क्रांति १८५७
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यह वेबसाईट इस महान राष्ट्र को सादर समर्पित।

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झांसी की रानी का ध्वज

स्वाधीन भारत की प्रथम क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर शहीदों को नमन
वर्तमान भारत का ध्वज
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क्रांति १८५७
 

प्रस्तावना

  रुपरेखा
  1857 से पहले का इतिहास
  मुख्य कारण
  शुरुआत
  क्रान्ति का फैलाव
  कुछ महत्तवपूर्ण तथ्य
  ब्रिटिश आफ़िसर्स
  अंग्रेजो के अत्याचार
  प्रमुख तारीखें
  असफलता के कारण
  परिणाम
  कविता, नारे, दोहे
  संदर्भ

विश्लेषण व अनुसंधान

  फ़ूट डालों और राज करो
  साम,दाम, दण्ड भेद की नीति
  ब्रिटिश समर्थक भारतीय
  षडयंत्र, रणनीतिया व योजनाए
  इतिहासकारो व विद्वानों की राय में क्रांति 1857
  1857 से संबंधित साहित्य, उपन्यास नाटक इत्यादि
  अंग्रेजों के बनाए गए अनुपयोगी कानून
  अंग्रेजों द्वारा लूट कर ले जायी गयी वस्तुए

1857 के बाद

  1857-1947 के संघर्ष की गाथा
  1857-1947 तक के क्रांतिकारी
  आजादी के दिन समाचार पत्रों में स्वतंत्रता की खबरे
  1947-2007 में ब्रिटेन के साथ संबंध

वर्तमान परिपेक्ष्य

  भारत व ब्रिटेन के संबंध
  वर्तमान में ब्रिटेन के गुलाम देश
  कॉमन वेल्थ का वर्तमान में औचित्य
  2007-2057 की चुनौतियाँ
  क्रान्ति व वर्तमान भारत

वृहत्तर भारत का नक्शा

 
 
चित्र प्रर्दशनी
 
 

क्रांतिकारियों की सूची

  नाना साहब पेशवा
  तात्या टोपे
  बाबु कुंवर सिंह
  बहादुर शाह जफ़र
  मंगल पाण्डेय
  मौंलवी अहमद शाह
  अजीमुल्ला खाँ
  फ़कीरचंद जैन
  लाला हुकुमचंद जैन
  अमरचंद बांठिया
 

झवेर भाई पटेल

 

जोधा माणेक

 

बापू माणेक

 

भोजा माणेक

 

रेवा माणेक

 

रणमल माणेक

 

दीपा माणेक

 

सैयद अली

 

ठाकुर सूरजमल

 

गरबड़दास

 

मगनदास वाणिया

 

जेठा माधव

 

बापू गायकवाड़

 

निहालचंद जवेरी

 

तोरदान खान

 

उदमीराम

 

ठाकुर किशोर सिंह, रघुनाथ राव

 

तिलका माँझी

 

देवी सिंह, सरजू प्रसाद सिंह

 

नरपति सिंह

 

वीर नारायण सिंह

 

नाहर सिंह

 

सआदत खाँ

 

सुरेन्द्र साय

 

जगत सेठ राम जी दास गुड वाला

 

ठाकुर रणमतसिंह

 

रंगो बापू जी

 

भास्कर राव बाबा साहब नरगंुदकर

 

वासुदेव बलवंत फड़कें

 

मौलवी अहमदुल्ला

 

लाल जयदयाल

 

ठाकुर कुशाल सिंह

 

लाला मटोलचन्द

 

रिचर्ड विलियम्स

 

पीर अली

 

वलीदाद खाँ

 

वारिस अली

 

अमर सिंह

 

बंसुरिया बाबा

 

गौड़ राजा शंकर शाह

 

जौधारा सिंह

 

राणा बेनी माधोसिंह

 

राजस्थान के क्रांतिकारी

 

वृन्दावन तिवारी

 

महाराणा बख्तावर सिंह

 

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

क्रांतिकारी महिलाए

  1857 की कुछ भूली बिसरी क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
  रानी लक्ष्मी बाई
 

बेगम ह्जरत महल

 

रानी द्रोपदी बाई

 

रानी ईश्‍वरी कुमारी

 

चौहान रानी

 

अवंतिका बाई लोधो

 

महारानी तपस्विनी

 

ऊदा देवी

 

बालिका मैना

 

वीरांगना झलकारी देवी

 

तोपख़ाने की कमांडर जूही

 

पराक्रमी मुन्दर

 

रानी हिंडोरिया

 

रानी तेजबाई

 

जैतपुर की रानी

 

नर्तकी अजीजन

 

ईश्वरी पाण्डेय

 
 

1857 से पहले का इतिहास (1600-1858 ई. तक)

भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का कठोरतम मुकाबला
यूरोपियनों का भारत में आगमन
पुर्तगालियों का भारत आगमन
इंग्लैण्ड, फ्रांस एवं हालैण्ड के व्यापारियों का भारत आगमन
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापनाः बंगाल विजय
आंग्ल-मैसूर संघर्ष
आंग्ला-मराठा संघर्ष
आंग्ल-सिक्ख संघर्ष
द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1849 ई.)

1857 ई. से पूर्व के विद्रोह
पूर्वी भारत तथा बंगाल में विद्रोह
पश्चिमी भारत में विद्रोह
दक्षिणी भारत में विद्रोह
वहाबी आन्दोलन
सैनिक विद्रोह


भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का कठोरतम मुकाबला

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य लगभग दो शताब्दियों तक रहा एवं भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतन्त्र करवाने के लिए ही स्वतंत्रता संघर्ष किया गया। ब्रितानियों ने अपना चाहे जो भी उद्देश्य बताया हो, वस्तुतः उनका उद्देश्य भारत का शोषण कर अपने देश को समृद्ध बनाना था। हम सबसे पहले इस बात पर आते हैं कि भारत में ब्रितानी सत्ता की स्थापना कैसे हुई?

यूरोपियनों का भारत में आगमन

संविधान और इतिहास में बहुत गहरा सम्बन्ध होता है। वस्तुतः किसी भी देश का संविधान उस देश के इतिहास की नींव पर ही खड़ा होता है। अतः भारत के संवैधानिक अध्ययन के लिए उसका ऐतिहासिक विश्लेषण करना भी आवश्यक है। ब्रितानी व्यापारी के रूप में भारत में आए तथा उन्होंने परिस्थितियों का लाभ उठाकर भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। भारतीयों ने ब्रितानियों के विरूद्ध संघर्ष छेड़ दिया। अतः ब्रितानियों ने भारतीयों को सन्तुष्ट करने हेतु समय-समय पर अनेक अधिनियम पारित किए, जिसमें 1909, 1919 तथा 1935 के अधिनियम प्रमुख हैं। इसमे भारतीय संतुष्ट न हो सके। अन्त में ब्रितानियों ने 1947 में स्वतंत्रता अधिनयिम पारित किया। इसके द्वारा भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। तत्पश्चात् भारतीयों ने अपना संविधान बनाया, जो 1935 के अधिनियम से प्रभावित था। अतः सर्वप्रथम हमें भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करना होगा।
      
प्राचीन काल से ही भारत का रोम के साथ व्यापार होता था। भारत का सामान रोम के द्वारा यूरोप में पहुँचाया जाता था। आठवीं शताब्दी में रोम का स्थान अरबों ने लिया तथा वे भारत के पाश्चात्य देशों के साथ व्यापार के माध्यम बन गए। इस समय भारत के यूरोपियन देशों से व्यापार के तीन मार्ग थे। पहला मार्ग, भारत से ओक्सस, कैस्पियन एवं काला सागर होते हुए यूरोप त था। दूसरा मार्ग, सीरिया होते हुए भूमध्य सागर तक था। तीसरा मार्ग समुद्री था, जो भारत के मिश्र तथा मिश्र की नील नदी से यूरोप तक था। भारत का माल पहले वेनिस एवं जिनोवा नगर में जाता था एवं वहाँ से विभिन्न यूरोपियन देशों में भेजा जाता था, अतः ये नगर समृद्ध हो गये।

पुर्तगालियों का भारत आगमन

इटली के नगरों की समृद्धि से प्रभावित होकर पुर्तगाली भी भारत के साथ व्यापार करना चाहते थे। इस समय तीनों मार्गो पर तुर्कों का कब्जा था, अतः भारत के साथ व्यापार करने के लिए एक नये मार्ग की खोज की आवश्यकता अनुभव हुई। अतः पुर्तगाली सम्राट इमेनवुल ने जुलाई, 1497 में इस कार्य हेतु वास्को-डि-गामा को भेजा। वह आशा अन्तरीप होता हुआ 20 मई, 1948 को भारत के कालीकट बन्दरगाह पर पहुँचा। उसने वहाँ के राजा से एक व्यापारिक संघि भी की। अत पुर्तगालियों ने भारत के साथ अपना व्यापार करना शुरू कर दिया।


