हिंदी पत्रिका)
दिनांक : 9 अक्टूबर-दिसंबर 2007
अंक : 33, पेज न. 30

लोकगीत लोक साहित्य का एक अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका संबंध साधारण ग्रामीण समाज के लोगों के दैनिक जीवन के साथ-साथ सामुदायिक चेतना से भी होता है, क्योंकि यह छोटे कस्बों, शहरों से लेकर महानगरों तक भी अपनी पैठ बनाए हुए है। इन समुदायों की संस्कृति भी लोक संस्कृति के अंतर्गत लोकगीत, लोक कथा, लोक कला, लोक संगीत, लोकनृत्य और लोक मंच जैसे बहुआयामी पक्ष आते हैं। लोकगीत जीवन की स्वाभाविक उमंग है और उन उमंगों की स्वाभाविक अनायास अभिव्यक्ति है जिसका आधार पोथियां और आलेख नहीं होते, बल्कि देश काल की परिस्थितियों, प्रवृत्तियों और मानसिक संस्कारों का निर्माण करते हुए युग-युग से चली सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं से होता है। सच कहा जाए तो हमारी पहचान यदि कही सुरक्षित है तो वह हमारे लोक जीवन में है जिसका अभिप्राय सामुदायिक चेतना से है।

हमारे देश के विभिन्न अंचलों में प्रचलित लोकगीतों और लोक धुनों का हमारे आधुनिक संगीत में खुलकर दोहन के चलते संगीत का क्षेत्र लगातार समृद्ध होता जा रहा है, मगर भूमंडलीकरण के दौर में साकार होती विश्व गाम की अवधारणा के वक्त आज की आधुनिकता की अँधी दोड़ में लोक संस्कृति का लगातार छीजते जाना चिंता का विषय है, क्योंकि इससे हमारी परंपराओं के लुप्त होने का खतरा बढ़ जाता है। परंपरा को अक्षुण्ण रखने के लिए अपनी लोक संस्कृति को जीवित रखना होगा।

 

सन् 1857 के भयंकर स्वतंत्रता संग्राम में स्वदेशाभिमान और स्वधर्माभिमान का पवित्र स्फुरण जब देश के योद्धाओं और क्रांतिकारियों में संचरित हुआ था, तो उस प्रचंड हलचल की हवा देश के ग्रामीण समाज को भी संस्पर्श किया और ग्रामीण जनता के कंठ से ऐतिहासिक वीरगाथाएँ लोकगीतों में व्यक्त हुई। देश के विभिन्न क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं म विद्रोहियों व क्रातिकारियों की गतिविधियाँ मधुर और सजीव रूप में अभिव्यक्त हुई, जो लोकगीतों के रूप में उन दिनों के लोगों के कंठहार बन गाए जाते थे। इन लोकगीतों में क्रांतिकारियों के संघर्ष्, और स्वाभिमान के स्वर सुनाई पड़ते थे। स्वतंत्रता संग्राम एवं उसके दमन की ध्वनियाँ, जो भारत की विभिन्न भाषाओं के लोकगीतों में सुनने को मिलती हैं उससे आज भी सबके मन-मानस में भीतर ही भीतर भावनाएँ उमड़ पड़ती हैं।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं में जहाँ 80 वर्ष की उम्र के वीर कुँवर सिंह, 60-65 के राणा बेनीमाधव, मौलवी साहब, बहादुरशाह ज़फर, तात्या टोपे आदि बड़े-बूढ़ों ने अँग्रेजी हुकूमत का जमकर प्रतिरोध किया, वहीं 18 वर्षीय बलभद्र सिंह, 22 वर्षीय रानी लक्ष्मीबाई, 26-27 की बेगम हजरत महल और 33 वर्ष के नाना साहब आदि के ताजे खूनवाले नौजवान भी थे। अवध के लोकगीतों से यह स्पष्ट है कि वीर कुंवर सिंह ने 1857 के संग्राम में बेगम हजरत महल का साथ दिया और अँग्रेजों के खिलाफ लड़े। आजमगढ़ से जगदीशपुर लौटते वक्त शिवहर घाट से गंगा नदी पार कर कुंवर सिंह जगदीशपुर जाने के लिए बक्सर के आसपास कहीं निकलते हैं। लोकगीत की पंक्ति 'जल्दी हाजिर होउ बक्सर माँ काहे फिरत दिवाना' से यह बात स्पष्ट होती है। इसी प्रकार राणा बेनी माधव सिंह पटना के कमिश्नर का आमंत्रण ठुकरा देते हैं, देखें लोकगीत की इन पंक्तियों को-

कप्तान लिखे मिलअ कुंवर सिंह,
आरा के सबा बनाइब रे
बाबू कुंवर सिंह भेजते सनेसवा, मोसे
न चली चतुराई रे
जब तक प्रान रहीतन भीतर, मारग नहीं
बदलाई रे

श्रीधर मिश्र ने भोजपुरी लोकगीतों के विविध रूप में कुंवर सिंह के संघर्ष, सहभोग, संबंधियों की धोखाधड़ी और स्वाधीनता की आकांक्षा में व्यथित उनके मन बयान करते हुए निम्नलिखित लोकगीत को उद्धत किया है-

नेअत बाड़े बाबू कुंवर सिंह, मुंवा पर
देईके रूमालिया को राम।
लिहनी लड़इया हो बूढ़ा समइया में, अब
कवन होइहें हवाल हो राम।
या,
एक त में कइलीं राजा डुमरांव के
उहो भागी चलले जैसे बन में के खरहा
कुल्ही गुनलका रामा, मटिया में मिलि
गइले,
नाहीं लेवे पवलीं हम सुराज।

इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि 1857 के सघर्ष में डुमरांव के महाराजा कुंवर सिंह का साथ नहीं देते है। जनमानस में आज भी यही धारणा है और कई बार इसीलिए कुंवर सिंह के प्रसंग में दोहियों को निम्न जीव में पुनर्जन्म के लिए शापित करता है-

जे न हिदी कुंवर सिंह के साथ, उ
अगीला जन्म में होई सुअर।
ओकर बाद होई भुअर

अर्थात् जो कुंवर सिंह का साथ नहीं देगा वह अगले जन्म में सुअर और फिर भुअर यानी अँग्रेज होगा। लोकमानस की यह चेतना है जो संकट के समय आमजन से लेकर विशिष्ट जन तक के लोगों को संघर्ष के लिए तैयार करती है। राना बेनीमाधव सिंह के प्रसंग में उध्दृत लोकगीत कहीं-न-कहीं इस बात की तरफ भी संकेत करता है कि वह कहाँ खड़ा है? राष्ट्रभक्ति का राही है या साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी व्यवस्था के साथ मिलकर जनता को उत्पीड़ित करना चाहता है?

इसी प्रकार बिहार के दरभंगा के लोक जीवन में अभी भी 1857 विद्रोह की स्मृतियाँ ताजा हैं। कबड्डी आरा, संत्तान (संत्तावन) गुल्ली मारा एक सांस में बोलते हैं, तो लगता है कि 1857 अतीत का पन्ना नहीं, जीवित इतिहास है। इतिहासकार डॉ. धर्मनेद्र कुमार का कहना है कि 'मिथिलाँचल में चरवाहों के बीच गीतों में प्रश्नोत्तर और समस्यापूर्ति की पुरानी व समृद्ध परंपरा रही है, 1857 की लड़ाई पर केंद्रीत प्रश्नोत्तरी आज भी कहीं-कहीं सुनने को मिल जाती है। एक चरवाहा पूछता है-

अमर सिंह के कमर टूँटलैन, कुंवर सिंह के बाहिं।

पुछिऔन गदल भंजन सिंह से, अब लड़ता की नाहिं।
दूसरे चरवाहे का जवाब
'हाथी बेचब घोड़ा बेचब, सिपाही के खियायब।
लरबै न त करब की हँसी की करायब।'

उल्लेख्य है कि कुंवर सिंह व अमर सिंह की फौज में दरभंगा के लोग भी भर्ती हुए थे और वहाँ के गाँव-गाँव से आटा, चावल, दाल आदि इकट्ठा कर सेनानियों को भेजा गया था। दरभंगा के भीखा सलामी मुहल्ला में दिग्धी पोखर के दक्षिण-पश्चिम कोना में स्थित शहजादा की मज़ार स्वाधीनता के प्रथम संग्राम की गाथा सुना रहा है। तब कुंवर सिंह का परिवार मंगरौनी (मधुबनी) में था। यहाँ के पंडित भिखाई झा उनके कुलगुरू थे, श्री झा से कुंवर सिंह के अलावा अमर सिंह व बेटा दिलभंजन सिंह ने भी दीक्षा ली थी। कहा जाता है कि विद्रोह प्रारंभ होने से पूर्व बाबू कुंवर सिंह गुरू का आर्शीर्वाद लेने यहाँ आए थे। गुरू ने उन्हें विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया।

बैसवाड़े के हुलारे नामक कवि ने अपने एक गीत में शंकरपुर के राना बेनीमाधव सिंह की भरपूर प्रशंसा की है, जिन्होंने हटकर अँग्रेजों का मुकाबला किया था। अवध में राना है मरदाना' यह इस गीत का टेक है। इसी प्रकार रामबरेली जिले के हमीर गाँव निवासी बजरंग ब्रह्मभट्ट ने भी राना की वीरता अपनी आँखों से देखी थी जिसने प्रशंसा में एक छंद लिखा-

'नेक न डेराना छीन लीन्हयो तोपखाना
वीर बाँधे वीर बाना बैस राना बिरम्हना है।'

सन् अठारह सौ सत्तावन की जंग-ए-आजादी के दौरान विभिन्न भारतीय भाषाओं के लोकगीतों में अँग्रेजी हुकूमत से मुक्ति के लिए संघर्ष की ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं और वे सभी राष्ट्रीय-सांस्कृतिक जीवन और चिंतन की अभिव्यक्तियाँ हैं। कहना नहीं होगा कि अपने देश और इसके विभिन्न क्षेत्र की भाषाओं के लोकगीतों में कई गई अभिव्यक्तियाँ प्रतिगामी एवं साम्राज्यवादी शक्तियों के लिए कहीं अधिक खतरनाक होती हैं। आखिर तभी तो प्रभुत्वशाली सत्ता-शक्तियों द्वारा कई भाषाओं की रचनाएँ प्रतिबधित की गई। दरअसल, लोकभाषा के गीतों में असीम शक्ति होती है, क्योंकि उसमें जनता का जीवन-स्पंदन, जिजीविषा और संकल्पना निहित रहती हैं, उसके मुहावरे, लोकोक्तियाँ, लोक धुनें शामिल रहती हैं। सुप्रसिद्ध आलोचक वंशीधर सिंह का स्पष्ट मानना है कि जीवन-संघर्ष की अंतर्ध्वनियाँ लोक-भाषा में सहजता से निस्सृत होती हैं, लोक हृदय में रच-बस कर लोककंठ में संवेगत्मक स्वर में फूटती हैं। सन अठारह सौ सत्तावन के संघर्ष की अंतर्ध्वनियाँ लोकगीतों आवेगपूर्ण संवेदनशीलता के साथ प्रवाहित प्रस्फूटित हुई हैं। लोकगीत महज शब्दों का जाल नहीं है; वह लोक-जीवन का छंद है, मुक्ति की ऋचा ब्रिटिश हुकूमत के विरोध में ग्वालियर के सिंधिया के समक्ष पद्माकर के कवित्त के साम्राज्यवाद विरोधी को स्वर को देखें-

मीनागढ़ बंबई-समुद मंदराबंग,
बंदर को बंदकारि बंदर बसावैगो।
कहे पद्माकर कसकि कासमीर ह कोहू
पिंजर सों धेरि के कलिंजर हुड़ावैगो।
बंकानृप दौलत अली जा महाराज कबौं
साजिदल पकरि फिरंगिन दबावैगो।
दिल्ली दहपट्टि, पटना हू को झपट्टिकरि
कबहुँक सत्ता कलकत्ता के उड़ावैगो।।

इसी प्रकार भोजपुर के क्षेत्र में होली, चैता और पर्व-त्योहार के गीतों में सन् अठारह सौ सत्तावन के स्वर ध्वनति हुए हैं, वीर कुंवर सिंह के सम्मान और स्मरण में गाए जाने वाले इसी गीत की पंक्तियों को देखें-

बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादूर,
होली खेलेले जंग मैदान,
तड बंगला में उड़ेला गुलाल
या फिर-बाबू कुंवर सिंह तोहरे राजबिनु,
हम ना रंगाइबो केसरिया।

बिहार की मैथिली, मगही, भोजपुरी, अंगिका, वज्जिका आदि लोकभाषाओं के लोकगीत ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध में सामंतवाद विरोधी चेतना के स्वर सुनने को आज भी मिलते हैं। सुप्रसिद्ध लोक गीतकार रघुवीर नारायण की रचना 'बटोहिया' की इन सुपरिचित पंक्तियों में भारत भूमि, संस्कृति को चित्रित करते हुए एक अनोखा सांस्कृतिक वातावरण प्रस्तुत किया गया है-

सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से
मोरे प्रान बसे हिम खोहो रे बटोहिया
एक द्वारा घेरे ला हिम कोतवालवा से
तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया
जाहु-जाहु भैया रे बटोही हिंद देखिआई
जहँवा कहुकि कोइलि बोले रे बटोहिया
पवन से गंध मंद अगर गगनवाँ से
कामिनी विरह राग गावे रे बटोहिया।

मैथिल कोकिल कवि विद्याति के काल तक तिरहुतिया भाषा के रूप में मैथिली शब्द का प्रचलन स्यात् नहीं हुआ था, इसलिए उसे तिरहुतिया कहा जाता था। कवि विद्यापति ने इसकी लोक प्रवृत्ति का परिचय दिया है। भोजपुरी भाषा की इस लोकोक्ति में भोजपुरिया, मगहिया और तिरहुतिया-इन तीनों भगिनी भाषाओं के संयुक्त प्रयोग की एक वानगी आप देखें-

कस कम कसमर किना मगहिया
का भोजपुरिया की तिरहुतिया।

मगही और भोजपुरी के कवि राम प्रसाद पुण्डरीक ने सोहर, झुमर और लोरकायन धुन में सांस्कृतिक सौंदर्य का वर्णन बहुत सुंदर ढंग से किया है। कवि पुण्डरिक के सोहर गीत की इन पंक्तियों पर आप गौर करें जिसमें नारी जागरण का संदेश दिया गया है-

बहिनो, अब ना रहब हम बंद,
हमहु जग देखब हे
रहत हमहिं जग बंद,
बहुत दिन बीतल हे।

इसी प्रकार भोजपुरी, मगही, मैथिली के अतिरिक्त अनेक लोक भाषाओं के लोकगीतों-यथा सोहर, मंजारा, लोरकी, आल्हा आदि लोक धुनों और लोक स्वरों में नवजागरण के संदेश मिलते हैं और इन गीतों से स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों की रगों में रक्त का संचार बढ़ जाता था।

अँग्रेजी साम्राज्यवाद के विरोध के स्वर राजस्थान लोक साहित्य के गीतों में भी काफी मिलते हैं। विरोदी स्वर के इस रूप को देखें-

उतन विलायत किलकता कानपुर आविया,
ममोई लंक मदरास में ला,
वलम धुर वहण अँगरेज वाटन थला,
यह भरतपुर ऊपरा हुआ मेला।

लोककवि बाँकी दास के राजस्थानी लोकगीत की इन पंक्तियों को देखें जिसमें राजस्थान के कुछ सामंतों को लक्ष्य कर लिखा है-

आयौ इंगरेज मुलक है ऊपर,
आहँस लीधो खैंचि उरा,
धुणिया मरै न दीधी धरती,
धणिया ऊमौ गई धरा.

यमुना, चंबल टैंस और नर्मदा से धिरा अंचल पर्वत, पहाड़ों, डांगों तथा भाराक्रांत वनों से आच्छादित बुदेलखंड आत्माभिमान पराक्रम तथा बगीचों का क्षेत्र रहा है। अँग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के प्रथम महत्त्वपूर्ण संघर्ष बुलंदखंड की वीरांगना झांसी की लक्ष्मीबाई की शहादत का उद्घोषक है। सन् 1857 की क्रांति की लपट बुंदेलखंड की छाती पर ही धधकी और प्रज्जवलित हुई। वीर बुंदेला छत्रसाल का विद्रोह अपने क्षेत्र की रक्षा की लड़ाई को ही रेखांकित करतने वाला रहा है।

बुदेंलखंड के लोक साहित्य में शौर्य पराक्रम, वीरता, त्याग और बलिदान पहले समूह जीवन के संकल्प बनते हैं, फिर ये ही गुण प्रेरक बन जाते हैं। संघर्ष और स्वाभिमान यहाँ के लोकगीतों का प्रमुख स्वर रहा है। बुदेलखंड की लोकप्रवृत्ति के दो छोर हैं-एक छोर रसात्मक शंगारी वृत्ति और दूसरी ओर दुर्दांत वीर भाव की पराक्रमी वृत्ति बुदेलखंड की लोक गाथाओं में हिल-मिल गई है जो यहाँ के जीवन में व्याप्त मुक्ति कामना की ही प्रतीक है। बुंदेलखंड में ही 'आल्हा' महाकाव्य के रचयिता जगनिक पैदा हुए जिनकी ओजपरक अभिव्यक्ति आल्हा खंड में लोक की संपूर्ण रागात्मकता के साथ हुई है जिसके आल्हा और उदल दो नायक हुए। वे दोनों सम्राट, नहीं थे, बलि राजा के सेना के मात्र बाँके लड़ाके थे।

बुंदेलखंड में परिचित नामक राजा का चरित्र स्वतंत्रता प्रेमी लोकगीत गायकों के लिए सतत प्रेरणादायी रहा है। बुंदेली लोकगीतों में पारीछित की सेना से फिरंगियों की सेना लोहा नहीं ले पाती। चरखारी का यह राजा घनघोर जंगलों में अँग्रेजों से लड़ने की तैयारी कर रहा है। देखें बुदेली लोकगीत की इन पंक्तियों को-

"काबुल और खंदार देस हैं जो से चढ़ो फिरंगी
पुश्चल बारम्बार कहाँ राज्य है जंगी
राजा जंगी जैतपुर केर पुरजन के अधिकार
जंग की करें तैयारी डौंगई बगौरा की
चारऊँ ओर पहरान की पारीछत ढाढी पार
गोर उसे बगौरा की डाँगन-डाँगन मझधार"
पारीछत जैसे युवा योद्धा फिरंगियों के लिए काल बन गया हैं-
"देस दिसावर सालो नहीं सालो जैतपुर गाँव
एस जनो मोये एसो सालो सालो मल्लं युवराजा"