इंग्लैण्ड, फ्रांस एवं हालैण्ड के व्यापारियों का भारत आगमन

16वीं सदी में भारत अपनी समृद्धि के चरम पर पहुँच चुका था। उसके वैभव की दूर-दूर तक चर्चा होती थी। फ्राँसीसी पर्यटक बर्नियर ने लिखा है, उस समय का भारत एक ऐसा गहरा कुआँ था, जिसमें चारों ओर से संसार भर का सोना-चाँदी आ-आकर एकत्रित हो जाता था, पर जिसमें से बाहर जाने का कोई रास्ता भी नहीं था। 1591 ई. में रेल्फिच भारत आया तथा उसने इंग्लैण्ड लौटकर भारत की समृद्धि का गुणगान किया। इससे ब्रितानियों को भारत से व्यापार करने की प्रेरणा मिली। 22 दिसम्बर, 1599 ई. में लार्ड मेयर ने भारत से व्यापार के लिए ब्रितानी व्यापारियों की एक संस्था स्थापित की, जिसे 31 दिसम्बर, 1600 ई. को ब्रिटिश साम्राज्ञी एलिजाबेथ प्रथम ने भारत से व्यापार करने का अधिकार दे दिया। इस संस्था का नाम आरम्भ में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी रखा गया, किन्तु बाद में यह मात्र ईस्ट इण्डिया कम्पनी रह गया। 1602 ई. में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के बाद हालैण्ड के व्यापारी भी भारत से व्यापार करने लगे। 1664 ई. में फ्रैंज ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के बाद फ्राँसीसियों ने भी भारत के साथ व्यापार करना शुरू कर दिया। उन्होंने 1667 ई. में सूरत में कोठियाँ स्थापित कीं। उन्होंने पांडिचेरी, माही, यनाम तथा कलकत्ता में अपनी कोठियाँ स्थापित कीं तथा कुछ उपनिवेशों की भी स्थापना की। 1600 ई. से 1756 ई. तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी इसी औपनिवेशिक स्थिति में रही।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नीति में परिवर्तन

ब्रितानियों ने सूरत में अपनी कोठियाँ स्थापित कीं। यहाँ मुगल गवर्नर रहते थे। शिवाजी ने 1664 तथा 1670 ई. में सूरत को लूटा, जिसमें ब्रितानियों की कोठियाँ भी शामिल थीं। अब ब्रितानियों का मुगलों के संरक्षण पर से विश्वास उठ गया। उन्होंने निश्चय किया कि या तो उन्हें अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी, अन्यथा मिटना होगा। ब्रितानियों ने देखा कि आजीवन संघर्ष करने के बाद भी औरंगजेब मराठा राज्य पर अधिकार न कर सका। अब उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए एक शक्तिशाली ब्रिटिश सेना गठित करने का निश्चय किया। अब कम्पनी ने एक नयी नीति अपनाते हुए कोठियों की किलेबंदी की, नये दुर्गों का निर्माण करवाया तथा अपने अधीन क्षेत्रों पर कुछ नवीन कर लगाए। इस प्रकार कम्पनी अब क्षेत्रीय संस्था के रूप में भी विकसीत होने लगी।

यूरोपियन व्यापारियों का आपसी संघर्ष

भारत से व्यापार करने वाले यूरोपियन व्यापारियों में आपसी ईर्ष्या तथा द्वेष बढ़ रहा था। उनमें आपसी मन-मुटाव इतना बढ़ गया कि संघर्ष अनिवार्य हो गया। 1580 ई. में पुर्तगाल पर स्पेन का आधिपत्य हो जाने से भारत में भी पुर्तगालियों की शक्ति क्षीण हो गई थी। शाहजहाँ ने भी पुर्तगालियों के प्रति बड़ी कठोर नीति अपनायी। उनकी बची-खुची शक्ति को ब्रितानियोंने कुचल दिया।

अब ब्रितानियों का मुकाबला हॉलैण्ड के डचों से हुआ। क्रामवेल के समय 1964 ई. में ब्रितानियों ने हॉलैण्ड को हराकर 1623 ई. में अम्बोयना के युद्ध में हुई अपनी पराजय का बदला ले लिया। अब हॉलैण्ड की शक्ति बहुत क्षीण हो गई।

अब भारत में व्यापारिक एकाधिकार के लिए दो पक्षों में संघर्ष रहा गया था ब्रितानी तथा फ्राँसीसी। 1742 ई. में डूप्ले पांडिचेरी का गर्वनर बना। उसने देशी नरेशों की कूट का लाभ उठाकर भारत में फ्राँसीसी राज्य की स्थापना का निश्चय किया। अतः ब्रितानियों तथा फ्राँसीसियों में कर्नाटक के तीन युद्ध हुए। 1744, 1748 एवं 1760 ई. के युद्धो में ब्रितानियों ने फ्राँसीसियों को बुरी तरह परास्त किया। अब भारत पर से फ्राँसीसियों का प्रभुत्व सदैव के लिए समाप्त हो गया एवं भारत में एक मात्र यूरोपियन शक्ति रह गई थी और वह भी-ब्रितानी।

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापनाः बंगाल विजय

18वीं सदी में भारत का राजनीतिक अवसान होने लगा। औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारियों के कारण मुगल साम्राज्य का तेजी से पतन होने लगा। पंजाब में सिक्खों, महाराष्ट्र में मराठों, हैदराबाद में नवाब तथा मैसूर में वहाँ के महाराज ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इन छोटे-छोटे राज्यों में भी परस्पर संघर्ष चलता रहता था। कूपलैण्ड ने लिखा है, हर जगह स्थानीय शक्तिशाली व्यक्ति जाति तथा वंश के सरदार, महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति और शक्तिशाली सिपाही भूमि तथा शक्ति के लिए आपस में लड़ने लगे। कानूनी अनुशक्ति का नामों-निशान न रहा। हर जगह जिसकी लाठी, उसकी भैंस की स्थिति कायम हो गई। यूरोपियनों ने इसका जमकर लाभ उठाया। एक इतिहासकार के शब्दों में, भारत पर यूरोपीय जातियाँ ऐसी टूटीं, जैसे मुर्दे पर गिद्ध टूटते हैं। यदि भारत के शासकों में दूरदर्शिता होती और यदि वे अपने मुसाहिबों तथा शराब के ऐसे गुलाम न होते, तो पश्चिम के व्यापारियों के पाँव अपने राज्य में न जमने देते। वे चूक गये, जिसका फल यह हुआ कि इन व्यापारी भेष में आए हुए मेहमानों ने घर पर कब्जा करने का प्रयत्न आरम्भ कर दिया।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद की स्थापना बंगाल से प्रारम्भ हुई। ब्रितानियों ने 23 जून, 1757 ई. को बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को परास्त किया। अब मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया गया। वह ब्रितानियों के हाथों की कठपुतली थी। इस प्रकार प्लासी के युद्ध से भारत में ब्रितानी सत्ता की नींव पड़ी। ब्रितानियों ने 1764 ई. में बंगाल के नवाब मीर कासिम तथा मुगल सम्राट शाह आलम को बक्सर के युद्ध में संयुक्त रूप से परास्त किया। 1765 ई. ब्रितानियों ने मुगल सम्राट शाह आलम के साथ संघि करके बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में दीवानी अधिकारी (सम्पत्ति के अभियोगों का निर्णय करने एवं भूमि कर एकत्रित करने सम्बन्धी अधिकार) प्राप्त कर लिय। शाह आलम को इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले दिए गए तथा 26 लाख रूपये वार्षिक पेन्शन दे दी गई। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है, दीवानी अधिकारों का इसलिए महत्त्व है कि शाह आलम अभी तक भारत का सम्राट माना जाता था। इसके द्वारा क्लाइव ने अपने अधिकारों को कानूनी रूप प्रदान कर दिया। पी.ई. रोबर्ट्स ने लिखा है, बंगाल पर दीवानी का प्रसिद्ध अधिकार कम्पनी द्वारा प्रादेशिक सत्ता की ओर प्रथम महान कदम था।

युद्ध के प्रभाव

प्लासी तथा बक्सर के युद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इसके फलस्वरूप बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के राजस्व एवं शासन पर ब्रितानियों का नियंत्रण स्थापित हो गया। इन राज्यों के शासक उनके हाथों की कठपूतली बन गये। मुगल सम्राट उनका पेंशनर बन गया। वस्तुतः इन युद्धों में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना

1765 ई. मीर जाफर की मृत्यु के पश्चात् उनके अवयस्क पुत्र निजामुद्दौल्ला गद्दी पर बैठे। ब्रितानियों को दीवानी का अधिकार प्राप्त होने से वे बंगाल के वास्तविक शासक बन चुके थे। उन्होंने न्याय, शान्ति एवं सुरक्षा की जिम्मेदारी नवाब पर छोड़ रखी। कर वसूलने की जिम्मेदारी ब्रितानियों ने अपने ऊपर ले ली। इस प्रकार बंगाल में द्वैध शास की स्थापना हुई, जिसमें फौजदारी अधिकार तो नवाब के पास थे, जबकि दिवानी अधिकार ब्रितानियों के पास। डॉ. एस.आर.शर्मा ने लिखा है, कम्पनी के द्वारा इस दोहरे शासन का जाल अपने यूरोपियन प्रतिद्वंदियों, देशी राजाओं और ब्रिटिश सरकार को वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ बनाये रखने के लिए रचा गया था।

द्वैध शासन के दोष

वस्तुतः द्वैध शासन प्रणाली दोषपूर्ण थी, जिसके प्रमुख दुष्परिणाम इस प्रकार थे ब्रितानियों ने राजस्व के समस्त साधनों र अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। वे नवाब को शासन चलाने के लिए बहुत कम धन देते थे, जिससे शासन का संचालन संभव नही था। अतः बंगाल में अराजकता तथा अव्यवस्था फैलने लगी।