इस प्रकार से बुंदेलखंड के लोक जीवन में व्याप्त स्वतंत्रता की कामना बुंदेल खंड के लोकगीतों में यत्र-तत्र स्पष्ट हो उठती है। देखें-

उड़ आवती चारऊ देश चिरैया हो जाती राजा

मगही के अल्पख्यात कवि सुखदेव ने ब्रिटिश कानून व्यवस्था में किसानों के मुकदमेंबाजी में फँसने की दुर्दशा का मगही के लोकगीत में इस प्रकार ढाला है-

समुझि परी जब लेल देल कागज बाकी
सबनिका सी,
धरम राज जब लेखा लीहन लोहा के
सोटवार मार पड़ी,
आगिन खंब में बांचि के रखिहें,

हाजरी जमिनी कोई न करौ, एक भोजपुरी के लोकगीत में आरा की लड़ाई में कचहरी को वर्णन इस प्रकार किया गया है-

रामा आरा पर कई ले लड़इया रे ना
रामा कचहरी के उपरवा रे ना
रामा कुँअर सिंह करले अधिकरवा रे ना

लोकगीत में कहीं कहीं अँग्रेजों की वीरता को भी सराहा गया है और उसमें जनता की न्यायप्रियता का प्रमाण, मिलता है-

चारो तरफ से बाँध मोर्चा लड़े फिर जंगी गोए
इसी प्रकार पंजाबी गीत में कोई स्त्री कह रही है
सुत्ती सुत्ती नूं बीबा वे मैनू सुपना आया
कत्तदी कत्तदी मैणा नी मेरी चुंहदी हलवी
भैणां मेनूं दे हो बधाइयां जानी दिल्ली मलनी
कत्तदी कत्तदी मैणां नी मेरी यूंहदी छुट्टी
मैणां मेनूं दे हो बधइयां रे राँझे दिल्ली लुट्टी....

विभिन्न लोकभाषाओं के इन लोकगीतों में स्वतंत्रता संग्राम की ध्वनियाँ सुनाइ पड़ती हैं जो जनता की जागरूकता के प्रतीक हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो आज सांस्कृतिक विविधता की रक्षा करना इसलिए आवश्यक है ताकि मनुष्यता के भविष्य को बचाया जा सके।


झांसी की रानी, (रचनाकार) सुभद्रा कुमारी चौंहान

सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी।
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी।
गुमी हुई आज़ादी की, क़ीमत सबने पहचानी थी।
दूर फ़िरंगी को करने की, सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

कानपुर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी।
लक्ष्मी बाई नाम पिता की, वह संतान अकेली थी।
नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी।

वीर शिवाजी की गाथाएँ, उसको याद जुबानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, वह स्वयं वीरता की अवतार।
देख मराठे पुलकित होते, उसकी तलवारों के वार।
नक़ली युद्ध व्यूह की रचना, और खेलना ख़ूब शिकार।
सैन्य घेरना दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।

महाराष्ट्र कुल देवी, उसकी भी आराध्य भवानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में।
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मी बाई झाँसी में।
राजमहल में बजी बधाई, ख़ुशियाँ छाई झाँसी में।
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि सी वह आई झाँसी में।

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

उदित हुआ सौभाग्य ,मुदित महलों में उजयाली छाई।
किंतु काल गति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई।
ले तीर चलाने वाले कर में, उसे चूड़ियाँ कब भायी।
रानी विधवा हुई हाय, विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजा जी, रानी शोकसमानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

बुझा दीप झाँसी का तब, डलहौज़ी मन में हर्षाया।
राज्य हड़प करने का उसने, यह अच्छा अवसर पाया।
फ़ौरन फ़ौजें भेज, दुर्ग पर अपना झंडा फहराया।
लावारिस का वारिस बनकर, ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रु पूर्ण रानी ने देखा, झाँसी हुई वीरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

अनुनय विनय नहीं सुनता है, विकट फ़िरंगी की माया।
व्यापारी बन दया चाहता था, जब यह भारत आया।
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया।
राजाओं नव्बाबों को भी, उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महारानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसीवाली रानी थी।

छिनी राजधानी देहली की, लिया लखनऊ बातों-बात
कैदपेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
दिपूर, तंजौर, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात,
जब कि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ वज्र-निपात,

बंगाले मद्रास आदि की, भी तो यही कहानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसीवाली रानी थी।

रानी रोई रनिवासों में, बेग़म ग़म से थी बेज़ार,
उनके गहने-कपड़े बिकते थे, कलकत्ते के बाज़ार,
सरे-आम नीलाम छापते, थे अँग्रेज़ों के अख़बार,
नागपुर के ज़ेवर ले लो,लखनऊ के लो नौलख हार,

यों पर्दे की इज़्ज़त पर-देशी के हाथ बिकानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसीवाली रानी थी।

कुटियों में थी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था, अपने पुरखों का अभिमान,
नाना, धुन्धुपंत पेशवा, जुटा रहा था सब सामान,
बहन छबीली ने रण-छांडी का, कर दिया प्रकट आह्वान,

हुआ यह प्रारंभ उन्हें तो, सोई ज्योति जगानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसीवाली रानी थी।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी, अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर, पटना ने, काफ़ी धूम मचाई थी,

जबलपुर, कोल्हापुर में भी, कुछ हलचल उकसानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

इस स्वतंत्रता-महायज्ञ में, कई वीरवर आये काम,
नाना, धुन्धुपन्त, तांतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,
अहमद शाह मौलवी, ठाकुर कुवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास-गगन में, अमर रहेंगे जिनके नाम,

लेकिन आज जुर्म कहलाती, उनकी तो कुर्बानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसीवाली रानी थी।

इनकी गाथा छोड़ चले हम, झाँसी के मैदानों में।
जहाँ खड़ी है लक्ष्मी बाई मर्द बनी मर्दानों में।
लेफ़्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में।
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व आसमानों में।

जख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

रानी बढ़ी कालपी आई, सौ मील निरंतर पार।
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार।
यमुना तट पर अँग्रेज़ों ने, फिर खाई रानी से हार।
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अँग्रेज़ों के मित्र सिंधिया, ने छोड़ी राजधानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

विजयी मिली पर अँग्रेज़ों, फिर सेना घिर आई थी।
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुँह की खाई।
काना और मँडरा सखियाँ, रानी के संग आई थी।
युद्ध क्षेत्र में उन दोनों ने, भारी रार मचाई थी।

पर पीछे हयूरोज आ गया, हाय घिरी अब रानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

तो भी रानी मार काट कर, चलती बनी सैन्य के पार।
किंतु सामने नाला आया, था यह संकट विषम अपार।
घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार
रानी एक शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी, उसे वीर गति पानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी।
मिला तेज से तेज,तेज की वह सच्ची अधिकारी थी।
अभी उम्र कुल तेईस की थी, मनुष नहीं अवतारी थी।
हमको जीवित करने आई, बन स्वतंत्रता नारी थी।

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी।

जाओ रानी याद रखेंगे, हम कृतज्ञ भारत वासी।
यह तेरा बलिदान, जगायेगा स्वतंत्रता अविनाशी।
होये चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी।
हो मदमाती विजय मिटा दे, गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी।
ख़ूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसीवाली रानी थी।


सन सत्तावन, सत्यपाल भारद्वाज ( समीर )

(रचनाकार) सुभद्रा कुमारी चौंहान

जब मिट्टी मे दबी हड्डिया अंगडाई ले मचल रही थी,
सिर से बांधे कफ़न, जवानी अंगारो पर निकल पडी थी,
कंठ-कंठ से मुक्ति गान था, पग पग मे तूफ़ान भरे थे,
ह्रदय ह्रदय मे आजादी पर मरने के अरमान भरे थे।

शैशव झुलसा, जली जवानी उस दिन बूढ़े जूझ रहे थे,
धू धू करते महायज्ञ मे खिलते यौवन कूद पडे थे,
मिटे कोटि सिंदूर, असंख्यों हाथों की चूड़ी टूटी थी,
आजादी के उषा काल की, तब पहली किरणे फ़ूटी थी।

जिसके घाव भरे हैं लेकिन टीस न अब भी जाने पाई,
जिसकी याद दिलाती अब भी खूनी (ऊषा) की अरुणाई,
आजादी के महायज्ञ का पुण्य पर्व सन सतावन था,
पहला शंख बजा था, माँ के चरणो पर पहला अर्चन था।

युग से सुलगे ज्वालामुखियों ने करवट ले आग उगल दी,
तोपों के मंुह तोड़ मचलती दीवानों की टोली चल दी,
आजादी के प्रथम पृष्ठ वह गरम खून से लिखा गया था,
मंगल पांडे मरे, मुक्ति का पहला पत्थर रखा गया था।

पहली आहुती या फ़िर भड़की सुप्तप्राय जौहर की ज्वाला,
झांसी पागल हुई, जोश मे होश गोमती ने खो डाला,
चंडी सी पी आजादी की सुरा चली झांसी की रानी,
दीपशिखा सी जली, झुलस कर राख हुये गोरे सैनानी।

कानपुर का नाना, बुडढ़ी दिल्ली मे भी जोश भरा था,
मर मिटने के लिये देश के जन-जन मे तब रोष भरा था,
अरे और तो अवध के महलों मे अंगार भरे थे,
साकी के सुकुमार हाथ भी, उस दिन कर तलवार धरे थे।

कुँवरसिंह ने शंख फ़ूँककर क्रोधित कर दी और जवानी,
उन्मत था नाना, गुस्से से खौल उठा गंगा का पानी,
उधर तांत्या की तोपों ने गोरो का दल भून दिया था,
लेकिन गौरी तोपो ने भी क्या कम काला खून पिया थ।

गोरा शासन भी भारत के प्राणों से खुलकर खेला था,
तुम कहते विद्रोह ! अरे सन सत्तावन बलि का मेला था,
आजादी की बलि वेदि पर, लाखों प्राण प्रसून चढ़े है,
तनिक नींव को खोदो, देखो, रंग रंग के खून भरे है।

बीते डे़ढ़ सौ वर्ष, खून के दाग अभी भी तो गीले है,
टूटी-फ़ूटी सी समाधि पर अब भी तो स्वर दर्दीले हैं,
सुनो अरे जिस आजादी की हमने पहली ईंट धरी थी,
गरम-गरम लौह हड्‌डी से जिसकी गहरी नींव भरी थी।

अभी दूर हैं वह आजादी अभी दूर अंतिम मंजिल है,
हाथ ह्रदय पर रखकर देखों, कष्टों से जनता व्याकुल हैं,
कितने भूखे सो जाते हैं, कितने जन आसू पीते हैं,
आजादी के युग मे कितने दासों का जीवन जीते हैं।

अत: आज भी बढ़ों आजादी के पथ पर अब विश्राम पाप है,
होंगे कुछ बलिदान, मगर बलिदानों का प्रतिदान पाप है,
जिसकी नींव रुधिर पी बैठी, उसे पसीने से तो सीच्ंाो,
मझधारों से पार हो चुकी, नाव किनारे तक तो खींचो।

उन्ही शहीदों के सपनों को उठो आज साकार बना दो,
अकर्मण्यता के सागर मे महाक्रांति का ज्वार उठा दो,
मंगल पांडे बनो, आज फ़िर देशभक्ति का दुर्गम पथ लो,
महापर्व के पुण्यस्मरण पर मर मिटने की उठो शपथ लो।

है पावन त्यौहार, शहीदेंे का फ़िर से आह्वान करो तुम,
उसी नींव पर आजादी का महादुर्ग निर्माण करो तुम,
मिथ्था वादों के चक्कर मे पड़ो न, झूठे पाश तोड दो,
आज पुण्य अवसर पर जागो। बढ़कर उनकी धार मोड दो।

सत्यपाल भारद्वाज ( समीर )


स्वतंत्रता की मिठास, झवेरचंद मेघाणी

अरी स्वतंत्रता तेरे नाम में, यह कैसी मीठी वत्सला भरी !
मुर्दा मानव इससे जाग उठते, ऐसी कानसी इसमें मिठास भरी !
पूछ लेना किसी गुलाम से-
उठे कैसे प्रवाह उसके मन में
मिली मुक्ति जिस मंगल दिन।
कान में उसके शब्द पड़ा घ्तुम स्वाधीन!ङ आह कैसी सुख की घड़ी!
आँख में उसकी लालिमा, वक्षस्थल में कैसी तरगें छलक पड़ी!
अरी स्वतंत्रता..............
और हुई चेतना की मुक्ति,
वह दैन्य कहाँ विलीन हुआ?
ह्रदय पुष्प उसका झूम उठा ।
उसके मस्तक ने नमित होना भूल, नभ की ओर दृष्टि डाली,
मिटी उसकी दीन ह्रद- तंरग, औङ सुंदर जग उपवन में विचरने लगी ।
अरी स्वतंत्रता..............
पडँू कारागार कक्ष में,
लटकूँ फ़ाँसी के फ़ँदे
लगे लाखों तोप-गोले,
तेरा हाथ हो ललाट पर, तो भले आए तुम पर जुल्म की झड़ी !
तेरा नाम हो मुख पर, तो फ़िर भीति क्या, ओ मातृ-भू मेरी !
अरी स्वतंत्रता..............
काल रात्रि सर्वत्र गर्जना करें,
लक्ष शापित बंधुजन बड़बड़ाएँ,
स्नेही वैरी बन रोएँ- अकुलाएँ ।
छिपे रवि - चन्द्र - तारे, मध्य सागर में नाव मेरी,
तब देखूँ दूर टिमटिमाती, तेरी मंद प्रकाशित दीप देहरी।
अरी स्वतंत्रता..............
मेरे देश के सभी शोषित
दुनिया के पीड़ित औङ तापित,
हर कोने में गाते तेरे गीत।
भूखे पेट उनके, तब भी कैसी अमूल्य तू उन्हें, कैसी मिठास भरी !
उनके बोड़ियों के बंध टूटेगें, इस आशा से सारा विश्व खड़ा।
अरी स्वतंत्रता..............

झवेरचंद मेघाणी

शहीदो के बारे मे, राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर

अन्धा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा
जो चढ़ गए पुष्प वेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम आज उनकी जय बोल।

शाहबाद मे क्रान्तिकारी बाबु कंुवर सिंह के सम्बन्ध मे प्रचलित लोकगाथा।

बाबू कुंवरसिह तेगवा बहादुर
बंगला पर उडता अबीर
होरे लाला बांग्ला पर उडता अबीर।

क्रान्तिकारी राणा बेनी माधो सिंह के सम्बन्ध मे प्रचलित लोकगाथा।

अवध मे राणा भयो मरदाना
पहली लडाई भई बक्सर मे
सिमरो के मैंदाना
हुवा से जाय पुरवा मा जीव्यो,
तबैं लाट घबराना।
अवध मे भयो मरदाना
भाई,बन्धु औं कुटुम्ब कबीला
सबका करौं सलामा
तुम तो जाय मिल्यो गोरन ते
हमका हैं भगवाना,
अवध मे राणा भयो मरदाना ।
हाथ मे माला , बगल सिरोही
घोडा चले मस्ताना,
अवध मे राणा भयो मरदाना।

कुंवरसिंह के भाई अमरसिंह के सम्बन्ध मे प्रचलित लोकगाथा।

राम अनुज जगजान लखन,
ज्यो उनके सदा सहाई थे।
गोकुल मे बलदाऊ के प्रिय थे,
जैंसे कंुवर कन्हाई थे।
वीर श्रेष्ठ आल्हा के प्यारे,
ऊदल ज्यो सुखदाई थे।
अमर सिंह भी कंुवर सिंह के
वैंसे ही प्रिय भाई थे।
कुवरसिंह का छोटा भाई
वैंसा ही मस्ताना था,
सब कहते हैं अमर सिंहभी
बडा वीर मर्दाना था।

गीत चेतावणी रा, कविराजा बांकीदासजी रो कह्यो

आयो इंगरेज मुलक रै ऊपर, आहंस लीधा खैच उरा।
धणियां भरे न दीधी घरती, धणियां ऊभां गयी धरा।।
फ़ौजां देख न कीधी फ़ौजां, दोयण किया न खळां-डळां।
खवां-खांच चूडै खावंद रै, उणाहिज चूडै गयो यळा।।

छत्रपतियां लागी नहँ छांणत, गढपतियां धर परी गुमी।
बळ नहँ कियो बापडां बोतां, जोतां-जोतां गयी जमी।।
दुय चत्रमास वादियो दिखणी, भोम गयी सो लिखत भवेस।
पूगो नहीं चाकरी पकडी, दीधो नहीं मडैठो देस।।

वजियो भलो भरतपुर वाळो, गाजै गजर धजर नभ गोम।
पहलां सिर साहब रो पडियो, भड़ ऊभां नह दीधी भोम।।
महि जातां चीचातां महिलां, अै दुय मरण तणा आवासांण।
राखो रे कींहिक रजपूती, मरद हिंदू की मूसळमांन।।

पुर जोधांण, उदैपुर, जैपुर, पह थांरा खूटा परियांण।

आंकै गयी आवसी आंकै, वांकै आसल किया वखांण।।

1857 का राष्ट्रगीत

हम है इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा,
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा।

ये है हमारी मिल्कियत, हिन्दुस्तान हमारा,
इसकी रू हानियत से, रौशन है जग सारा;

कितना कदीम कितना नईम, सब दुनिया से न्यारा,
करती है जरखेज जिसे, गंगो-जमन की धारा।

ऊपर बर्फ़ीला पर्वत, पहरेदार हमारा,
नीचे साहिल पर बजता, सागर का नकारा;

इसकी खानें उगल रही, सोना, हीरा, पारा,
इसकी शानो शौकत का, दुनिया में जयकारा।

आया फ़िरंगी दूर से, रेग्सा मन्तर मारा,
लूटा दोनों हाथ से, प्यारा वतन हमारा;

आज शहीदों ने है तुमको, अहले वतन ललकारा,
तोड़ो गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा।

हिन्दू, मुसलमां, सिख हमारा भाई-भाई प्यारा,
ये है आजादी का झन्डा, इसे सलाम हमारा।

(सन 1857 में राष्ट्रध्वज की सलामी के समय जगह-जगह में यह गीत गाया जाता था। मूल गीत 57 क्रांति-अखबार च् पयामे-आजादी छ में छपाया गया था। जिसकी एक नकल ब्रिटिश म्युजियम लंदन में आज भी मौजूद है।)


1857 का लोकगीत

बारी बैस रानी घुडला पै निकरी
हाथन में ढ़ाल तलवारि
तुम मति निकरौ रानी
बारी से उमरिया
गोरन की फ़ौज अपार
बारी बैस------------।।