जब नवाब के पास धन का अभाव हो गया, तो उन्होंने जनता से धन वसूलने के लिए उसका शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। अतः जनता का जीवन कष्टमय हो गया।

कम्पनी के कर्मचारी भी जनता का बहुत शोषण कर रहे थे।

ब्रितानियों द्वारा कर वसूलने के लिए नियुक्त किए गए भारतीय बड़े भ्रष्ट थे। अतः वल्सर्ट (1767-69) एवं कार्टियर (1770-72) के समय बंगाल में भीषण दुर्भिक्ष पडा। प्रोफेसर कीथ ने लिखा है, बंगाल की लगभग 1/3 जनता इस अकाल से पीड़ित हो गई। इस आपत्तिकाल में भी ब्रितानियों ने अपने मन-माने कर जनता से वसूल करने तथा उनका शोषण जारी रखा।

डॉ. चटर्जी ने लिखा है, क्लाइव द्वारा स्थापित दोहरी शासन प्रणाली एक दूषित शासकीय यन्त्र था। इसके कारण बंगाल में पहले से भी अधिक गड़बड़ फैल गई और जनता पर ऐसे अत्याचार ढाएँ गये, जिसका उदाहरण बंगाल के इतिहास में नहि मिलता। रिचर्ड बेचर ने लिखा है, ब्रितानियों को जानकर यह दुःख होगा कि जबसे कम्पनी के पास दीवानी के अधिकार आए हैं, बंगाल के लोगों की दशा पहले की अपेक्षा अधिक खराब हो गई है। सर ल्यूइस भी इस बात को स्वीकार करते हुए लिखते हैं 1765 से लेकर 1772 ई. तक ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन इतना दूषित तथा भ्रष्ट रहा कि संसार की सभ्य सरकारों ने उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता है।

द्वैध शासन प्रणाली से नवाब के सामने कई कठिनाइयाँ आ गईं। ब्रितानियों ने कम्पनी के लाभ की अपेक्षा अपनी निजी लाभ पर ध्यान देना शुरू कर दिया। मैकाल ने लिखा है, जिस तरह से इन कर्मचारियों ने धन कमाया और खर्च किया, उसको देखकर मानव चित्त आतंकित हो उठता है। अतः कम्पनी को आर्थिक क्षति हुई। द्वैध शासन के फलस्वरूप बंगाल में छोटे-छोटे उद्योगों को धक्का पहुँचा। कम्पनी के कर्मचारी खुलेआम नवाब के अधिकारियों की उपेक्षा करने लगे। इन दोषों को इंग्लैण्ड की सरकार ने 1773 ई. में रेंग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा दूर कर दिया।

रेग्यूलेटिंग एक्ट के अनुसार 1773 से 1784 तक शासन हुआ, किन्तु इसमें भी कई कठिनाईयाँ थीं, अतः इसके दोष दूर करते हेतु 1784 ई. में पिट्स इण्डिया एक्ट पारित किया गया।

बंगाल में 1765 ई. से लेकर 1772 ई. तक द्वैध शासन चला। मिस्टर डे सेन्डरसन ने लिखा है, ब्रिटिश साम्राज्यवाद का रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर हुआ, जब वह विजित प्रदेशों में राजस्व संग्रह के लिए लगा। आओ, बंगाल के ब्रिटिश साम्राज्यवाद के रूप में देखें। बंगाल का प्रान्त ब्रितानियों के आगमन तक बड़ा समृद्ध था। बंगाल की समृद्धि का इसी तथ्य से अनुमान लगाया जा सकता है कि, इतिहास के अनुसार वहाँ कभी अकाल नहीं पड़ा। गत एक हजार वर्षों से बंगाल अपनी निरन्तर समुद्धि के लिए प्रसिद्ध रहा है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद को केवल 13 वर्ष इस समृद्ध प्रान्त में बर्बादी, मृत्यु और अकाल लानें में लगे। के. एम. पन्निकर ने लिखा है, भारतीय इतिहास के किसी काल में भी, यहाँ तक कि तोरमाण और मुहम्मद तुगलक के समय में भी, भारतीयों को ऐसी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ा, जो कि बंगाल के निवासियों को इस द्वैध शासन काल में झेलनी पड़ी।

वारेन हेस्टिंग्स द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य का सुदृढ़ीकरण

कम्पनी की खराब स्थिति देखते हुए डायेक्टरों ने वारेन हेस्टिंग्स को 1772 ई. में कम्पनी के राज्य का प्रथम गर्वनर जनरल बनाया। 1773 ई. में रेग्युलेटिंग एक्ट पारित हुआ। इसके अनुसार यह निश्चय किया गया कि प्रशासन तथा सैनिक प्रबन्ध के विषय भारत सचिव के पास रखे जाएंगे एवं राजस्व के सम्बन्धित मामलों की देख-रेख वित्त मंत्रालय करेगा। इसके अलावा मद्रास एवं बम्बई के ब्रिटिश प्रदेश भी गवर्नर जनरल के अधीन आ गए। वारेन हेस्टिंग्स ने प्रशासन में सुधार कर उसका पुनर्गठन किया। वारेन हेस्टिंग्स ने विभिन्न खर्चों में भारी कमी कर कम्पनी की स्थिति में सुधार किया। चूँकि मुगल सम्राट शाह आलम मराठों के संरक्षण में चला गया था, अतः उसकी वार्षिक पेन्शन बन्द कर दी गई। इसके अलावा शाह आलम से इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले भी वापस ले लिए गए। वारेन हेस्टिंग्स ने बनारस के शासक चेतसिंह, अवध कि बेगमों एवं रूहेलों से युद्ध कर बहुत धन वसूल किया। उसने अवध से रूहेलों पर आक्रमण करने के लिए 50 लाख रूपये माँगे। बर्क, मैकाले एवं जॉन स्टुअर्ट मिल ने इसकी घोर निन्दा की।

ब्रिटिश साम्राज्य का प्रसार

बंगाल विजय के बाद अब ब्रितानियों ने भारत के अन्य भागों में अपना प्रभाव बढ़ाने का निश्चय किया। वारेन हेस्टिंग्स ने अवध पर अपना प्रभुत्व जमाया एवं वहाँ की बेगों से 76 लाख रूपये वसुल किए। बनारस एवं रूहेलखण्ड में भी ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित हुआ।

लार्ड वेजेजली की सहायक संधि की नीति

लार्ड वेलेजली (1798-1805) ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रसार हेतु सहायक संघि की नीति अपनाई। इसको स्वीकार करने वाले देशी नरशों को निन्म शर्तें माननी पड़ती थीं-

देशी नरेश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अपना स्वामी मानेंगे।

देशी नरेश अपने राज्य में ब्रितानियों के अलावा अन्य किसी यूरोपियन जाति को नौकरी नहीं देंगे।

देशी नरेश ईश्ट इण्डिया कम्पनी की अनुमति से ही किसी देशी शासक से युद्ध अथवा सन्धि कर सकेंगे। ब्रितानी देशी राजाओं के झगड़ों के समाधान में एकमात्र मध्यस्थ होंगे।

वे अपने राज्य में अपने व्यय पर ब्रिटिश सेना रखेंगे।

वे अपने दरबार में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखेंगे।

इसके बदले कम्पनी उस राज्य की बाह्य आक्रमणों एवं आन्तरिक उपद्रवों से सुरक्षा करेगी।

जब देशी राजाओं ने अपने व्यय पर ब्रितानी सेना को अपने राज्य में रखना शुरू किया, तो अप्रत्यक्ष रूप से उसके राज्य पर ब्रितानियों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इस संघि कोर स्वीकार करने वाला प्रथम देशी राजा हैदराबाद का निजाम था।


आंग्ल-मैसूर संघर्ष

हैदर अली एक महान सेनापति थे। वह अपनी योग्यता से एक साधरण सैनिक से सुल्तान की गद्दी तक पहुँच गए। उन्होंने प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध (1767-69) में ब्रितानियों को करारी शिकस्त दी। ब्रितानियों ने मराठों द्वारा उनके राज्य पर आक्रमण करने पर उसकी सहायता का वचन दिया, किन्तु 1771 ई. में मराठों के मैसूर आक्रमण के समय ब्रितानियों ने अपने वचन का पालन नहीं किया। अतः हैदर अली ब्रितानियों से बहुत नाराज हुए। उन्होंने द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध में ब्रितानियों को परास्त कर अरकाट पर अधिकार कर लिया। 1782 ई. में हैदर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र टीपु सुल्तान गद्दी पर बैठे। उन्होंने ब्रितानियों से संघर्ष जारी रखा। उन्होंने जनरल मैथ्यु को परास्त किया। 1783 ई. की वर्साय की संधी द्वारा फ्राँसीसियों ने टीपू का साथ छोड़ दिया। मार्च, 1784 ई. में मंगलौर की संधि द्वारा ब्रितानियों एवं टीपू सुल्तान के एक-दूसरे के विजित प्रदेश लौटा दिये। निजाम ने ब्रितानियों से साठ-गाठ कर ली थी। टीपू दक्षिणी भारत में ब्रितानियों द्वारा बाहर निकालने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। 1790 ई. में तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध प्रारम्भ हो गया। लार्ड कार्नवालिस ने निजाम एव मराठों को अपनी तरफ मिलाकर मैसूर पर चारों ओर से आक्रमण किये। टीपू दो वर्ष तक ब्रितानियों को लोहे के चने चबवाते रहे। इसके पश्चात् लार्ड कार्नवालिस ने स्वयं मोर्चा संभाला एवं बंगलौर पर विजय प्राप्त की। तत्पश्चात् मार्च, 1791 ई. में कोयम्बटूर पर अधिकार कर लिया। साधनों के अभाव के कारण टीपू अधिक समय तक संघर्ष न कर सके। ब्रितानियों ने मैसूर के कई दुर्गों पर अधिकार कर लिया एवं फरवरी, 1792 ई. में श्री रंगपट्टम की बाहरी रक्षा दीवार को ध्वस्त कर दिया। विवश होकर टीपू ने मार्च, 1792 ई. में रंगपट्टम की संधि कर ली। टीपू को 3 करोड़ रूपये युद्ध का हर्जाना तथा अपने राज्य का कुछ भाग देना पड़ा, जिसे ब्रितानियों, मराठों तथा निजाम ने बाट लिया।

तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध से टीपू को बहुत क्षति हुई थी। उनके कई प्रदेशों पर ब्रितानियों, मराठों तथा निजाम का अधिकार था। टीपू एक पराक्रमी तथा उत्साही शासक थे। फ्रांसीसी क्रांति से उनमें राष्ट्रीयता की नयी भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने अपनी सेना का गठन फ्रेंच आधार पर किया एवं अपनी सेना में कई फ्रांसीसी अधिकारी रखें। उन्होंने अपनी सेना को यूरोपियन ढंग से प्रशिक्षण दिया। लार्ड वेलेजली टीपू की फ्रांसीसियों से सांठ-गांठ को खतरे की दृष्टि से देखता था। उन्होंने 1799 ई. में टीपू के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर  दी। निजाम ने ब्रितानियों का साथ दिया। टीपू को किसी भी शासक से कोई सहायता नही मिली। लार्ड वेलेजली ने अपने छोटे भाई सर आर्थर वेलेजली को युद्ध का मोर्चा सोंपा एवं स्वय भी मद्रास आ गया। आर्थर वेलेजली एवं जनरल हैरिस ने मल्लावली नामक स्थान पर टीपू को पराजित किया। जनरल स्टुअर्ट ने 1799 ई. में सेदासरी के युद्ध में टीपू को शिकस्त दी। टीपू ने को ब्रितानियों से अपमानजक संधि करने से इन्कार कर दिया एवं श्री रंगपट्टम भाग गया, वहाँ वह युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुआ। अनपी देशभक्ति तथा स्वतंत्रता के लिए अपने संगर्ष के कारण टीपू का नाम भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में सदैव स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।

अब मैसूर के हैदरअली से पूर्व के हिन्दू राजा के वंशज को गद्दी पर बैठाया गया तथा उनसे सहायक संधि की गई। अब मैसूर राज्य की शक्ति का पूर्णतया अन्त हो चुका था एवं दक्षिण भारत में मराठे ही ब्रितानियों के एक मात्र शत्रु रह गए थे।

मैसूर के पतन के प्रभाव : कार्ल मार्कस का विश्लेषण

कार्ल मार्क्स ने मैसूर के पतन के प्रभावों का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि इससे मराठों को छोड़कर समूचा दक्षिणी भारत ब्रितानियों के अधिपत्य में आ गया। मैसूर के 30 वर्ष लम्बे संघर्ष का अन्त हो गया। हैदरअली पहला शासक था, जिसने ब्रितानियों को देशी राजाओं के लिए सबसे बड़ा खतरा माना। उसने ब्रितानियों के साथ मित्रता या कोई भी समझौता करने से इन्कार कर दिया। कालर्म मार्कस ने आगे लिखा है-हैदरअली तथा टीपू सुलतान ने कुरान पर हाथ रखकर ब्रिटिश शासकों के विरूद्ध स्थायी घृणा की शपथ ली। यद्यपि मैसूर ने लम्बे समय तक ब्रितानियों से संघर्ष किया, किन्तु अपने सीमित साधनों के कारण अन्त में उसने परास्त होना पड़ा। मैसूर के साथ संघर्ष के फलस्वरूप ब्रितानी एक विशाल स्थायी सेना रखने पर विवश हुए। मैसूर के पतन से ब्रितानियों की शक्ति में काफी वृद्धि हुई और अब उन्होंने मराठों से मुकाबला करने का निश्चय किया।


आंग्ला-मराठा संघर्ष

दक्षिणी भारत में ब्रितानियों का सबसे बड़ा प्रतिरोध मराठों ने किया। नाना फड़नवीस ने 1772 ई. से लेकर 1800 ई. तक मराठों की एकता के सूत्र में बांधे रखा। उनके नेतृत्व में मराठों ने ब्रितानियों से भीषण संघर्ष किया। उन्होंने 1779 ई. में प्रथम आंग्लय मराठा युद्ध में ब्रितानियों को करारी पराजय की। ब्रितानियों का मानना था कि नाना के रहते मराठों पर विजय संभव नहीं है। वस्तुतः नाना फड़नवीस अपने समय का भारत का नहीं, अपितु एशिया का महान् कूटनीतिज्ञ था।

 

13 मार्च, 1800 ई. को नाना फड़नवीस की मृत्यु के साथ ही मराठों की एकता भी नष्ट हो गई। गायकवाड़-बडौदा, भोंसले-नागपुर, होल्कर-इंद्रौर एवं सिंधिया-ग्वालियर आदि मराठा सरदारों के आपसी झगड़ों से परेशान होकर पेशवा व जीराव द्वितीय अंग्रेजो के संरक्षण में चला गया। उसने दिसम्बर, 1802 ई. में बेसीन की संधि द्वारा सहायक संधि स्वीकार कर ली। इसके अनुसार पेशवा ने अपने राज्य में अपने व्यय पर 6,000 ब्रितानी सैनिकों की सेना रखना स्वीकार कर लिया। अपने राज्य में ब्रितानियों के अतिरिक्त अन्य किसी यूरोपियन को नौकरी न देना स्वीकार कर लिया तथा अपने वैदेशिक सम्बन्धों के संचालन पर ब्रिटिश नियंत्रण स्वीकार कर लिया। अब ब्रितानियों ने पेशवा को पुनः पूना की गद्दी पर बैठा दिया। इसने मराठा सरदार क्रुद्ध हो उठे, क्योंकि बेसीन सन्धि द्वारा पेशवा ने मराठों की स्वतंत्रता को बेच दिया था। अब दौलतराव सिन्धिया एवं रघुजी भौंसले ने मिलकर ब्रितानियों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

इस प्रकार द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध आरम्भ हुआ। लार्ड वेलेजली ने लार्ड लेक को उत्तरी भारत में तथा आर्थर वेलेजली को दक्षिणी भारत में मराठों के विरूद्ध मोर्चा सौंपा। आर्थ वेलेजली ने अहमदनगर पर अधिकार कर लिया। उन्होंने भोंसले एवं सिंधिया को असई, अरगाँव तथा उड़ीसा में परास्त किया। भोंसले ने अन्त में बाध्य होकर देवगाँव की संधि कर ली। उन्होंने सहायक सन्धि को स्वीकार कर लिया तथा कटक एवं बालासोर के प्रान्त ब्रितानियों को दे दिये। उधर उत्तरी भारत में लार्ड लेक ने सिंधिया को परास्त करके दिल्ली, अलीगढ़ एवं आगार पर अधिकार कर लिया। सिंधिया को विवश होकर सुर्जी अर्जुनगाँव की सन्धि करनी पड़ी। इसके द्वारा अहमदनगर, भड़ौच, दिल्ली एवं आगरा का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर दिया गया। इन सन्धियों के फलस्वरूप ब्रितानियों का साम्राज्य बहुत अधिक विस्तृत हो गया। वे भारत की सर्वोच्च शक्ति बन गये। मराठों की शक्ति क्षीण होने लगी थी।

जसवन्त होलक्र द्वारा द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध में भाग न लेने से उनकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुँची थी। उन्होंने जयपुर पर 1804 ई. में आक्रमण कर दिया। चूँकि जयपूर का शासक सहायक सन्धि को स्वीकार कर चुका था, अतः वेलेजली ने होल्कर के विरूय्ध युद्ध घोषित कर दिया। होल्कर ने कर्नल मानसन को करारी शिकस्त दी। लार्ड लेक ने डीग एवं फर्रूखाबाद आदि स्थानों पर होल्कर को परास्त किया, किन्तु ब्रितानी भरतपुर के दुर्ग पर अधिकार न कर सके। होल्कर ने पंजाब जाकर महाराज रणजीत सिंह से ब्रितानियों के विरूद्ध सहायता माँगी, किन्तु रणजीत सिंह ने उसे सहायता देने से इन्कार कर दिया। वेलेजली की साम्राज्यवादी नीति से रूष्ट होकर डायरेक्टरों ने उसके स्थान पर जार्ज बालों को गवर्नर जनरल बनाया। उसने फरवरी, 1806 में होल्कर से संघि कर ली। इसके अनुसार होल्कर ने चम्बल नदी के उत्तर के प्रदेश ब्रितानियों को सौंप दिए। ब्रितानियों ने चम्बल नदी के दक्षिणी प्रदेश होल्कर को लौटा दिए।

मराठे अपनी आपसी फूस के कारण परास्त हुए थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय ब्रितानियों के बढ़ते प्रभुत्व से चिंतित थे एवं मराठा सरदारों में एकता स्थापित करना चाहता था। पूना में ब्रिटिश रेजीडेण्ट एलफिन्स्टिन पेशवा की गतिविधियों को संदिग्ध मानता था। इस समय गायकवाड़ ब्रिटिश संरक्षण में चला गया था। पेशवा तथा गायकवाड़ के बीच कुछ विवाद होने पर गायकवाड़ ने इसके निपटारे हेतु अपने मंत्री गंगाधर राव को पूना भेजा, जहाँ उनकी हत्या हो गई। इसके लिए ब्रितानी पेशवा को जिम्मेदार मानते थे। 13 जून, 1817 को एक सन्धि के द्वारा ब्रितानियों ने पेशवा की शक्ति को समाप्त कर दिया। अतः पेशवा ने ब्रितानियों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

मराठों ने पूना के समीप किर्की की रेजीडेन्सी को जलाकर नष्ट कर दिया। मराठों ने पुनः किर्की में ब्रिटिश सेना को परास्त किया। इसी समय पूना पर ब्रितानियों का अधिकार हो गया, अतः पेशवा सतारा भाग गए। ब्रितानियों ने गाँव एवं अश्ति नामक स्थानों पर मराठों को परास्त किया। इसी समय नागपुर के अप्पा साहब तथा होल्कर भी युद्ध में शामिल हो गए, किन्तु वे क्रमश सीतालब्दी एवं महिदपुर में परास्त हुए। अन्त में पेशवा ने 3 जून, 1818 ई. को आत्मसमर्पण कर दिया। चतुर्थ आंग्ल मराठा युद्ध में सिंधिया एवं गायकवाड़ तटस्थ रहे।

मराठों की पराजय के प्रभाव

मराठों की पराजय न केवल मराठों के लिए, अपितु सम्पूर्ण भारत के लिए एक बहुत बड़ी क्षति थी। अब ब्रितानियों के अधीन सिन्ध एवं पंजाब को छोड़कर समूचा भारत आ गया। उनके सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी मराठों की शक्ति समाप्त हो गई थी। चतुर्थ आंग्ल मराठा युद्ध के बाद पेशवा का पद समाप्त कर दिया गया। पेशवा को वार्षिक पेन्शन देकर बिठूर भेज दिया गया। मराठों का संतुष्ट करने के लिए सतारा एवं कोल्हापुर को छत्रपति शिवाजीं के वंशजों को सौंप दिया गया तथा शेष प्रदेश बम्बई प्रान्त में सम्मिलित कर लिए गये।

आंग्ल-सिक्ख संघर्ष

महाराज रणजीत सिंह ने जुलाई, 1799 ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया। उन्होंने 1805 ई. में अमृतसर पर अधिकार कर लिया। रजणीत सिंह ने 1806 तथा 1807 ई. में दो बार पटियाला, नाभा एवं जीद पर आक्रमण किया। ये राज्य ब्रिटिश संरक्षण में चले गए। 1809 ई. में अमृतसर में ब्रितानियों तथा रणजीत सिंह के मध्य एक सन्धि हो गए। इसके अनुसार रणजीत सिंह ने सतलज एवं यमुना के बीच की सिक्ख रियासतों पर ब्रितानियों का प्रभाव मानते हुए उन पर आक्रमण करना स्वीकार किया। वहीं ब्रितानियों ने सतलज तथा सिन्धु नदी के बीच के प्रदेश पर रणजीतसिंह का प्रभाव मानते हुए उनमें हस्तक्षेप न करना स्वीकार कर लिया।

रणजीत सिंह ने झेलम से सिन्धु नदी के मध्य अनेक सिक्ख राज्यों पर अधिकार कर लिया। उन्होंने कसूर, झंग, कांगड़ा, अटक, मुल्तान, कश्मीर, पेशावर तथा लद्दाख आदि राज्यों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने 1820 में डेरा गाजी खाँ को तथा 1822 ई. में डेरा इस्माइल खाँ को परास्त किया।

27 जून, 1839 ई. को रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु के समय वह एक विशाल साम्राज्य छोड़कर गए थे, जो उत्तर में लद्दाख व इस्कार्टु तक, उत्तर-पश्चिम में सुलेमान पहाड़ियों तक, दक्षिण-पूर्व में सतलज नदी तक एवं दक्षिण पश्चिम में शिकारपुर-सिंध तक विस्तृत था। रणजीत सिंह ने ब्रितानियों से सौहाद्रपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखे। नाभा, पटियाला व जींद के मामलें में तथा तत्पश्चात् सिन्ध के मामले (1831-31) एवं शिकारपुर के मामले (1836) में उन्होंने धैर्य से काम लेकर अनावश्यक संघर्ष को टाला। लार्ड आकलैण्ड ने दिसम्बर, 1838 ई. में पंजाब की यात्रा की तथा रणजीत सिंह से मुलाकात की। उन्होंने दरबार में जाकर ब्रितानियों तथा सिक्खों की स्थायी मित्रता की प्रार्थना की। इसके बाद लाहौर में रणजीत सिंह से एक सन्धि की गई, जिसके द्वारा ब्रितानियों ने अफगानिस्तान के मामले में रणजीत सिंह का सहयोग प्राप्त कर लिया। इस समय ब्रितानियों का पंजाब एवं सिन्ध को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर अधिकार था एवं वे बहुत शक्तिशाली थे। रणजीत सिंह जानते थे कि अगर ब्रितानियों से संघर्ष किया गया, तो उसका राज्य नष्ट हो जाएगा। अतः उन्होंने ब्रितानियों से सौहाद्रपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखे। वस्तुतः ब्रितानियों के नियंत्रण से मुक्त एक स्वतंत्र सिक्ख राज्य की स्थापना करना रणजीत सिंह की एक महान सफलता थी।

रणजीत सिंह ने धार्मिक भेद-भावों के बिना सभी जातियों के व्यक्तियों को योग्यतानुसार उच्च पदों पर नियुक्त किया। उनके प्रधानमंत्री डोगरा राजपुत राजा ध्यान सिंह एवं विदेश मंत्री फकीर अजीजुद्दीन थे। वस्तुतः रणजीत सिंह एक महान् एवं दूरदर्शी शासक थे, जिनकी सहिष्णुता की भावना की सभी इतिहासकारों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी अयोग्य एवं निर्बल थे, अतः उनकी मृत्यु के 10 वर्षों बाद ही उनके साम्राज्य पर ब्रितानियों का अधिकार हो गया।

प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध

महाराज रणजीत सिंह के कई पुत्र थे, अतः उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्रों में गद्दी के लिए संघर्ष छिड़ गया। इस संघर्ष में कई राजकुमार मारे गए। प्रत्येक राजकुमार सिक्ख सेना को अपने साथ मिलना चाहता था। अतः सिक्ख सेना राजकीय नियंत्रण से मुक्त हो गई। सिक्ख सेना ने महारानी जिन्दाँ के भाई प्रधानमंत्री जवाहर सिंह की हत्या कर दी एवं रानी जिन्दाँ का अपमान किया। रानी जिन्दाँ ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए ब्रितानियों सेे सांठ-गांठ की तथा उन्हें लाहौर पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। ब्रितानी अवसर की तलाश में थे। जब ब्रितानी फीरोजपुर में लाहौर पर आक्रमण की तैयारी कर रहे थे, तोरानी जिन्दाँ ने सिक्ख सेना को सतलज के पुल के पार ब्रिटिश सेना की गतिविधियों को देखने के लिए प्रोत्साहित किया। सिक्ख सेना रानी के षड्यंत्र से अनभिज्ञ थी एवं सेना का प्रधान तेजसिंह रानी का विश्वासपात्र था। दिसम्बर, 1845 ई. में सिक्ख सेना सतलज नही को पार कर फीरोजपुर के समीप पहुँच गई। गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग ने 13 दिसम्बर, 1845 ई. को सिक्खों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। सर्वप्रथम फीरोजपुर के समीप मुदकी नामक स्थान पर 18 दिसम्बर, 1845 ई. को ब्रितानियों एवं सिक्खों में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में ब्रितानियों का सेनापति ह्यूज गफ था। युद्ध के आरम्भ में सिक्खों का पलड़ा भारी रहा, किन्तु बाद में लालसिंह के विश्वासघात के कारण सिक्ख परास्त हुए। इस युद्ध में ब्रितानियों तथा सिक्खों दोनों को ही भारी हानि हुई तथा ब्रितानी समझ गए कि सिक्खों को परास्त करना आसान कार्य नहीं है। तत्पश्चात् 21 दिसम्बर, 1845 ई. में फीरोजपुर में सिक्खों एवं ब्रितानियों में पुनः संघर्ष हुआ। इसमें सिक्ख सेना बड़ी बहादुरी से लड़ी, किन्तु तेजसिंह की गद्दारी के कारण उन्हेंपरास्त होना पड़ा। 28 जनवरी, 1846 ई. को अलीवाल में पुनः सिक्खों व ब्रितानियों में कड़ा संघर्ष हुआ। अन्त में सबराऊ के युद्ध में ब्रितानियों ने सिक्खों को निर्णायक रूप से परास्त किया। इस युद्ध में सरदार श्यामसिंह अटारी वाल ने अद्भूत वीरता दिखाई। 20 फरवरी, 1846 ई. को ब्रितानियों ने लाहौर पर अधिकार कर लिया।