छोटी-सी पल्टन
प्यारी रे रनियाँ
पैदर और सवार
बारी बैस-------------।।

खाई खँदक
बन के जिनाबर
काँटेन की भरमार
बारी बैस-------------।।

कटि-कटि शीश
गिरे धरती पै
खून की बहि गई धार
बारी बैस-------------।।

रात दिना मयो
मुज्जरे भारी
रनियाँ गई स्वर्ग सिधार
बारी बैस-------------।।

राजस्थानी गीत

गीत भरतपुर रो
कवीराजा वांकीदासजी रो कह्या

उतन विलायत किलकतां कानपुर आविया,
ममोई लंक मरदास मेळा ।
यलम घुर वहरग अंगरेज दाटण यळा,
भरतपुर ऊपरा हुवा मेळा ।।

अली मनसूर रो वंस कीघी श्रसत,
रेस टीपू विजै त्रंबट रड़िया ।
लाट जनराळ जरनैल करनैल लख,
जाट रै किलै जमजाळ जुड़िया।।

सैन रीजमट असंख पलटरगां तरगै संग,
भड़ तिलंग बंग किलंग तरगा भिळिया ।
अभंग वजद् रै दुरंग मिळिय,
मारका वजंद्र रै दुरंग मिळिया ।।

सराबां बोतला पीयां छक-छक सड़क,
किया निधड़क हिया हरवळां कोप ।
वीर रस ओपियां हलां विध-विध वधै,
टोपिया दवादस तरगा टोप।।

पीठ बड़बड़ात कूरम छटा प्रळैरी,
मही ख़डख़डात हैचम मचोळां।
मुनि हड़हड़ात धड़ड़ात तोपां महत,
गयरग ग़डड़ात पड़झाट गोळां।

अरक दुत सोम सम नमै लोयरगां असम,
घूआं तम तोम लग घूरां घूरां।
तठै सूर लड़ैता थटै घरग तंदूरा,
हरख सूरा निरख रंग हूरां।

करै तदबीर गोरा चठण कांगुरां,
तिलंग फररै फुरत फैल ताळी।
छूट पिसतोल पड़होल सैयर छिलक,
कराबीण सिलक किलक काळी

तुरां खुरताल वज तूर तासा त्रंबट,
माळ फरहर गजां धजां माळा ।
अडण अणडोल जाटां पत आवियों,
तोल खग कपाटां खोल ताळा ।।

आग झड़हड़ै डूंडै रमै रण आंगणे,
नाग फरग नमै करै ससत्र नागा ।
कठा लग कवादी व्युह रचना करै,
लठावन तरगा भड़ लड़ण लागा ।।

धडां सिर जोम ताजै धड़ां धमाधम,
कांगुरां तरफ वाजै कुहाड़ा ।
किलो गीरघरण ओळै रयण बंधकडा,
विरोळै चोवड़ा फिरंग वाळा ।।

दिया सूजा तरगै पैंड तोपां दिसा,
सफोला तरण नह लिया सररगा ।
वीजलां रीठ पावै सझा विलावै,
विजा करपूर करपूर वररणा ।।

अणी जटवाड़ वीरां तणी आकळै,
विवध तीरां तरगी मची वरख ।
हसम अंगरेज री आठ वाटां हुई,
पुर पाटां हुई रुघर परखा ।।

अरांबां तरगो अ स बाब अपरगवियों,
भट किलकिता तरगो भागौ ।
आड रोपी वज्रंद झीक वागो असंभ,
लीक टोप पटक पंथ लागौ ।।

अमावड़ वनां मे हुई लोथां अनंत,
चठै घोड़ां वात दिगंत चाली ।
साथरा दिरांणा हजारां साहिबां,
खुरसियां हजारां हुई खाली ।।

अण खरब कळह तर कहै दुज ऐकठा,
गरब वां किताबां तरगा गळिया ।
थया बळहीण लसकर फिरंगथांन रा,
चीरग इरांन रा इलम चलिया।।

मेर मरजाद ररगजीत आखाडमल,
खेर दीघा डसरग जवर खेटै ।
पुखत गुरगम मिळी सेन परग पांकियो,
भरतपुर फेर नह उसर भेटै ।।

गीत भरतपुर रो
वीराजा वांकीदासजी रो कह्यो

पेलै कवादी तलंगां चाड़ा जंमी राग घोरे पोख,
महा जोम आपरंगी लीक सोबा मोड़ ।
गैरग थंभ तूटै क्यूं भरत्थांनेर चक गोरै,
ठोरे खंभ रांम केसो किवाडां री ठोड़।।

तीर तोपां कराबीरगां दूधबीरगां लाया तोल,
बोल फेर उडाया पाखांरग तेरग बांरग ।
किल रैरग वाळै माया आसुरां न लागै कजी,
ऐवजी फाटकां था पाहली चकियांरग।।

लाग खाई पूरे पाटां खहे कंपू खेध लागा,
वहै खाटां घायलां निराटां भीमवार ।
केम भागै लाट राटां जाट राटां वाळो कोट,
कपाटां ठिकांणां ऊभा नंद रा कुवार ।।

भुरज्जाळ आया श्री गोपाल कांसराळ भीर,
निराताळ चाळ बांघै जितौ सुजानंद ।
लेर वीड़ो कंपनी सूं जमीदीर थांन लेवा,
फौजां करै फिरंगी न नांखै फेर फंद ।।

गीत नींबावतां रै महंत रो
कवीराजा वांकीदासजी रो कह्यो

हुवो कपाटां रो बोहतै फिरंगी थाटां रो हालो,
मंत्र खोटा घाटा रो उपायो पाप भाग ।
भायां भड़ां फाटां रो हरीफां हाथे दीनो भेद ।
ऊभा टीकां वाळां कीनो जाटां रो अभाग ।।

माल खोयो ज्यांरो त्यांरो रती हीयै नायो मोह,
कुबदी सूं छायो भायो नहीं रमाकंत ।
वेसासधात सूं कांम कमायो बुराई वोळो,
माजनो गमायो नींबावतां रै महंत ।।

भूप बिया च्यारु संप्रदायां रो भरोसो भागे,
लागो काळो सलेमाबाद नूं गाडा लाख ।
नागां मिळो साहवां सूं भिळायो भरत्थानेर,
राज कठी-बंधां रो मिळायो घूड़ राख ।।

आगरा सूं लूट सूजै ऐकठो कियो सो श्रारंगै,
खजानो अटूट ताळा लटीजियो खास ।
कंपणी सूं वेध मोटै जागियां पालटै किलो,
वैरागीयां हूंतां हूंवौ जाटां रो विणास ।।

डूंगरपुर रा सोरठा
(महडू दलती रा कह्या)

लाणत लूंण हरांम जसवंत में कीघी जका,
कुळ विदरां रो कांम सावत तो में सादळा।
हमकै अजमल होत अंसघारी वाग़ड इला,
गठ छोडै दबलोत जातो नह रावळ जसो ।।

(दूहा)

ओठै सिर ओंठरगी सह भड़ मांगी सीख,
तुरकां रा ताबुत ज्यु, मेल चल्या मछरीक ।
जसवंत नै गिणगोर ज्यु, मेल तीरथ मंझार,
आया सांवण गावता सांभरीया सिरदार ।।

(ख) गीत डंूगरपुर रो
महडू दलती रो कह्यो

मूंघा हालरा उगेर, वथा पालरगै हिंडाया मात,
पोख केण, कारणै, जीवाया थांनै पीव ।
लोकां लाज घाररगै, फिरंगी हूंत झाट लेता,
जैर खाय घणी रै, बारणै देता जीव।।

आघा जाता मूंडौ लेर, पाछाई न श्रावणो छौ पीव,
करै सारा भेळा, क्यूं गमावणौ छौ कूत ।
आवरू  थावतां वठै पीवरगो सही छो आक,
जीवणो नहीं छौ, घणी जावतां जसूंत।।

देखो वैरागिरां छाप, वडां नूं लगाय दीधी,
आवगी हरांनखोरी, माथै लीधी श्राज ।
कहो घरगी गमावै, सावतां आवै कीधी,
लुच्चा सारा देस री गमाय दीघी लाज ।।

छोडै लीक छाप माथै, वडां रीन घारी चाल,
खोटी सला विचारी, लगाई कुळां खोड़ ।
नौरा ले ले पीव सूं सांभरिया तगरी कहै नारी,
मेल आया सारा छत्री परगां री भरोड़ ।।

कवित आप्पाजी भोंसला रो
मानसिंहजी रो कह्यो

आये हो सरण जान मान कमघेस मोंको,
मानत हूं धन्य-धन्य ऐसो श्रवसर मैं ।
लोक बीच याही काज बाजत है छत्री हम,
यातैं श्रब सफल करोंगो भुजवर मैं ।।

नीगपुर-नाथ जिन आपको अनाथ जाणो,
रावरे निमत कर दीनौ सर-धर मैं ।
राखिहों सजत्न यों सुरेस सों बचाय कर,
राख्यो हिमगिरि पुत्र सिंघु ज्यो उदर में ।।

गीत मानसिंहजी रा
लाळस नाथूरामजी रा कह्या

महाराज मांन मुरधार माथै चमु फिरंगी नांह चठै ।
रै! जारगै सूरजवाळो रथ, कासी सूं आंतरै कठै ।।
मारवाड़ ऊपर फिरंगी मिळ, पर दळ घोड़ा ख़डै न पास ।
सिवपुर हूंता दुसरा हेतो सुर बगल काठै सपतास ।।