लाहौर की सन्धि

9 मार्च, 1846 ई. को ब्रितानियों ने सिक्खों को लाहौर की अपमानजक सन्धि करने के लिए विवश किया, उसकी शर्ते इस प्रकार थीं--

सिक्ख सेना को घटाकर 25 पैदल बटालियन एवं 12,000 घुड़सवार सैनिक को रखा गया।

सिक्खों ने ब्रितानियों से छिनी उनकी 34 तोपें लौटा दीं।

ब्रितानियों ने सतलज व व्यास नदी के बीच का प्रदेश तथा कांगड़ा का प्रदेश सिक्खों से छीन लिया।

युद्ध क्षतिपूर्ति डेढ़ करोड़ रूपया निश्चित की गई। चूँकि सिक्खों के पास इतना धन नहीं था, अतः उन्होंने अपने जम्मू तथा कश्मीर के प्रान्त को एक करोड़ रूपये में महाराजा गुलाब सिंह को बेचकर वह धन ब्रितानियों को सौंप दिया।

दिसम्बर, 1846 ई. में सिक्खों की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने के लिए सर हेनरी लारेन्स, जान लारेन्स एवं एक अन्य ब्रितानी को मिलाकर एक बोर्ड की स्थापना की गई।

अवयस्क दीलीप सिंह को रानी जिन्दाँके संरक्षण में गद्दी पर बैठाया गया।

लाल सिंह को प्रधानमंत्री रहने दिया गया।


द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1849 ई.)

लाहौर की सन्धि की अपमानजनक शर्तों को स्वतंत्रता प्रेमी सिक्ख सहन नहीं कर सकते थे। सर हेनरी लारेन्स नेरानी जिन्दाँ पर कुछ आरोप लगाकर उसे कैद कर बनारस भेज दिया। समूचे पंजाब के सिक्ख सरदार अपनी महारानी के अपमान के विरूद्ध उठ खड़े हुए। मुल्तान के गवर्नन मूलराज ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह के दमन के लिए भेजा गया शेर सिंह भी उनके साथ मिल गए। धीरे-धीरे विद्रोह पंजाब में फैलने लगया। यदि गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी (1848-56 ई.) चाहता, तो इस समय विद्रोह को दबा सकता था, किन्तु उसने विद्रोह को पंजाब में फैलने दिया, ताकि इसकी आड़ में पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय हो सके।

लार्ड डलहौडी ने 10 अक्टूबर, 1848 ई. को सिक्खों के विरूद्ध संघर्ष की घोषणा कर दी। सिक्खों ने शेर सिंह के नेतृत्व में युद्ध किया। 13 जनवरी, 1849 ई. को चिलियांवाला नामक स्थान पर सिक्खों ने ब्रितानियों को परास्त किया। अन्त में ब्रिटिश सेनापति सर ह्जू गफ ने 21 फरवरी, 1849 ई. को गुजरात (चिनाब नदी के पास का कस्बा) नामक स्थान पर सिक्खों को निर्णायक रूप से परास्त किया। गुजरात का युद्ध भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण युद्धों में से एक था। इस युद्ध में सिक्ख बड़ी बहादुरी से लड़े, किन्तु अपने सीमित साधनों के कारण वे परास्त हुए। इस युद्ध में जहाँ सिक्खों के पास मात्र 21 तोपों तथा 61,500 सैनिक थे, वहीं ब्रितानियों के पास 100 तोपें तथा 2.50 लाख सैनिक थे। 13 मार्च, 1849 ई. को सिक्खों ने आत्मसमर्पण

इस युद्ध के पश्चात् 1849 ई. में पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर दिया गया। अब समूचा भारत ब्रितानियों के आधिपत्य में आ गया था।

सिक्ख सेना को दुर्बल बना दिया गया। बड़े-बड़े सिक्ख सरदारों की सम्पत्ति छीनकर ब्रितानियों ने अपने विश्वासपात्र सिक्खों में बांट दी।

दिलीप सिंह को ईसाई बनाकर 1860 में अपनी माता के साथ इंग्लैण्ड भेज दिया गया। यद्यपि बाद में दिलीप सिंह ने पुनः सिक्ख धर्म ग्रहण कर लिया था, किन्तु फिर भी उन्हें पुनः भारत नहीं आने दिया गया।

लाहौर में ब्रिटिश सेना की छावनी स्थापित की गई।

पंजाब में प्रशासनिक सुधार किए गए तथा सर हेनरी लारेन्स के स्थान पर सर जॉन लारेन्स को पंजाब का चीफ कमीश्नर बनाया गया, जो बडे सख्त थे। उन्होंने सिक्ख दरबारियों से कहा कि क्या आप कलम का शान चाहते हैं अथवा तलवार का, इन दोनों में से एक को चुन लीजिए (Will you be governed by the pen, or sword, choose)।

इस प्रकार पंजाब के ब्रिटिश साम्राज्य में विलय के साथ ही आंग्ल-सिक्ख संघर्ष समाप्त हो गया। अब समूचा भारतवर्ष ब्रितानियों के प्रभुत्व में आ चुका था।

1857 ई. से पूर्व के विद्रोह

1857 ई. में क्रांति का जो विस्फोट हुआ था, वह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय जनता में लम्बे समय से असंतोष चल आ रहा था तथा 1857 ई. से पूर्व भी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध छिट पुट विद्रोह हो चूके थे। 1757 ई. से लेकर 1856 ई. तक ब्रिटिश-सरकार व भारत के बीच हुए आंदोलन, विद्रोह तथा सैनिक विप्लव का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-;


पूर्वी भारत तथा बंगाल में विद्रोह

(1) संन्यासियों का विद्रोहः बंगाल पर अधिकार करने के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने वहाँ नई अर्थव्यवस्था स्थापित की, जिसके कारण ज़मींदार, कृषक एवं शिल्पी आदि नष्ट हो गए। 1770 ई. में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल को वहाँ के लोगों ने कंपनी के पदाधिकारियों की देन समझा। ब्रितानियों ने तीर्थ स्थानों में आने-जाने पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए, इससे संन्यासी लोग क्षुब्ध हो गए। संन्यासियों ने इस अन्याय के विरूद्ध विद्रोह किया। उन्होंने जनता के सहयोग से कँपनी कोठियों तथा कोषों पर आक्रमण किए। इन लोगों ने कँपनी के सैनिकों के विरुद्ध बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। अंत में वारेन हेस्टिंग्स को एक लम्बे अभियान के पश्चात् इस विद्रोह को दबाने में सफलता मिली। इस संन्यासी विद्रोह का उल्लेख बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास घ् आनंद मठ ' में मिलता है।

(2)  चुआर और हो का विद्रोह : मिदानपुर ज़िले की आदिम जाति के चुआर लोगों में अकाल एवं भूमि कर में वृद्धि तथा अन्य आर्थिक कठिनाइयों के विरुद्ध असंतोष था। अतः इन लोगों ने भी बग़ावत कर दी। कैलापाल, ढोल्का तथा बाराभूम के राजाओं ने 1768 ई. में एक साथ विद्रोह किया। इस प्रदेश में 18वीं शताब्दी के अंतिम दिनों तक उपद्रव होते रहे।
इस प्रकार छोटा नागपुर तथा सिंहभूम ज़िले के हो तथा मुंडा लोगों ने भी 1820-22 तक एवं पुनः 1831 ई. में विद्रोह कर दिया और कंपनी की सेना का मुक़ाबला किया। यह प्रदेश भी 1837 ई. तक उपद्रवग्रस्त रहा।

(3)  कोलों का विद्रोह : ब्रितानियों ने नागपुर के कोलों के मुखिया मुंडों से उनकी भूमि छील ली और उन्हेंे मुस्लिम कृषकों तथा सिक्खों को दे दी। अतः कोलों ने हथियार उठा लिए। उन्होंने 1831 ई. में लगभग 1000 विदेशियों को या तो जला दिया या मौत के घाट उतार दिया। यह विद्रोह शीघ्र हीरांची, सिंहभूम, हजारीबाग, पालामऊ तथा मानभूम के पश्चिमी क्षेत्रों में फैल गया। एक दीर्घकालीन और विस्तृत सैन्य अभियान द्वारा इस विद्रोह का दमन कर शांति स्थापित की गई।

(4)  संथालों का विद्रोह : राजमहल ज़िले के संथाल लोगों में राजस्व अधिकारियों के दुर्व्यवहार, पुलिस के अत्याचार, तथा ज़मींदारों एवं साहुकारों की ज़्यादतियों के विरुद्ध असंतोष था। अतः उन्होंने अपने नेता सिंधु तथा कान्हू के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और कंपनी के शासन के अंत होने की घोषणा कर दी तथा अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया। सरकारी सेना और पुलिस ने 1856 ई. तक इस विद्रोह पर क़ाबू पा लिया। सरकार ने इन लोगों के लिए पृथक संथाल परगना बना दिया, जिससे वहाँ शांति स्थापित हो गई।

(5)  अहोम विद्रोह : कँपनी ने आसाम के अहोम अभिजात वर्ग के लोगों को वचन दिया था कि बरमा युद्ध के पश्चात् उसकी सेनाएँ लौट जाएँगी, जिसे कँपनी ने पूरा नहीं किया। इसके अतिरिक्त ब्रितानियों ने अहोम प्रदेश को भी कंपनी राज्य में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया। परिमाण स्वरूप अहोम के लोगों ने विद्रोह कर दिया। 1828 में उन्होंने गोमधर कुँवर को अपना राजा घोषित कर दिया और रंगपुर पर आक्रमण करने की योजना बनाई। कंपनी ने अपनी शक्तिशाली सेना के द्वारा इस विद्रोह का दमन कर दिया। अहोम लोगों ने 1830 ई. में दूसरी बार विद्रोह करने की योजना बनाई, परंतु इस अवसर पर कंपनी ने शांति की नीति का पालन किया और उतरी आसाम के प्रदेश एवं कुछ अन्य क्षेत्र महाराज पुरंदर सिंह को दे दिए।

(6)  खासी विद्रोह : कंपनी ने पूर्व दिशा में जैन्तिया तथा पश्चिम में गारो पहाड़ियों के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। ब्रितानियों ने ब्रह्मपुत्र घाटी को सिल्हट से जोड़ने हेतु एक सैनिक मार्ग बनाने का निश्चय किया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु बहुत से ब्रितानी, बंगाली एवं अन्य लोग वहाँ भेजे गए। ननक्लों के राजा तीर्थ सिंह ने इस कार्य का विरोध किया और गारो, खाम्पटी एवं सिंहपो लोगों के सहयोग से ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। शीघ्र ही इसने लोकप्रिय आंदोलन का रूप ले लिया। 1833 ई. में सैन्य कार्यवाही के पश्चात् ही ब्रिटिश सरकारें को इस विद्रोह का दमन करने में सफलता प्राप्त हुई।

(7)  पागल पंथियों और फरैजियों का विद्रोह : उतरी बंगाल में करमशाह के कुछ हिंदू-मुसलमान अनुयायी थे, जो अपने को पागलपन्थी कहते थे। करम शाह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र टीपूँ नामक फ़क़ीर को किसानों ने अपना नेता बनाया। टीपूँ ने ज़मीदारों के मुजारों पर किए गए अत्याचारों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। उन्होंने 1825 ईं. में शेरपुर पर अधिकार कर लिया और अपने आपको राजा घोषित कर दिया। उसके नेतृत्व में गारो की पहाड़ियों तक उपद्रव हुए। इस क्षेत्र में 1840 तथा 1850 तक उपद्रव होते रहे।

फरैजी लोग बंगाल के फरीदपुर के वासी हाजी शरियतुल्ला द्वारा चलाए गए संप्रदाय के अनुयायी थे। ये लोग धार्मिक, सामाजिक तथा राज नैतिक क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे। शरियतुल्ला के पुत्र दादूमियां (1819-60) ने ब्रितानियों को बंगाल से बाहर निकालने की योजना बनाई। उन्होंने ज़मीदारों के मुजारों पर किए गए अत्याचारों के विरूद्ध किसानों को विद्रोह करने के लिए उकसाया। फरैजी उपद्रव 1838 से 1857 तक चलते रहे तथा अंत में इस संप्रदाय के अनेक अनुयायी वहाबी दल में शामिल हो गए।


पश्चिमी भारत में विद्रोह

(1)  भीलों का विद्रोह : भीलों की आदिम जाति पश्चिमी तट के खानदेश ज़िले में रहती थी। 1812-19 तक इन लोगों ने ब्रिटिश सरकारें के विरूद्ध हथियार उठा लिए। कंपनी के अधिकारियों का मानना था कि पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा उसके प्रतिनिधि त्रिम्बकजी दांगलिया के उकसाने के कारण ही यह विद्रोह हुआ था। वास्तव में कृषि संबंधी कष्ट एवं नवीन सरकार से भय ही इस विद्रोह का प्रमुख कारण था। ब्रिटिश सेना ने इस विद्रोह का दमन का प्रयास किया, तो भीलों में उत्तेजना और भी बढ़ गई, विशेषतया उस समय, जब उन्हें बरमा में ब्रिटिश सरकारें की असफलता की सूचना मिली। उन्होंने 1825 ई. में पुनः विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का नेतृत्व सेवरम ने किया। 1831  एवं 1846 में पुनः उपद्रव उठ खड़े हुए। इससे पता चलता है कि इसने ब्रिटिश विरोधी लोकप्रिय आंदोलन का रूप धारण कर लिया था।

(2)  कोल विद्रोह : कोल भीलों के पड़ौसी थे। ब्रिटिश सरकारें ने उनके दुर्ग नष्ट कर दिए थे, अतः वे उनसे अप्रसन्न थे। उसके अतिरिक्त ब्रिटिश शासन के दौरान उनमें बेरोज़गारी बढ़ गई। कोलों ने ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध 1829, 1839 तथा पुनः 1844 से 1848 ई. तक विद्रोह किए। कंपनी की सेना ने इन सब विद्रोहों का दमन कर दिया।

(3)  कच्छ का विद्रोह : कच्छ तथा काठियावाड़ में भी ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध असंतोष विद्यामान था। संघर्ष का प्रमुख कारण कच्छ के राजा भारमल्ल और झरेजा के समर्थक सरदारों में व्याप्त रोष था। 1819 ई. में ब्रिटिश सरकारें ने भारमल्ल को पराजित कर दिया और उसके स्थान पर उसके अल्प-वयस्क पुत्र को शासक बना दिया। इस प्रदेश के शासन का संचालन करने हेतु एक प्रति शासक परिषद् (Council of Regency) की स्थापना की गई, जो एक ब्रिटिश रेज़िडेंट के निर्देशन में कार्य करती थी। इस परिषद् द्वारा किए गए परिवर्तनों तथा भूमि कर में अत्यधिक वृद्धि के कारण लोगों में बहुत रोष था। बरमा युद्ध में ब्रितानियों की पराजय का समाचार मिलते ही इन लोगों ने विद्रोह कर दिया और भारमल्ल को पुनः शासन बनाने की माँग की। ब्रिटिश सरकारें ने इस विद्रोह का दमन करने के लिए चंबे समय तक सैनिक कार्यवाही की। 1831 ईं. में पुनः विद्रोह हो गया तथा अंत में कंपनी ने अनुरंजन की नीति अपनाई।

(4)  बघेरों का विद्रोह : ओखा मंडल के बघेरों में आरंभ से ही ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध रोष विद्यामान था। जब बड़ौदा के गयाकवाड़ ने कंपनी की सेना के सहयोग में इन लोगों से अधिक कर वसूल करने का प्रयत्न किया, तो बघेरों ने अपने सरकार के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध हथियार उठा लिए। यहीं नहीं, उन्होंने 1818-19 ई. के बीच कंपनी अधिकृत प्रदेश पर हमला भी कर दिया। अंत में 1820 ई. में यहाँ शांति स्थापित हो गई।

(5)  सूरत का नमक आंदोलन : ब्रिटिश सरकारें ने 1844 ई. में नमक पर 1/2 रूपया प्रति मन से बढ़ाकर एक रुपया प्रति मन कर दिया, जिसके कारण सूरत के लोगों में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध रोष फैल गया। अतः यहाँ के लोगों ने हथियार उठा लिए। उन्होंने कुछ युरोपीय लोगों पर प्रहार भी किए। ब्रिटिश सरकारें ने सशक्त विरोध को देखकर अतिरिक्त कर हटा दिए। इसी प्रकार, 1848 में सरकार ने एक मानक (Standard) नाप और तौल लागू करने का प्रयत्न किया, तो यहाँ के लोगों ने इसका बहिष्कार किया और इसके विरूद्ध सत्याग्रह भी किया। अतः सरकार ने इसे भी वापस ले लिया।

(6)  रमोसियों का विद्रोह : रमोसी एक आदिम जाती थी, जो पश्चिमी घाट में निवास करती थी। इस जाति के लोगों में ब्रिटिश प्रशासन के विरुद्ध असंतोष विद्यमान था। 1822 ई. में रमोसियों ने  अपने सरदार चित्तरसिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया तथा सतारा के आस-पास के प्रदेश में लूटमार की। 1825-26 में पुनः उपद्रव हुए। यह क्षेत्र 1829 ई. तक उपद्रवग्रस्त बना रहा।
इसी प्रकार सितम्बर, 1839 में सतारा के राजा राजप्रतापसिंह को सिंहासन के हटाकर देश से निष्कासित कर दिया गया, जिसके कारण समस्त प्रदेश में रोष फैल गया। परिणामस्वरूप 1840-41 ई. में विस्तृत दंगे हुए। विद्रोहियों का नेतृत्व नरसिंह दत्तात्रेय पेतकर ने किया। उन्होंने बहुत से सैनिक एकत्रित कर लिए तथा बादामी के दुर्ग पर अधिकार करके सतारा के राजा का ध्वज लहरा दिया। ब्रितानियों के विस्तृत सैन्य अभियान के पश्चात् ही यहाँ शान्ति स्थापित हो सकी।