गोरा मिलै जोघपुर गठ सु कटक गूर ठळ जाय कहैं।
सिवपुर भांण विमांण सदाई, वामों के जीमणौ बहै ।।
कासी सथर धणी नव कोटी, समंद अथाग कंपनी साथ ।
बेड़ा पार उतारण बाबो, नेड़ा भीड़ जलंघर नाथ ।।

फैले फिरंगाण करारी फौजा, श्राफळती मारी श्रवियाट ।
घारी मांन भुजा छत्रधारी, राजां री सारी रजवाट ।।
जिण रो जग साखी जोधपुरो, नह दासी जुघनाट ।
खत्रियां री आखी खडेचा, खवां भली राखी खत्रवाट ।।

आठ दिसा तापौ अंगरेजो, हीमत छापौ खळां हणां ।
फतै तेग जहान फैलता,ं घरगा राज़डंड रांन धणां ।।
राजा हिन्दवसथांन राखियो तौ भुजडंड गुमान तणां ।

गीत मानसिंहजी रो
चैनजी रो कह्यो

मेळै सुभटां वाळा आया हिंदवांरग मांहे,
जठै सारी प्रथा-राजा पाय लागा जाय ।
गुमनेस नंद तठै अगंजी जोघारण गादी,
इंद नरां न कीघौ सरदो सांमां आय ।।

तिलंगां हाजरी लेतां लजातां अगंजी तोपा,
भेचकै सारी दसूं दिसां तरणा भूप ।
हुआ मदां उतार गयंद जेम सारा हटै,
राजा जठै खीज राया कंठीर चै रुप ।।

गोरां हूंत राजा रांरगां राव दूवां छोड़ै देस।
दीपै हेक हुक्कमां समस्तां हिंदू देस ।
सारी प्रथी सिधो विजाहरो छाजै दीह साजै,
नाथ रै प्रताप गाजै हिंदवां नरेस ।।

दानां री उझेळ वीक भोज ओळै जाय दुरै,
वसू सिंध कानां री कीरती हुई वाद ।
भूमडलां वीच नुपां आंन री जोवतां यत्री,
मानसिंह भुजां राजथांन री त्रजाद ।।

गीत मानसिंहजी रो
लाळस नवलजी रो कह्यो

श्राया लाट रा खलीता वाचतंई धकै लाय ऊभौ,
घरै हाथ मूंछा छाप ऊभौ कोघ घींग।
श्रापरै भरोसे राग जांग़डो दिराय ऊभौ,
साय ऊभौ जनेबां खांग़डो मानसींग ।।

आम लागां गोरा-दळा छोडियां न काठै श्रागो,
प्रथी सारी आपांण छोडियां वहै पांण ।
रोड़ियां नगारो ठहै नहै मानै टकलो राजा,
जिकां सतोड़ियां वहै हेकलो जोधांरग ।।

तुटै कळा छूटै ठोड़ ठोड़ री खंचारगी तोपां,
लाखां हाड़ा गोड़ री कुरम्मां श्राडी लीक ।
जोड़ रा ठिकारगां धरगा मगजी मेलदी जठै,
तठै रही राठौड़ री हेक चोक तीख ।।

फिरी वागां जठीनै चलाई पातसाही फोजां,
भुजां लाज भळाई सदाई श्राई भाय ।
रुठियां घूंघळी नाथ कळांई ऊजळी रुकां,
मारवाड़ां दिल्ली नै मिलाई घूड़ मांय ।।

भांजै चोक हरोळां अरिग रा उतोळियां भालां,
धकै तरगो मेलियां जरगी री रीस घूत ।
रही आंट करगी री जींवार सिद्धराज राखी,
साजी बाजी नवां कोटां धणी री सबूत ।।

संग्रामां संभावै वीज जुळा कसां आय सामै,
रेण एक थोड़ा नांमै थावै असी रीत।
न मावै फिरंगी हिदूथांन कीधौ पाय नांमै,
आप नांमै नाज खाधौ विजाई अजीत ।।

गीत डूंगजी जवारजी रो
गिरवरदान रो कह्यो

(दूहा)

सेखावत जळहर समर, फिर चळवळ फिरंगांरग ।
प्रथी सैग कळहळ पड़ै, भळहळ ऊगां भांरग ।।

खावै श्रातंक श्रागरो, खापां न मावै भ्त्रमावै खळां,
घावै थावै अजांरग लगावै चौड़े धैस ।
ऊगां भांरग नाग वंसां माथै खगां राज आवै,
दावै लागो पजावै फिरंगी वाळा देस ।।

कंपू मार तेगां ताळी सो कुरंगी कीघी,
जका बाद नौरंगी प्रजाळी भुजां जोम ।
मांनू तारकी विरंगी काळी घड़ा माथै,
भूप डूंगै विघूंसी फिरंगी वाळी भोम ।।

पड़ै घाका दिल्ली वंस, कूरमां चाठवा पांरगी
आप मतै सेस घू गाडवा जोम श्राठ ।
काकोदरां माथै कगांघीस ज्यूं काठवा केवा,
लागो केड़ै वाठवा हजारां जंगी लाठ ।।

तूटौ वोम चाट निराताळ सो विछूटो तारो,
केता छूटौ पीरांरग आळखां ताकै कूप ।
कोप रूद्र-माळका विहंगांनाथ जूटो कना,
रुठौ गोरां माथै प्रळै काळ को सो रुप ।।

भलौ भाई सेखा राळै विखेर सारकी भींत,
सारां सिरै छांवरगी मारकी सोज सोज ।
मिळै थाट सबोला तारक्खी काळी घड़ा माथै,
फिरै दोळी भारक्खी भूरियां वाळी फौज ।।

गीत डूंगजी जवारजी रो

दाव लागा जमीं घरगां हिये दूखिया दोयणा दूठ,
प्रवाड़ा अचूकिया ले भू - दंडां पांडीस ।
जंवारो भोपाळ डुंगो दुहत्था भूखिया जंगां,
सेखा चाले ठूकिया विरुत्थां गोरां सीस ।।

नाथिया उनत्थां नत्थां विरुद्रां वठोठ नाथ,
सिंह ठोळा साथियां सबोळा लीघा संग ।
घासाहरां दीघा घेर बिभाड़ै हाथियां घड़ां,
वेघ लागा कीघा घू विलातियां वरंग ।।

कंठीर काटके छूटौ सांकळां राटके कनां,
मेलै चमू थाटके एरहां सत्रां मीच ।
केवाण झाटके वाठ झाड़िया भरियां कंधां,
विमाड़िया लाटके बूरिया घोरां वीच ।।

पोत रा सेवा जंगी घुरावै सतारा वार,
घावै खळां खतारा भूदंडां घाड-घाड।
अबीह भतारा डंका आवै सदा श्राढवारां,
कंपनी जड़ावै किळकत्ता रा किवाड़ ।।

गदर-संबंधी दूहा
मीसरग सूरजमाल रा कह्या

वीकम वरसां वीतियो गरग चौ चद गुरगीस ।
विसहर तिथ गुरु जेठ वद समय पलटी सीस ।।

जिरग वन भूल न जांवता गैंद, गवय ग़िडराज ।
तिरग वन जंबुक ताख़डा ऊधम मंडै श्राज ।।

मूंछ न तोड़ौ कोट में, कठियां छोड़ै काळ ।
काळां घर चेजो करै मूसा परग मूंछाळ ।।

डौहै ग़िड वन वाड़िया, द्रह ऊंडा गज दीह ।
सीहरण नेह सकैक तौ, सहल भुलारगौ सीह ।।

सीह न वाजौ ढाकुरां, दीन गुजारौ दीह ।
हाथळ पाड़ै हाथियां, सौ भड़ वाजै सीह ।।

इकडंकी गिरग ऐकरी, भूलै कुळ साभाव ।
सूरा आळस-श्रैस में, अकज गुमावी श्राव ।।

तन दुरंग अर जीव तन, जठणौ मरणौ हेक ।
जीव विणट्ठां जे कठौ, नांम रहीजै नेक ।।

कायर घर ऊठा कहै, की घव ! जोड़ै कांम ।
करग करग संचै कीड़ियां, जोवै तीतर जांम ।।

टोटै सरकां भींतड़ा, घातै ऊपर घास ।
वारीजै भड़ झबंपड़ा अघपतियां आवास ।।

महलां लूटरग धाड़वी, झूंपड़ियां न सुहाय ।
झूंपड़ियां री लूट में जीव सीलरगै जाय ।।

आउवा रा गदर - संबंघी फुटकट दूहा

चवदा उगरगीसे चठे जे दळ आया जांरग ।
रह्या आउवै खेत ररग पूतळियां पहचांरग ।।

हुआ दुखी हिंदवारग रा रुकी न गोरां राह।
विकट लड़े सहिया विखो वाह आउवा वाह ।।

फिर दोळा आळगा फिरैंग रण मोळा पड़ रांम।
ओळा नहॅ ले श्राउवो, गोला रीठण गांम ।।

फजरां नेजा फरकिया रजरां तोपां गाज ।
नजरां गोरां निरखियां अजरां पारख श्राज ।।

घुड़ला वण घूमै घणा, घट बहु लागा घाव ।
कटिया फिफर काळजा, आंतड़ियां पग श्राव ।

अजंट श्रजको श्रावियो, ताता ख़डै तुखार ।
काळा भिड़िया किड़ कनै, घीब लिखो खग घार ।।

फीटा पड़ भागा फिरंग, मेसन श्रजंट मराय ।
घाले डोली घायलां कटक घरगे कटवाय ।।

फिरिया दळ फिरॅगांण रा, थरहरिया लख थाट ।
करिया जुघ खुसियाळ सूं, मरिया श्राळे माट ।।

प्रसणां करवा पाघरा घट री, काठण छंछ ।
कोघीला खुसीयाळ री, मिलै मुंहारां मुंछ ।।

उडंडां वागां ऊपड़ै, तेग झड़ै जण तंत ।
कर मीठी खुसियाळ सूं , कुसल मनाजो कंत ।।

काळां सूं मिळ खुसळसी टणकै राखी टेक ।
है ठावो हिंदवाण में श्रो श्राऊवो श्रेक ।।

घन घोरां तोपां घुरै, वजै हाक विकराळ ।
लहर ले अछरां लखो, कबडी खेलै काळ ।।

थिर रण अरियां थोमणो, नघपुर पूगो नांम ।
आऊवो खुसियाळ इळ, गावै गांमोगांम ।।

नाना साहब का तीर्थाटन

रचनाकार : श्रीकृष्ण सरल
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007,
अंक : 1, पेज न. 31

थे नाना साहब धोंधोपन्त पेशवा जो,
उस क्रांति-यज्ञ के वे ही बने पुरोधा थे,
वे कुशल खिलाड़ी राजनीति के तो थे ही
वे सेनानी, रण-संचालक, वे योद्धा थे।

सोने में क्या मिल सका सुहागा कहीं कभी
यह तथ्य अभी तक कोई नहीं जानता है,
पर नाना साहब और अजीमुल्ला मिल कर
सोना-सुहाग वे थे, हर व्यक्ति मानता है।

यदि एक शौर्य था और पराक्रम था सदेह
दूसरा, दाव-पेचों का कुशल खिलाड़ी था,
यदि एक रीतियों का व्यवहार-रूप था, तो
दूसरा नीतियों में दो कदम अगाड़ी था।

सौभाग्य रहा यह नाना साहब का सचमुच
बेजोड़ व्यक्ति अपने युग का जो, पाया था,
अँग्रेज़ जाल में उलझे और छटपटाए
दोनों ने मिल कर ऐसा जाल बिछाया था।

योजना बनी अनिवार्य युद्ध हो गया हमें
अब बिना लड़े हम मुक्ति नहीं पा सकते हैं,
पहले जैसे यदि बिखरे-बिखरे रहे सभी,
अपनी मंज़िल तक हम कैसे जा सकते हैं।

थे धूर्त प्रवर लेकिन अँग्रेज़ लोग ऐसे
वे सारी गतिविधियों को सूँघा करते थे,
जासूस लगे रहते सबके पीछे उनके
वे उसे सूँघते, जहाँ कदम धरते थे।

नाना साहब ने घोषित किया सभी में यह
परिवार सहित जा रहा तीर्थाटन को मैं,
उद्देश्य देव-दर्शन करना है हम सब का
कुछ शांति चाहता देना अपने मन को मैं।

अभिनय इतना परिपूर्ण रहा उन सब का ही
संदेह न पनपा कहीं किसी के दिल में,
कहने-सुनने वालों ने सब कुछ कहा-सुना
यह हुआ कुशल जासूसों की ही महफ़िल में।

जो सब कुछ कर सकने में रहते सक्षम, वे
जासूस नहीं कुछ भी जासूसी कर पाए,
थोड़ा पीछा भी किया, भेद कुछ पा न सके
मुँह लटका कर, वे उन्हें छोड़ वापिस आए।

हो सु-प्रबंध, कठिनाई नहीं तनिक भी हो
थे साथ अजीमुल्ला, वे बने प्रबंधक थे,
कर रहे व्यवस्थाएँ वे सभी दूर अच्छी
वे बहुत वाक्पटु और कुशल संचालक थे।

पर कोई किंचित् भेद नहीं यह जान सका
नाना साहब मंत्रणा गुप्त करते जाते,
मेहमानी करना तो यह एक दिखाना था
वे थे विचार की चिनगारी धरते जाते।

वे कहते अब आ गया समय हम सब मिलकर
यह जुआ दासता का झटका दे फेंकेंगे,
अँग्रेज़ों से अब हमें निबटना ही होगा
वे भूल न पाए, हम ऐसी टक्कर देंगे।

संदेह नहीं, की भूल हमेशा की हमने
मिलकर फ़िरंगियों से लोहा हम ले न सके,
हम एक-एक कर लड़े, पराजित हुए सदा
सम्मिलित रूप से टक्कर उनको दे न सके।

जो सुबह भूल कर संध्या को घर आ जाए
तो ऐसा भूला, भूला नहीं कहाता है,
प्रायश्चित कर लें यदि हम लोग समय रहते
अपराध-बोध का दंशन कम हो जाता है।

अपनी भूलों का प्रायश्चित केवल यह है
योजना बना कर, हम मिल-जुल कर युद्ध करें,
जो हम सब का है शत्रु पराजित करें उसे
अन्यथा युद्ध करते-करते हम जूझ मरें।

जो पाप लद गया अपनी देश धरा पर है
उस पाप और पाप को जड़ से खोदें हम,
युग-युग अजेय हैं, यदि मिल कर हम एक रहें
ऐसे विचार अब जन-मानस में बो दें हम।

मैआया हूँ, केवल यह कहने आया हूँ
विस्फोट भयंकर जल्दी होने वाला है,
छिड़ने वाला है बहुत शीघ्र स्वातंत्र्य समर
गोरों का होने वाला अब मुँह काला है।

यह वर्ष अठारह सौ सत्तावन आ धमका
तेईस जून को रण का बिगुल बजाना है,
बाईस जून को हारे थे हम प्लासी में
इसलिए एक दिन आगे को खिसकाना है।

सौ वर्ष पूर्ण होते बाईस जून को ही
उसके आगे, हम नहीं एक दिन ठहरेंगे,
हम प्रलय-प्रभंजन जैसे अरि पर अर्रा कर
हम उमड़-घुमड़ बरसेंगे, उस पर टूटेंगे।

यह प्रेरक उद्बोधन राजा-रानी सुनते
वे शपथ उठा कहते, हम साथ निभाएंगे,
कर रहे प्रतीक्षा हम उस पुण्य-घड़ी की हैं`
क्या कहें अभी, हम करके ही दिखलाएंगे।

नाना साहब ने घूम-घूम कर सभी दूर
इस भाँति क्रांति का ताना-बाना बुन डाला,
राज रजवाड़े और नवाब-बेगमें सब
कर रहे प्रतीक्षा थे, धधके भीषण ज्वाला।

तात्या टोपे का पराक्रम

रचनाकार : श्रीकृष्ण सरल
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007,
अंक : 1, पेज न. 37

रॉबर्ट्स हुआ उसे, फिर जा पहुँचा
उस जगह, जहाँ तात्या के सम्मुख चंबल थी,
पूरे उफान पर, पूरे यौवन पर भी वह
अपनी गति से तो वह सदैव ही चंचल थी।

स्वीकार चुनौती तात्या ने की, कूद पड़ा
चंबल भी उसके पथ को रोक नहीं पाई,
उसकी सेना भी उसके पीछे कूद पड़ी
इस बार विजय-श्री तात्या ने ही पाई।

कर मान भंग चंबल का तात्या जा पहुँचा
वह जहाँ गया, वह राज्य झालरा पाटन था,
तात्या को आया देख नरेश हुए तत्पर
तात्या से भिड़ने का, खदेड़ने का मन था।

सेनापति को बुलवा, जो सेना भिजवाई
वह बहुत लडाकू थी, विशाल थी, भारी थी,
वह अधुनातन रण-साम्रगी से सज्जित थी
विकराल युद्ध करने की हर तैयारी थी।

पर तात्या के सम्मुख जाते ही फिसल गई
वह लगा रही थी तात्या के जय के नारे,
रण-सामग्री सारी, तात्या को भेंट चढ़ा
निज कुशल मना, वापिस आए योद्धा सारे।

मिल गई शक्ति थी नई वीर तात्या को यह
तोपों, तलवारों, घोड़ों का उपहार मिला,
थी विपुल रसद भी हाथ लग गई तब उसके
बारूद और बंदूकों का भंडार मिला।

इस बार निकल कर वीर उदयपुर जा पहुँचा
अगला पड़ाव उस योद्धा का प्रतापगढ़ था,
इसके आगे था मेजर रॉक मार्ग रोके
अनुरूप नाम के, रॉक शिला जैसा दृढ़ था।

पर तात्या का पथ वह भी रोक नहीं पाया
सीधा हमला कर, वह सेना को चीर गया,
हतप्रभ होकर, लज्जित होकर रह गया रॉक
वह रहा खड़ा और वह वीर गया।

अवरोध रौंदते और रौंदते मार्ग बना
देवास पहुँच कर ही वह चक्रवात माना,
दुर्भाग्य देखिए, गोरी सेना रही वहाँ
कुछ गोरे लोगों नें तात्या को पहचाना।

वे हर्षित हो चिल्लाए, तात्या-तात्या यह
पकड़ो! मारो! इस बार निकल कर जा न सके,
इसकी मंज़िल हो जेल और गर्दन-झूला
दूसरी और मंज़िल यह कोई पा न सके।

पर वह तात्या था, छू न सके वे छाया तक
वह गया, गया वह, वीर हुआ छू-मंतर था,
'था अभी यहाँ, था अभी यहाँ, अब कहाँ गया?'
गूँजता हवाओं में गोरों का यह स्वर था।

देवास राज्य में उसने गोता साधा तो
वह जाकर गोताखोर ठीक अलवर निकला,
अलवर में भी तो उसने चैन नहीं पाया,
पाड़ौन ग्वालियर का, पड़ाव था अब अगला।