(7)  कोल्हापुर एवं सावन्तवाड़ी में विद्रोह : कंपनी की सरकार ने 1844 के पश्चात् कोल्हापुर राज्य में प्रशासनिक पुनर्गठन किया, जिसके विरूद्ध वहाँ के लोगों में भयंकर असंतोष उत्पन्न हो गया। गाडकारी एक वंशानुगत सैनिक जाति थी, जो मराठों के दुर्गों में सैनिकों के रूप में काम करती थी। कंपनी की सरकार ने उनकी छटनी कर दी, जिसके कारण गाडकारी जाति के लोग बेरोजगार हो गए। अतः विविश होकर उन्होंने ब्रितानियों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। गाडकारियों ने समनगढ़ एवं भूदरगढ़ के दुर्गो पर अधिकार कर लिया। इसी प्रकार सावन्तवाड़ी में भी विद्रोह हुआ। विस्तृत सैन्य कार्यवाही के पश्चात् ही ब्रितानियों को विद्रोहों का दमन करने में सफलता प्राप्त हई।

दक्षिणी भारत में विद्रोह

(1)  विजयनगर के शासन का विद्रोह : 1765 ई. में कम्पनी ने उत्तरी सरकार के जिलों को प्राप्त कर लिया। इसके पश्चात् कठोरतापूर्वक कार्य किया गया। 1794 ई. में कम्पनी ने राजा को अपनी सेना भंग कर देने की माँग की और उसे तीन लाख रूपए उपहार में देने हेतु बाध्य किया गया। जब राजा ने इन शर्तो को मानने से इन्कार कर दिया, तो कम्पनी ने उनकी जागीर छीन ली। अतः विवश होकर राजा ने ब्रितानियों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह में उन्हें अपनी प्रजा तथा सेना का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। राजा ब्रितानियों के विरूद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इसके बाद कम्पनी को सुध आई तथा उन्होंने राजा के बड़े पुत्र को जागीर वापस लौटा दी तथा धन की माँग भी कम कर दी।

इसी प्रकार, डिंडीगुल और मालावार में पॉलीगार के लोगों में ब्रितानियों की भूमिकर व्यवस्था के विरूद्ध भयंकर असन्तोष विद्यामान था। अतः उन्होंने भी ब्रितानियों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। 1801-1805 तक अभ्यर्पति जिलों (ceded districts) एवं उत्तरी अरकाट जिलों के पॉलीगारों का विद्रोह चलता रहा। इन पॉलीगारों के छूट-पुट विद्रोह मद्रास प्रेजिडेन्सी में भी 1856 ई. तक चलते रहे।

(2)  दीवान वेला टम्पी का विद्रोह : 1805 ई. में वेलेजली ने ट्रानवकोर के महाराजा को सहायक सन्धि करने हेतु बाध्य किया। महाराज सन्धि की शर्तो से नाराज थे। अतः उन्होंने सहायक कर (Subsidy) नहीं चुकाया, जिससे उस पर यह धन बकाया होता चला गया। यहाँ के ब्रिटिश रेजीडेण्ट का व्यवहार भी बहुत धृष्टापूर्ण था। अतः दीवान वेला टम्पी विद्रोह करने हेतु बाध्य हो गए, जिसमें उन्हेंे नायर बटालियन का सहयोग भी प्राप्त हुआ। अधिक शक्तिशाली ब्रिटिश सेना को ही इस विद्रोह का दमन करनें में सफलता प्राप्त हुई।

वहाबी आन्दोलन

वहाबी आंदोलन उन्नीसवी शताब्दी के चौथे दशक के सातवें दशक तक चला। इसने सुनियोजित रूप से ब्रिटिश प्रभुसत्ता को सबसे गम्भीर चुनौती दी। इस आंदोलन के प्रवर्तक सैयद अहमद (1786-1831) थे, जो रायबरेली के निवासी थे। वह दिल्ली के एक सन्त शाह वली उल्ला (1702-62) से बहुत अधिक प्रभावित हुए। सैयद अहमद इस्लाम में परिवर्तनों और सुधारों के विरूद्ध थे। वह रूढ़िवादी होने के कारण मुहम्मद के समय के इस्लाम धर्म को पुनः स्थापित करना चाहते थे। वस्तुतः यह पुनरूत्थान आंदोलन था।

सैयद अहमद ने वहाबी आंदोलन का नेतृत्व किया और अपनी सहायता के लिए चार खलीफे नियुक्त किए, ताकि देशव्यापी आंदोलन चलाया जा सके। उन्होंने इस आंदोलन का केन्द्र उतर पश्चिमी कबाइली प्रदेश में सिथाना बनाया। भारत में इसका मुख्य केन्द्र पटना और इसकी शाखाएँ हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, यू. पी. एवं बम्बई में स्थापित की गईं।

सैयद अहमद काफिरों के देश (दार-उल हर्ब) को मुसलामानों के देश (दारूल इस्लाम) में बदलना चाहते थे। अतः उन्होंने पंजाब में सिक्खों के राज्य के विरूद्ध जिहाद की घोषणा की। उन्होंने 1830 ई. में पेशावर पर विजय प्राप्त की, परन्तु शीघ्र ही वह उनके हाथ से निकल गया और सैयद अहमद युद्ध में लड़ते हुए मारे गए। 1849 ईं. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सिक्ख राज्य को समाप्त कर पंजाब को ब्रिटिश राज्य में सम्मिलित कर लिया, तो भारत के समस्त ब्रिटिश प्रदेशों के वहाबियों ने अपना दुश्मन मान लिया।

1857 ई. के विद्रोह के समय वहाबियों ने ब्रिटिश विरोधी भावनाओं का प्रसार किया, परन्तु ब्रिटिश विरोधी सैनिक गतिविधि में उन्होंने कोई भाग नहीं लिया।

ब्रितानियों को भय था कि वहाबियों को अफगानिस्तान अथवा रूस से सहायता प्राप्त न हो जाए। 1860 ई. के बाद ब्रिटिश सरकार ने वहाबियों का दमन करने के लिए एक विशाल पैमाने पर सैनिक अभियान आरम्भ किया तथा सिथाना पर चारों ओर से सैनिक दबाव डाला गया। इसके अतिरिक्त भारत में वहाबियों पर देश द्रोह का आरोप लगाया गया और उनके विरूद्ध न्यायालयों में अभियोग चलाए गए। वहाबी आंदोलन बहुत समय तक चलता रहा और उन्नीसर्वी शताब्दी के अन्तिम 20 वर्षों तक उन्होंने पहाड़ी सीमावर्ती कबीलों की सहायता की, परन्तु इसके बाद यह आंदोलन धीमा होता चला गया।

यह आंदोलन मुसलमानों का, मुसलमानों द्वारा मुसलमानों के लिए ही चलाया गया था। इसका प्रमुख उद्देश्य भारत को मुसलमानों के देश में परिवर्तित करना था। यह आंदोलन रूढ़िवादी विचारधारा के कारण कभी भी राष्ट्रीय आंदोलन का रूप धारण नहीं कर सका, अपितु इसने देश के मुसलमानों में पृथकवाद की भावना जाग्रत की।

सैनिक विद्रोह

ईस्ट इंडिया कंपनी को साम्राज्य विस्तार के लिए एक विशाल सेना की आवश्यकता थी। जैसे-जैसे ब्रितानियों के साम्राज्य का विस्तार होता चला गया, वैसे-वैसे उनकी सैनिक भर्ती की आवश्यकताओं में वृद्धि होती चली गई। भारतीय ब्रिटिश सेना में वेतन भोगी भारतीय सैनिक थे, जो बहुत स्वामिभक्त थे, परंतु उनका वेतन तथा भत्ता ब्रिटिश सैनिकों की तुलना में बहुत कम था। अतः भारतीय सैनिकों में कंपनी सरकार के विरुद्ध रोष व्याप्त था। अतएव समय-समय पर बहुत से विद्रोह हुए, जो प्रायः स्थानीय रूप के ही थे।

1764 :बक्सर के युद्ध में हैक्टर मुनरो की एक बटालियन बंगाल के शासक मीरकासिम से जा मिली थी।
1806 :कंपनी सरकार ने भारतीय सैनिकों के माथे पर जाति सूचक तिलक लगाने अथवा पगड़ी पहनने पर प्रतिबंध लगा दिए, जिसके विरोध में वेल्लौर के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया तथा मैसूर के राजा का झंडा फहरा दिया।
1824 : में जब बैरकपुर रेजिमेंट को समुद्र मार्ग से बरमा जाने का आदेश दिया गया (समुद्र यात्रा जातीय परंपराओं के विरुद्ध थी); तब उस रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया।
1824 : वेतन के प्रश्न पर बंगाल की सेना ने विद्रोह कर दिया।
1825 : असम की रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया।
1838 :शोलापुर स्थित एक भारतीय टुकड़ी को जब पुरा भत्ता नहीं दिया गया, तो उसने विद्रोह कर दिया।
1844 : 34वीं N. I. 64वीं रेजिमेंट ने कुछ अन्य लोगों की सहायता से पुराना भत्ता न दिए जाने तक सिंध के अभियान में भाग लेने से इन्कार कर दिया।
1849-50 : पंजाब पर अधिकार करने वाली कंपनी की सेना में विद्रोह की भावना पनप रही थी। अतः 1850 में गोविन्दगढ़ की रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया।

क्रांति १८५७

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