दस मास घूमता रहा प्रभंजन जैसा जो
गौरांग शत्रु छू सका नहीं जिसकी छाया,
जो हाथ-हाथ भर की दूरी पर रह कर भी
हो गया लोप, दुश्मन के हाथ नहीं आया।

अनुहार लिए था चक्रवात की जो तात्या
जिसकी गति कोई भी रोक नहीं पाया,
तुम कहाँ जा रहे? खड़े रहो! यह कर कर भी
कोई सेनापति जिसको टोक नहीं पाया।

जो चलते-चलते सेना नई बना लेता
जो नैसिखियों को योद्धा बना लड़ा देता,
तगड़े से तगड़ा दुश्मन भी आ जाता, तो
उस दुश्मन को वह भी उत्तर तगड़ा देता।

जो आँख-मिचौली खेला करता दुश्मन से
कैसा भी दुश्मन जिसका दामन छू न सका,
रह गई हाथ मलती सेनाएँ, सेनापति
मन क्या छूता, कोई उसका तन छू न सका।

उफनाती बल खाती नदियाँ यदि अकड़ीं, तो
उन वेगवती धाराओं को वह चीर गया,
पथ रोक न पाए सघन गहन वन भी उसका
वह गया, रामजी का हो जैसे तीर गया।

यदि पर्वत में अवरोधक बन खड़े हुए
वे रहे देखते, मर्दित उनका मान हुआ,
जब वीर तात्या उन्हें लाँघ कर चला गया
तब अपने बौनेपन का उनको भान हुआ।

आँधियों और तूफानों ने पथ रोका, तो
वह उन सब को भी डाट-डपट कर चला गया,
जो उसको उलझाने लड़ने-भिड़ने आया
वह काट-कूट कर सुलझ-निबट कर चला गया।

जो हुआ लोकप्रिय आँग्ल-देश में भी इतना
कोई गोरा सेनापति जितना हो न सका,
हौसले बुलंदी छूते रहे सदा जिसके
जो किसी परिस्थिति में भी धीरज खो न सका।


1857 का 'आल्हा'

रचनाकार : पी. एस. वर्मा
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007,
अंक : 1, पेज न. 63

'आल्हा' का नाम ही मृत प्राय लोगों में प्राण फूंकने के लिए काफी है। महोबे के आल्हा और ऊदल के पराक्रम और उनके युद्धों का बखान करने वाला लोक-काव्य है आल्हा। 1857 के स्वातंत्र्य समर पर भी एक आल्हा लिखा गाय है। बुलन्दशहर के साहित्यकार पी. एस. वर्मा ने आल्हा की लय में वर्ष 1930 में इस समर पर एक कविता लिखी थी। इसमें भी 'आल्हा' की ओजस्विता और तेवर ज्यों के त्यों मौजूद हैं।

परब्रह्म परमात्मन्, सम्पूरण गुण-खान।
आल्हखण्ड जो मैं रचूं, सफल करो भगवान्‌।
सुमिरि भवानी जगदम्बा को, अरू शारद के चरण मनाय।
आदि सरस्वती तुमको ध्याऊँ, माता कण्ठ विराजो जाय।।
जंग कहूँ में आजादी की, जामें सफल करो मोइ माय।
शुर करू हूँ मैं अब इसको, सुनलो सकल सभा चितलाय।।
ऐसौ राज फिरंगी आयौ, परजा रही बुत अकुलाय।
इसी वजह से सत्तावन में दीनों यहाँ पर गदर मचाय।।
हाल सुना दें कुछ उसका भी, किस्सा साफ समझ आ जाय।
पूना के नाना साहब पेशवा, उनको दिया बिठूर पठाय।।
जब्त किया सब शासन उनका, लिया अपने में उसे मिलाय।
करी जब्त फिर पिंशन उनकी, दीना ऐसा हुकम सुनाय।।

इसी तरह से और भी, छीने राज अनेक।
महायुद्ध में फिर जगमगाया, मेरठ एकाएक।।
भडकी आग फेर मेरठ में जो देहली में पहुँची जाय।
बिगड़ गई फिर सेना सारी, मार-मार फिर दई मचाय।।
पहुँची खबर कानपुर में जब, नाना उठे तरेरा खाय।
ले बिठूर से सेना चाले, लिया कानपुर यों हथियाय।।
जानि सौंप दई सब गोरों की, पहुँचे सतीचौर पै जाय।
तोप दागि दई जब ताँता ने, दिया गंग में सबै डुबाय।।
और डेढ सौ मेमें छोड़ी, इलाहाबाद को दिया पठाय।
मार गिराया फिर हुइलर को, बदला अपना लिया चुकाय।।
इस तरह से देहली में भी गोरों को फिर दिया भगाय।
मुसलमान बूढे राजा को फिर गद्दी पर दिया बिठाय।।

किले-किले पर से सभी, झण्डा दिये उतार।
जाय बिठाय तख्त पर, पूर्व शाह सर्दार।।
ऐसा हाल सुना जब सबने, गोरा गये बहुत खिसियाय।
जनरल हैवलाक चढ़ि आयौ, बढ़ौ कानपुर को रिसियाय।।
तोप लादि लई सब नावों में, दिये पास के गाँव उड़ाय।
लूट मचा दई फिर गोरों ने, गाँव-गाँव को आग लगाय।।
गाँव छोडि के जो कोई भागे, गोली से फिर दिया उडाय।
सुना हाल नाना ने जब यह, बालराव को दिया पठाय।
बालराव वहाँ से चल धाये और फतेहपुर पहुँचे जाय।
रचना करी व्यूह की ऐसी, छक्के दुश्मन दिये छुडाय।।
दोनों ओर सो गोला बाजे, गोली साँय-साँय सन्नाय।
जमा युद्ध आपस में ऐसा, खून की नदियां दई बहाय।।

बालराव ने उसी समय, दीना हुक्म सुनाय।
पुल अवंग को जल्द तुम, प्यारे देउ उड़ाय।।
गोरी फौज बढ़ी आगे को, गोलन्दाज गये घबराय।
छक्के छुट गये ज्वानों के, भग्गड पडी फौज में आय।।
ऐसी मार करी गोरों ने, पन्द्रह तोपों लई हथियाय।
इसी बीच में बालराव जी घायल गिरे धरा पै आय।।
हटी फौज पीछे नाना की, उलटा हुआ विधाता हाय।
बढ़ा हैवलक फिर आगे को, पहुँचा तुरत कानपुर आय।।
लूट मचाई फिर फौजों ने, खून की नदियाँ दई बहाय।
हुआ कानपुर यों कब्जे में, झण्डा पेशवा दिया गिराय।।
इसी तरह से दिल्ली में भी घेरा निकलसन दिया जमाय।
इधर शाह बहादुर ने भी फाटक दीने बन्द कराय।
एक नीच ने नई बस्ती में फौजें खिड़की दई घसाय।।

दिहली में फिर उस समय, बरसा खून अपार।
बादशाह से लेगवा, गोरा बाजी मार।
जो दरवाजों पर छुपकै बैठे, संगीनों पर लिया उठाय।
किया कैद बूढ़े राजा को, बरमा उसे दिया भिजवाय।।
पकड़-पकड़ कर फिर लोगों को, फाँसी दई लाख लगवाय।
हौल बैठ गयी सबके दिल में, दीना ऐसे गदर दबाय।।
सन् अट्ठावन में मलका ने, दिया एक फरमान सुनाय।
स्वराज्य देयंगे हम भारत को जब वह इस लायक हो जाय।।
लगे गाँव ने फिर मलका के विरदावली छन्द बनाय।।
बना-बना कर साँची झूठी सबसे लिये हथियार रखाय।
बना-बना के टैक्स अनेकों, भारत भूखा दिया बनाय।।
इसी तरह से लूट कर, किया हिन्द बर्बाद।
भेजे माल फिरंगी को, लंदन हुआ अबाद।।


स्वातंत्र्य यौद्धा कुंवरसिंह प्रशस्ति

रचनाकार- राम कवि
संदर्भ - पाथेय कण (हिंदी पत्रिका)
दिनांक 16 अप्रैल (संयुक्तांक) 2007
अंक : 1, पेज न. 17
कुंवरसिंह प्रशस्ति

'जैसे मृगराज गजराजन के झुंडन पै
प्रबल प्रचंड सुंड खंडत उदंड है।
जैसे बाज़ी लपकि लपेट के लवान दल
मलमल डारत प्रचारत विदंज है।।
कहें रामकवि जैसे गरूड़ गरव गहि
अहि-कुल दंडि दंडि मेटत घमंड है।
तैसे ही कुंवरसिंह कीरति अमर मंडि फौज
फिरंगानी की करी सुखंड खंड है।'

अमरसिंह प्रशस्ति

'कसि के तुरंग रंग चढ्यौ जब जंग पर
अंग अंग आनंद उमंग रंग भरिगौ
सनमुख समर विलोकि रनधीर धीर (वीर)
फौज फिरंगाने की समेटि सोक तरिगौ
कहे शिव कवि डांटि डांट कपतानन कूं
काटि काटि काकड़ी कुम्हैड़ो सौ निकरिगौ
हाथ मोचि हाकिम कहत साह लंदन सों
हा हाय आफत अमरसिंह करिगौ।'

क्रांति १८५७

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उदयपुर मित्र मण्डल, डा. सुरेन्द्र सिंह पोखरणा, बी-71 पृथ्वी टावर, जोधपुर चार रास्ता, अहमदाबाद-380015,
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